मंगलवार, 7 दिसंबर 2010

आज की नारी ...

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आज जहाँ देखो नारी के अधिकार की आवाज़ उठती है...लेकिन नारी इस अधिकार की आवाज़ में अपनी आत्मा की आवाज़ को खुद ही अनसुना किये जा रही है...तो लीजिए कुछ विचार पेश हैं नारी के विकास पर...आप सब पढ़ कर अपने विचारों से कृतार्थ करें ये निवेदन है....



आज स्त्रियों की समस्या को लेकर समाज में एक तूफ़ान, एक तहलका सा मचा हुआ है.  शायद कोई पत्रिका, कोई ब्लॉग ही बचा हो जो  स्त्रियों के स्तंभ के लिए सुरक्षित न हो. सब जगह विवाद हो रहे हैं, प्रस्ताव पास किये जा रहे हैं. लेकिन यह सारा बवंडर, सारा आंदोलन जीवन की उपरी सुविधाओं तक सीमित है और इसलिए हम देखते हैं कि इन सब के बावजूद स्त्रियों के सच्चे सुख में कोई वृद्धि नहीं हो रही है. ना ही स्त्रियां सतीत्व के सच्चे आदर्श कि ओर उठ रही हैं. ना उन्हें कोई आत्मिक सुकून मिल रहा है .कदाचित कौंसिलों में जाना, अखबारों में लेख लिखना, सभा सम्मेलनों एवं संस्थाओं की अध्यक्षता, दफ्तरों में काम करना आदि ही आगे बढ़ना नहीं है, निश्चय ही इनके भी दरवाजे सब के लिए खुले होने चाहियें, लेकिन इस से व्यक्तित्व का विकास होता है आत्मा का विकास नहीं. आज की नारी शक्ति की स्त्रोत है, पुरुष से अधिक नारी के कन्धों पर समाज की उन्नत्ति का भार है.


नारी जरा से नशे में अपनी मर्यादा, अपने मातृत्व का महान गौरव भूल गयी है . अधिकार ! कैसा मोहक, मायावी, जाल में फ़साने और नशे में विस्मृत कर देने वाला शब्द है ये . नारी भी इसका शिकार हो गयी है.

आज नारी को भी कुछ चाहिए. पुरुष अस्थिर, अतृप्त, अस्त-व्यस्त और गतिमान है तो वह क्यों न हो ? उसे भी गति का आनंद, उसके झोंको एवं आन्धियों में गिरने और उड़ने का स्वाद क्यों न लेने दिया जाये ? बस इसी सोच पर अटकी है आज की नारी की सोच.

पुरुष तो स्वार्थी है, बेवफा है और हमने तो सदा त्याग किया है, कब तक त्याग करती रहें ? इसलिए उस त्याग को छोड़कर हम भी उनकी कोटि में क्यों न आ जाएँ ?  आज सारा ध्यान पुरुष की नक़ल करने में ही नारी अपनी सफलता मानती है . आज नारी असंतुष्ट और अतृप्त है, फल्तह वह अपने व्यक्तित्व का निर्माण भी नहीं कर पाती. उसका हृदय जल रहा है कि वह दासी बनी कब तक बैठी रहे ? इसी कश्मोकश के परिणामस्वरूप कई नारियाँ प्रसिद्धि पा लेने के बावजूद भी दुखी और अतृप्त हैं . उनका हृदय प्यास से भरा है, आत्मा छटपटा रही है . नारी यह भूल गयी है कि उसे स्नेह भी चाहिए.

पुरुष के अज्ञान अथवा परिस्थिति के कारण वर्तमान काल में नारी की जो दशा है उसमे उसने भ्रमवश यह समझ लिया है कि पुरुष नारी से श्रेष्ठ है. जो पुरुष करे, वह स्त्री क्यों न करे - आज नारी ने अपने को अनायास ही लघुता प्रदान कर दी है. क्यों नारी पुरुष बनना चाहती है ? क्या पुरुष उस से श्रेष्ठ है ? श्रेष्ठ तो नहीं था पर अपनी कल्पना एवं अधिकार के नशे में नारी ने अप्रत्यक्ष रूप से उसे श्रेष्ठ बना दिया है. आज नारी के जागरण के इस क्षेत्र में पुरुष ही नारी का नेतृत्व कर रहा है ...या यों कहें कि भ्रमवश नारी पुरुष का ही अंधानुकरण कर रही है . यद्यपि मुंह से कहती है कि वह पुरुष के पीछे चलने को तैयार नहीं, मेरा अपना व्यक्तित्व है लेकिन यह एक आश्चर्यजनक सत्य है कि इन कृत्यों से नारी कि स्वतंत्रता घटी है, बढ़ी नहीं . पुरुष को वह एक मोडल बना कर उसका अनुसरण कर रही है .

