रविवार, 17 जनवरी 2010

ढँके जज्बात






















दोस्तो, यह कविता मैने हिंद युग्म की दिसंबर माह की युनीकवि प्रतियोगिता के लिए भेजी थी जिसे १४वा स्थान मिला. अब इसे में आपकी राय के लिए प्रस्तुत करती हू..



अब मै ढाँप लेती हूँ
अपने जज्बातो को तुमसे भी
और ओढ़ लेती हूँ
एक स्वाँग भरी मुस्कान को
छुपा लेती हूँ सारा दर्द
आवाज में भी.
तुम भेद ही नही पाते
इस चक्रव्यूह को,
नही देख पाते
स्वाँग भरी मुस्कान के पीछे
के चेहरे का दर्द.
मेरी आवाज का कंपन
कहीं तुम्हारी ही खनक में
विलीन हो जाता हैं.
तुम स्वयं मे मदहोश हो,
गफलत में हो, कि
मै संभल गयी हूँ
तुम्हारे दिये दर्द से..
किंतु सच....?
सच कुछ और ही हैं.
मै भीतर ही भीतर
पल-पल बिखरती हूँ..
टूटती हूँ.
मगर हर लम्हा
प्रयास-रत रहती हूँ..
अपने में ही सिमटे रहने को..
नही चाहती अब
मै तुम्हे अपनी आहें
सुनांना.
क्युँकि सुना कर भी
देख चुकी हूँ
और बदले में तुम्हारी
रुसवाईयाँ ही पायी हैं.
इसलिये अब मैने
अपने चारो ओर
खडी कर दी हैं
एक अभेद्य दीवार
जिसके भीतर
झांकने की
सबको मनाही हैं
और तुमको भी

26 टिप्‍पणियां:

  1. अनामिका जी, आदाब
    .....अब मैने..अपने चारो ओर...खडी कर दी हैं...एक अभेद्य दीवार
    जिसके भीतर...झांकने की...सबको मनाही हैं.... तुमको भी
    बहुत भावपूर्ण कविता है...
    साहित्यिक रचना की प्रस्तुति के लिये
    भावनाएं, चिन्तन,
    शब्दों का चयन,
    उन्हें सही क्रम में सजाने का हुनर
    ज़रूरी है...
    और वो कुदरत ने आपको दिया है
    शाहिद मिर्ज़ा शाहिद

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  2. हिंद युग्म पर भी कह चूका हूँ और यहाँ भी - बेजोड़. "ढँके जज्बात" के लिए सभी विशेषण छोटे है. आपके ब्लॉग पर पहली बार आया हूँ और follower बनकर जा रहा हूँ इसलिए आता रहूँगा.

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  3. तुम छेद ही नही पाते
    इस चक्रव्यूह को,

    इन पंक्तियों में छेद के स्थान पर भेद होता तो ज्यादा उपयुक्त लगता .
    दर्द को शब्दों का जामा पहनना कोई आपसे सीखे....बहुत भावपूर्ण अभिव्यक्ति

    एक अभेद्य दीवार
    जिसके भीतर
    झांकने की
    सबको मनाही हैं
    और तुमको भी

    अब सबको मनाही है तो फिर झांकने की गुस्ताखी नहीं करेंगे......
    शुभकामनायें

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  4. सच लिखा है जिस पर बीतती है ......... वो ही जानता है और अपना दर्द छुपाना चाहता है ......... पूरी दुनिया के सामने हंसते हुवे रहता है ..... गहरी अभिव्यक्ति है ......

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  5. विषाद के क्षणों को अभिव्यक्त करती सुंदर कविता के लिए बधाई.

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  6. प्यारी अनामिका,
    सबसे पहले तो हिंदी युग्म में सफलता के लिए बहुत बहुत बधाई...
    कविता सचमुच अद्भुत है..शब्दों और भाव का सामंजस्य अनोखा है...और सबसे बड़ी बात पाठक इससे खुद तो जोड़ पा रहा है ...क्योंकि इस तरह की अनुभूति सबको हुई ही होगी कभी नकभी ...बहुत सुदर रचना...
    और हाँ संगीता जी से सहमत हूँ..'छेद' की जगह 'भेद' शब्द ज्यादा उपयुक्त होता....एक खटका सा लगा है बस वहीँ पर...अभी भी कर सकती हो...हो सके तो () में डाल दो... क्या फर्क पड़ेगा...
    एक बार फिर अनेकों बधाई..इस सफलता के लिए और इस अद्वितीय रचना के लिए....

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  7. तुम स्वयं मे मदहोश हो,
    गफलत में हो, कि
    मै संभल गयी हूँ
    तुम्हारे दिये दर्द से..
    किंतु सच....?
    Kitnee kasak hai in alfazon me!

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  8. स्वांग भारी मुस्कान के पीछे छिपे ढके दर्द को यूँ जाना भी तो नहीं जा सकता ...
    "जाके पैर ना फटे बिवाई ...वो क्या जाने पीर परायी" ...!!

