सोमवार, 9 मार्च 2009

मेरी छोडो..अपनी कहो..

मेरी छोडो ना तुम अपनी कहो

ना मेरी सुनो, कुछ अपनी कहो..

क्या बीती तुम पर,

जब ये दिल टूटा,

क्या हुआ असर..

जब प्यार तुम्हारा लुटा ..


क्या हुआ था तब,

तुम पर जब ऊँगली उठी..

क्या बीती तुम पर...

जब कहर की रात ढली..

कैसे शब् पर रोई तुम..

कैसे मद्धम सांसे टूटी,

मेरी छोडो ना ,

तुम अपनी कहो...

कैसे दर्द सहा...

कैसे आहे फूटी..

क्या बीती तुम पर

जब अरमानो की ख़ाक उडी..

तुम तो बहुत नाज़ुक हो,

कैसे ये गम सह पाई,

कैसे तुमने आंसू पिए..

कैसे जख्म-इ -जिगर सिये

कैसे सारे जुल्म सहे..

कैसे तुम बेहाल हुई..


मेरी छोडो न..

तुम अपनी कहो..

मत पूछो मुझसे..

क्या बीती मुझपे..

मैं तो बर्बाद था पहले भी..

थोडा सा बस और हुआ..

तुम्हे पाकर मैं..

सब गम भूल गया था..

पर अब तो मैं नासूर हुआ..

न झांको इन बेनूर सी आँखों में..

न मुझसे कोई सवाल करो..

उजड़ चुका सा शहर हु मैं..

और चलती फिरती लाश हु में..

मेरी छोडो न..

तुम अपनी कहो..

ना मेरी सुनो..

बस अपनी कहो...!!


9 टिप्‍पणियां:

  1. वाह अनामिका जी, वाह क्या बात है, एक पुरुष मन की पीडा को आप समझ गयी,
    क्या खूब बयां किया है आपने पुरुष की विरह पीडा को,
    खुबसूरत रचना..
    हार्दिक साधुवाद

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  2. दर्द भरी मन की पीड़ा उकेरती रचना .....!!

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  3. मर्मस्पर्शी सुंदर रचना. आभार.
    सादर,
    डोरोथी.

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  4. बहुत प्रवाहमयी रचना ... दूसरे की पीड़ा को महसूस करने का प्रयास .. अच्छा लगा

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  5. मन को छूतीं ...मीठी सी रचना...बधाई

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  6. कितनी पीड़ा है हर इक बात में बहुत सुन्दर प्रस्तुति

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  7. मेरी छोड़ो ना
    तुम अपनी कहो
    कैसे इतनी दर्द भरी
    रचना रच डाली
    मुझे बताया भी नहीं
    और मन में
    इतनी सारी व्यथा
    छिपा डाली !
    मुझे शिकायत है ! लेकिन बावजूद इसके रचना बेहद प्यारी है ! मानवीय संवेदना और हमदर्दी के जज्बे से भरपूर ! बधाई एवं शुभकामनायें !

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