परन्तु क्या यह अधिकार पुरुष की प्रतिद्वंदिता से प्राप्त हो सकता है ?  वह नारी जो माता रूपी खिले हुए फूल की पूर्वा-वस्था (कली) है, पुरुष रुपी फल से, जिसे उसने ही जन्म दिया है, बराबरी का दावा करने चली है.  आज वह भूल गयी है कि वह पुरुष की माता है. अतः सदा से ही वो पुरुष से श्रेष्ठ  ही है लेकिन बराबरी के अधिकार की आवाज़ उठा कर खुद अपनी श्रेष्ठता, अपनी कमजोरी का परिचय दे रही है.

आज नारी को समता चाहिए. प्रत्येक देश, समाज, प्रांत, जाती में नारी की स्वतंत्रता की मांग है . यह उचित मांग है . कोई उलटी खोपड़ी और विकृत हृदय व्यक्ति ही होगा जो इसका विरोध करेगा. नारी को ये अधिकार देने का सब को अवश्य समर्थन करना चाहिए. समाज नारी को अपाहिज रख कर देर तक खड़ा नहीं रह सकता. स्वयं पुरुष नारी बिना अशक्त है.अथार्त जीवन की रचना संभव नहीं. स्त्री पुरुष दोनों ही इसमें सहयोगी हैं. एक दूसरे के दोनों पूरक अंग हैं. दोनों मिलकर एक सम्पूर्ण इकाई की रचना करते हैं. इसलिए बराबरी का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता. तब स्वतंत्र व्यक्तित्व और बराबरी के अधिकार का तहलका मचाना ना स्त्रियों के लिए कल्याणकारी हो सकता है ना अपने अधिकारों एवं मर्यादा का दुरूपयोग करना पुरुषों के लिए लाभदायक है. 

लेकिन नारी कभी सोचे कि क्या इन मांगो से या इन मांगों के पूर्ण हो जाने से नारी - हृदय की प्यास बुझ जायेगी ? नारी - हृदय की प्यास तभी मिट सकती है जब वह अपने में नारी की सच्ची प्रतिष्ठा करे और यह प्रतिष्ठा पुरुष हृदय के पूर्ण सहयोग से ही संभव है. नारी पिता, पुत्र, भाई किसी न किसी रूप में पुरुष को आत्मार्पण करने को अपनी आंतरिक  प्रेरणा और प्रकृति द्वारा बाध्य है इसी में उसके मातृत्व का, पुरुष की माता होने का गौरव सुरक्षित है और पुरुष  इस भावना को व्यवहारिक रूप देने वाला, बढाने वाला सहायक और साथी है. इसलिए स्त्री जीवन का उद्देश्य तब तक पूरा नहीं हो सकता जब तक वह पुरुष का सहयोग प्राप्त ना कर ले. यही हाल पुरुष का भी है. बेशक कुछ समय के लिए पुरुष अपना अस्तित्व स्वतंत्र रख ले, परन्तु बिना नारी के आत्मार्पण के अपने को अधूरा अनुभव करता है.यही वह नारी है जो पुरुष नहीं है और ना ही हो सकेगा.

पुरुषों का भी  होश तब तक ठिकाने नहीं आ सकता जब तक स्त्रियां भी उन्ही के सामान शक्तिमान न हो जाएँ. और इसके लिए स्त्रियों की ओर से मांग इस बात की होनी चाहिए कि हमारी तरह पुरुष भी अपने जीवन व्यापी बंधन के प्रति वफादार बनें. हमारी तरह वे भी जीवन में आत्मार्पण करें. वे भी विवाहित जीवन कि जिम्मेदारियों और बोझ को प्रेम-पूर्वक निबाहे और उठायें. 