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  9. बहुत खूब लिखा पर ऐसी भी दुनिया से दूर रहने की क्या जरुरत की दीवार खड़ी कर दी है.अरे हमसे तो वासता रखिये क्योंकि
    "दर्द की दीवार हैं
    सुधियों के रोशनदान
    वेदना के द्वार पे
    सिसकी के बंदन वार"
    इसके आगे की मेरी ये पंक्तियाँ फिर कभी

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  10. तुम स्वयं मे मदहोश हो,
    गफलत में हो, कि
    मै संभल गयी हूँ
    तुम्हारे दिये दर्द से..
    किंतु सच....?
    bahut hi achchhi bayan nahi kar paa rahi ,man ko dheere dheere sparsh karti rahi .

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  11. सच कुछ और ही हैं.
    मै भीतर ही भीतर
    पल-पल बिखरती हूँ..
    टूटती हूँ.
    मगर हर लम्हा
    प्रयास-रत रहती हूँ..
    अपने में ही सिमटे रहने को..

    bahut khub ,pasand aayi yah badhaai

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  12. वाणी गीत जी! 'अनामिका की सदायें'' पर अपने कमेंट्स भेजना चाहती थी
    पर ना उनके ब्लॉग पर मेरा कमेन्ट सबमिट हो रहा है ना ही उनका ई मेल मेरे पास है ,यदि आपके पास हो तो मेरा ये मेसेज उन तक पहुँचाने का कष्ट करना प्लीज़


    '' मेरे जज्बातों को जुबान दे दी जैसे अपनी रचना में
    आपने रचा मैं जीती हूँ यही सब ,शायद हम में से अधिकांश यही करती होंगी ,नही मालूम .
    पर...अपने चारो ओर एक अभेद्य दीवार खडी रखती हूँ मैं
    जिसमे से झाँकने की भी अनुमति नही देती किसी को
    यहाँ तक कि खुद बाहर आना बंद कर दिया .
    क्या हुआ ?
    यदि ये दुनिया के अनुभवों पर तुम्हारी अभिव्यक्ति है तब तो ठीक
    अन्यथा किसी को कोई फर्क नही पड़ने वाला मेरे नन्हे से मित्र !
    अपने आपको ही तकलीफ दोगी और एक दिन डिप्रेशन का शिकार हो जाओगी .
    इस दीवार को तोड़ दो, बाहर आओ दुनिया बहुत सुंदर है और यहाँ अच्छे इंसानों कि भी कोई कमी नही . अपना सच तुम्हारी रचना में दिखा,अपने अनुभव लिख बेठी .
    प्यारा लिखती हो ,सचमुच ,मस्का नही और ना ही खुश करने को लिखा है तुम्हे
    और पढूंगी ,तब और भी लिखूंगी
    प्यार ,आशीष,शुभकामनाएं ''

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  13. बेहतरीन अभिव्यक्ति के साथ बहुत सुंदर रचना....

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  14. "अपने चारो ओर
    खडी कर दी हैं
    एक अभेद्य दीवार
    जिसके भीतर
    झांकने की
    सबको मनाही हैं
    और तुमको भी"
    -

    एक शब्द में कहूं तो - "अदभुत".
    परन्तु एक बात और कहना चाहूँगा -
    "दीवारों के परे न था सिर्फ वही शख्स,
    जिसने पहुंचाई थी चोट मन को.
    दुनिया ऐसी भी नहीं कि,
    दीवारों में जगह भी न मिल सके,
    कुछ सुराखों को.."

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  15. आपको और आपके परिवार को वसंत पंचमी और सरस्वती पूजन की हार्दिक शुभकामनायें!
    बहुत ही सुन्दर रचना लिखा है आपने!

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  16. बेहतरीन अभिव्यक्ति के साथ बहुत सुंदर रचना....

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  17. जिसके भीतर
    झांकने की
    सबको मनाही हैं
    और तुमको भी
    .... बेहद प्रसंशनीय रचना..... खूबसूरत अभिव्यक्ति ... बधाई !!!!

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  18. सच कुछ और ही हैं.
    मै भीतर ही भीतर
    पल-पल बिखरती हूँ..
    टूटती हूँ.
    मगर हर लम्हा
    प्रयास-रत रहती हूँ..
    अपने में ही सिमटे रहने को..
    अनामिका शायद इन शब्दों मे बहुत सी स्त्रियों का दर्दछुपा है और हर औरत को एक दर्द की दीवार ओढ कर ही जीना पडता हैकेवल दूसरों की खातिर। बहुत अच्छी लगी दिल को चू गयी ये ्र्मस्पर्शी कविता। मेरी कहानी संजीवनी के लिये मैने सुझाव नोट कर लिये हैं जब उपन्यास लिखूँगी तो जरूर इनका ध्यान रखूँगी धन्यवाद और शुभकामनायें

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  19. बड़ी अपनी सी लगी यह रचना ! ऐसा लगा जैसे मेरी अनुभूतियों ने आपकी रचना में ही सार्थक अभिव्यक्ति पाई है ! बेहतरीन रचना के लिये बधाई एवं शुभकामनायें !

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  20. बेहद खूबसूरत रचना.
    आपकी संवेदनशील रचना पढ़ कर किसी शायर की यह पंक्ति याद आ गई
    हंसती हुई आँखों में भी गम पलते हैं,
    कौन मगर झांके इतनी गहराई में.
    रोने से अब क्या होगा तन्हाई में
    चीखें भी जब डूब गई शहनाई में.

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