Monday 17 September 2012

अकेला पन




जन्म से ही 
अकेलेपन से बचता इंसान  
रिश्तो में पड़ता है.
बंधनों में जकड़ता है.

कुछ रिश्ते धरोहर से मिलते  
कुछ को  अपनी ख़ुशी के लिए
खुद बनाता है 

कुछ दोस्त  बनाता है
उम्मीदें  बढाता है
कि वो अपनत्व पा सके 
अकेलेपन से पीछा छुड़ा सके.

लेकिन जब उम्मीदें 
टूटती हैं 
शिकायतों का 
व्यापार चलता है 
फिर द्वेष घर बनाता है

हर रिश्ता चरमराता है
दुख और पीड़ा  से 
इंसान छटपटाता है.

तब एक वक़्त ऐसा आता है
हर जिरह से इन्सान हार जाता है.
संवाद मौन धारण कर 
गुत्थियों को उलझाता है 

बंधन मुक्त हो इंसान 
अकेला पन चाहता है.
विरक्ति की ओर अग्रसर हो
शून्य में चला जाता है 

तब .....

तब न तेरी न मेरी
सब ओर फैली हो 
मानो शांत, श्वेत 
धवल चांदनी सी
बस ...
बस वही पल 
जो शीतलता दे जाता है
वही जीना साकार 
हो  जाता है 

अंत में तो 
इंसान अकेला ही रह जाता है
कोई दोस्त, कोई साथी 
काम न आता  है.
फिर क्यों न अकेलेपन को ही 
अपनाता है

Tuesday 4 September 2012

दरारें मुनासिब नहीं




प्यार के बदले 
प्यार मिले 
ये जरुरी नहीं
एक दूसरे की 
चाहत मिल जाए 
ये कम तो नहीं.

मिल न पायें 
इक दूजे से 
मजबूरियों के चलते 
तो कोई बात नहीं..
ख्यालों में 
किसी के रहना भी 
कुछ कम तो नहीं.

मुमकिन है 
विचार मिलें, न  मिलें ...
दर्द एक दूसरे का 
समझ से परे हो नहीं.

नम हो जाएँ जो आँखे
किसी की सीली रातों के 
खामोश, तन्हा दर्द पे 
ये क्या काफी नहीं 
अपनेपन के लिए.

समझ लें ये बातें 
जो  कही जाती नहीं
तो दरारें किसी रिश्ते में 
मुनासिब नहीं.