आज का युवक परिस्थितियों के आगे झुक जाने वाला, कठिनाइयों के बीच रो देने वाला, चिडचिडा और असंयमी हो गया है. वह बोलता बहुत और चाहता अधिक है....आखिर क्यों? यह दुर्भाग्य की बात है की जिसके त्याग का दूध पी कर वह शक्तिमान होता था, जिसका अमृत पीकर समाज में बच्चे उठते थे वो माता का आँचल उनके ऊपर से हटता जा रहा है .  नारी के इस कार्य की तुलना पुरुष के कौन से श्रेष्ठ कार्य से हो सकती है ? जिनका त्याग प्लेटफोरमस पर नहीं बोलता, बल्कि बच्चे के जीवन में अंकुरित होता और पनपता है. जो अधिकार की नहीं, प्रेम की भूखी है - उस प्रेम की जिससे बढ़ कर कोई अधिकार नहीं. और इस प्रेम और सम्मान को, जिसे पाकर और कुछ पाने की इच्छा नहीं रह जाती. नारी ही एक ऐसी त्यागमयी मूर्ती है जो प्रतिदान की आशा नहीं रखती. एक नारी ही इतनी श्रेष्ठ है जो सुघड़ता से अपनी चहुंमुखी जिम्मेदारियों को सहर्ष स्वीकार कर के निभा सकती है. फिर क्यों नारी ऐसी आवाज उठा कर खुद अपनी श्रेष्ठता को कम कर अपनी लघुता का परिचय दे रही है. नारी तो सदा से श्रेष्ठ और पूज्य थी, रही है और रहेगी.

37 टिप्‍पणियां:

  1. @यह इस प्रेम और सम्मान को, जिसे पाकर और कुछ पाने की इच्छा नहीं रह जाती...

    इसे समझने में कुछ देर लगती है मगर यह आत्मसंतुष्टि हर प्रकार से तृप्त कर जाती है ...फिर कोई कामना नहीं , लालसा नहीं ...!

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  2. नारी तो सदा से श्रेष्ठ और पूज्य थी, रही है और रहेगी.
    बस यही मूल मंत्र लेकर समाज चलेगा तो दुनिया अधिक सुन्‍दर हो जाएगी। नारी को दृढ़ता पूर्वक नारी ही बना रहना है और पुरुष में जो पुरुषोचित अवगुण हैं उन्‍हें भी संस्‍कारित करना है।
    आलेख कुछ लम्‍बा हो गया है, लेकिन फिर भी वैचारिक धरातल पर पुष्‍ट है। बधाई।

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  3. कमाल का लेख ...पूरा पढ़ा ! सोचने को मजबूर करता लेख अनामिका ! बधाई !

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  4. अधिकार ! कैसा मोहक, मायावी, जाल में फ़साने और नशे में विस्मृत कर देने वाला शब्द है ये . नारी भी इसका शिकार हो गयी है.
    ....kamaal kaa lekh likhaa hai aapne...ek-ek baat vyavahaarik our tathya se bharaa huaa....

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  5. बहुत सार्थक और प्रभावी आलेख ......हर विचार
    सोचने को प्रेरित करता .....

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  6. प्रभावी आलेख........सोचने को मजबूर करता

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  7. अनामिका जी
    आपके लेख में नारी की वास्तविक स्थिति का अंकन हुआ है .....बहुत बढ़िया ...शुक्रिया

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  8. प्रेरक और सोचने को विवश करता आत्ममंथन को प्रोत्साहित करता आलेख्।

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  9. यदि यही राह हो जाये तो सुमंगल ही हो जाये। चिन्तनीय आलेख।

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  10. Bahut badhiya vichar manthan hai! Naree kaa ye dharam sankat wala roop sadiyon se raha hai aur rahega,lekin uski pratishtha bhee banee rahegee!

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  11. गहन चिंतन-मनन के बाद लिखा गया एक सार्थक लेख!

    विषय के प्रत्येक पहलू को छूता हुआ....

