शनिवार, 13 सितंबर 2014

ये कैसी परिणति




नाज़ों से पाला 
दर्दों को झेला
देह को कटते
खुली आँखों से देखा
तब तुझे पाया था !

खून से लथपथ
अचेत, अधमरी सी
निर्बल सी काया को
अपने आगोश में
समेटा था
तब तेरी साँसों को
सम्बल मिल पाया था !

अपने पयोधरों से
तेरा रोम रोम सींचते
रातें आखों में काटते
तेरे लिए दुआएं मांगते
तेरे काँटों को चुनते 
तेरी इस माँ ने
तेरी ही खुशियों के लिए
रब की हर चौखट को
टेरा था !

लेकिन तूने
नव-यौवना बनते ही
घात-प्रतिघात कर
विश्वास की ड्योढ़ी को
तिरस्कृत कर
ममत्व का
निर्ममता से
प्रतिदान करते हुए
तनिक भी विचारा नहीं 

और 

अनजान युवान की मलिन,
लिस-लिसी, अशुचि पूर्ण
मिथ्या बातों में आ
देह की श्वेत चुनर को 
तार तार कर,जश्न मना
स्वयं तो उच्छिष्ट (अपवित्र) कर
अपनी ही धरती को
बंजर बना डाला !

आह ! ममता को सुवासित करने
की ये कैसी परिणति
कि  तेरी जननी
अपने ही अनुताप में
सुलगती, आज स्वयं के
अग्निस्नान को बाध्य है !!



7 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (14-09-2014) को "मास सितम्बर-हिन्दी भाषा की याद" (चर्चा मंच 1736) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच के सभी पाठकों को
    हिन्दी दिवस की
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. बहुत मार्मिक अभिव्यक्ति -ऐसा दारुण आघात माँ की ममता के लिए दुःसह होता है!

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  3. वाह!
    बहुत से गहराई से भावों को समायोजित करती एक बेहद भावपूर्ण रचना।

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  4. बहुत दिनों के बाद आपके पोस्ट पर आया हूं। पहले की ही तरह भाव-बहुल शब्द का प्रयोग इस कविता में जान डाल दिया है।प्रशंसनीय कविता है। मेरे पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा। धन्यवाद।

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  5. आह ! ममता को सुवासित करने
    की ये कैसी परिणति
    कि तेरी जननी
    अपने ही अनुताप में
    सुलगती, आज स्वयं के
    अग्निस्नान को बाध्य है !!
    ...अंतस को छूते गहन अहसास...बहुत मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति...

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