    कुंवर जी,

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  12. बहुत गहन अध्ययन करके लिखा है ये लेख,नारी जीवन विसंगतियां,समाज,अपेक्षाएं और उपेक्षा सब को समाहित कर दिया आपने

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  13. काफी चिंतन - मनन करके नारी की श्रेष्ठता पर अच्छा लेख लिखा है ....पर नारी श्रेष्ठ है यह आज कल की पढ़ी लिखी महिलायें ही सोच और समझ पाती हैं ...और विचार कर पाती हैं ...अपने हक की लड़ाई भी वही कर पाती हैं जो पढ़ लिख कर जागरूक हो रही हैं ...

    खैर विषय श्रेष्ठता से सम्बंधित है ,जिसे बहुत सही रूप में प्रस्तुत किया है ...विचारणीय लेख ...

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  14. आलेख में नारी से जुड़े पहलुओं का अच्छा चित्रण किया है आपने!

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  15. बात समता पर आकर टिक जाये तो अच्छा

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  16. जब स्थितियां कठिन होती हैं तब संघर्ष भी कठिन होते है। नारी को अपने अधिकारों के लिए प्रयास स्वयं ही करने हैं। इसके लिए बौद्धिक और वैचारिक स्तर पर खुद को स्थापित करना है और दायरा भी व्यापक बनाना है, बिना किसी को आरोपित किए। इस दिशा में आपका प्रयास सराहनीय है।

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  17. माननीया अनामिका जी
    सादर अभिवादन !

    पुरुषों का भी होश तब तक ठिकाने नहीं आ सकता जब तक स्त्रियां भी उन्ही के सामान शक्तिमान न हो जाएं
    ख़ुदा ख़ैर करे … :)

    आपका विस्तृत लेख पढ़ कर नारी हृदय की और थाह पाने का अवसर मिला । अत्यंत श्रम और लगन से तैयार अलेख के लिए बधाई !

    वैसे, पश्चिम की नारी बहुत आगे मानी जाती है …
    लेकिन वह सम्मान श्रद्धा की पात्र नहीं बन सकी, न ही इसकी कोई संभावना शेष नज़र आती है । …क्योंकि उनमें भारतीय नारी की तरह ममता वात्सल्य करुणा लज्जा प्रेम समर्पण संतुष्टि त्याग सहनशीलता क्षमा जैसे गुण न हो'कर छिछोरापन, घोर स्वार्थ, असहिष्णुता, पराकाष्ठा की हद तक दंभ, घिनौनी काम-पिपासा सहित अनेक अवगुण भरे होने के कारण उनके सारे नारी सुलभ सौम्य गुण भाव विलुप्तप्रायः हैं ।
    सच तो यह है कि -
    भारत की नारी-शक्ति की महानता के अनुसरण की आवश्यकता अन्य जगत को है ।


    …और, समस्त् मातृशक्ति से निवेदन है कि समाज के कुछ उदाहरणों के कारण समूचे पुरुष वर्ग को दोषी न माना जाए …

    शुभकामनाओं सहित
    - राजेन्द्र स्वर्णकार

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  18. अनामिका जी,

    धीर-गम्भीर सोच से उपजा यह आलेख!! सत्यपरक अभिव्यक्ति!!
    बधाई!!

    ममता वात्सल्य और त्याग से उपजने वाला अपनत्व निश्चित मानिये मांगकर प्राप्त अधिकारो से पैदा नहिं हो सकता।

    सम्मान भी……

    सहज मिले वह दूध बराबर,
    मांगे मिले वह पानी।
    खींच मिले वह खून बराबर,
    सुख-चिंतन की वाणी॥

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  19. अनामिका जी,
    पुरुष और नारी एक दूसरे के पूरक हैं ! श्रेष्ठता और लघुता का तो सवाल ही नहीं है ! यह सच है कि समाज ने ,या यूँ कहें पुरुष प्रधान समाज ने हमेशा नारी को अपने पीछे रहने पर मज़बूर किया मगर आज की नारी में वैचारिक स्तर पर बहुत बड़ा बदलाव आया है और वह समय दूर नहीं जब वह समाज के उन क्षेत्रों में भी अपने प्रतिनिधित्व का हस्ताक्षर करती नज़र आएगी जहाँ अभी उसकी उपस्थिति नहीं है !
    नारी के अन्दर बहने वाला ममता का सागर उसे पुरुष से कहीं ऊँचा स्थान देता है !
    आपका प्रभावी आलेख सोचने पर मजबूर करता है !
    -ज्ञानचंद मर्मज्ञ

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  20. बहुत ही अच्छा.....मेरा ब्लागः-"काव्य-कल्पना" at http://satyamshivam95.blogspot.com/ ....आप आये और मेरा मार्गदर्शन करे...धन्यवाद

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  21. आपका प्रभावी आलेख सोचने पर मजबूर करता है !

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  22. नारिविमर्ष को नई दिशा देता यह आलेख प्रभावशाली बन गया है..

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  23. अच्छी पोस्ट बहुत कुछ सोचने को विवश करती !अभी हाल ही मे हमारे शहर रायपुर में एक समाज विशेष की महिलाये जुआ खेलते पकड़ाई !सभी अच्छे घर की महिलाये थी !कुछ दो तीन उनमे से नशे में भी थी !उनका तर्क था की वे किटी पार्टी कर रही थी !
    इस बार मेरे ब्लॉग में SMS की दुनिया ............

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  24. यह एक अदिम बहस है जाने कभी समाप्त होगी या नही .....?

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  25. आशा है,महिला सशक्तिकरण के लिए हो रहे सरकारी प्रयासों से भी इसमें मदद मिलेगी।

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  26. आपका कहना सही है। आपने लगभग हर पहलू को इसमें समेट लिया है. आपकी मेहनत रंग लायी।
    इस महत्वपूर्ण विषय पर इतने विस्तार से लिखने के लिए आपका आभार।

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  27. बहुत सारगर्भित आलेख अनामिकाजी ! स्त्री पुरुष के अधिकारों की इस लड़ाई को सार्थक दिशा देने की आवश्यकता है ! उचित मार्ग दर्शन के अभाव में यह विवाद स्त्री पुरुष दोंनो के लिये ही अपने अपने वर्चस्व को येन केन प्रकारेण सिद्ध करने की मुहीम बन कर रह गया है ! सबसे पहले तो नारी को यही तय करना होगा कि उसकी श्रेष्ठता का पैमाना क्या होना चाहिए ! श्रेष्ठता के मायने क्या हैं ! जागरूक करता बहुत ही बढ़िया आलेख ! बधाई एवं आभार !

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  28. इसमें नारी की ही गलती है ,वो अपने बेटे को बेटी के मुकाबले ज्यादा अच्छा बताती है ,उसकी सारी गलतियां माफ़ करती है फलतः बेटी में हीं भावना भर जाती है और बेटा अपने को ऊंचा समझने लगता है और बचपन में दी हुई ये बात उनके दिमाग में इतनी गहरी पैठ बना चुकी होती है की वो जिन्दगी के हर मोड़ पर उनमें परिलक्षित होती है.

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  29. अनामिक जी ,कौंच को केवाच भी कहते हैं और अंग्रेजी में cow hedge plant

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  30. विचारणीय पोस्ट. सोंचनें को मजबूर करती हुई.... ....अच्छी प्रस्तुति.
    .
    मेरे ब्लॉग पर " हम सबके नाम एक शहीद की कविता "

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  31. बहुत ही खूबसूरती से आपने इसके हर पहलू को केन्द्रित किया है ..सुन्‍दर एवं विचारणीय प्रस्‍तुति ...बधाई ।

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  32. बहुत सशक्त एवं विचारणीय आलेख!

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  33. आपके लेख की अंतिम पंक्ति में ही सब कुछ निहित है फिर इतने बड़े लेख का प्रयोजन क्या हो सकता है भला! मुझे तो लगता है कि सब कुछ इंसान के अंदर से आता है ...चाहे वह पुरुष की नारी के प्रति या नारी की पुरुष के विषय में सोच ही क्यों न हो. आज समाज में नारी की जो भी स्थिति है उसमें स्वयं नारियों का योगदान भी कोई कम नहीं है. समाज की इस विसंगति के लिए केवल पुरषों को कोसते रहने से काम नहीं चलेगा. आवश्यकता इस बात की है कि नारी स्वयं यह तय करे कि उसे क्या चाहिए और उसे पाने के लिए जाए कहाँ...ताकि उसे वह सब प्राप्त हो सके जिसकी उसे इच्छा है और जिसकी वह अधिकारिणी भी है.

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