शनिवार, 26 जुलाई 2025

घर अब घर नहीं लगता

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घर अब  घर नहीं लगता 
जब जब घर की चौखट  
पर पैर रखा 
किसी वीराने जंगल में 
पहुँच जाने का एहसास 
चुभ गया मन में ,

माँ  एक कोने में 
खाली खाली आँखों से 
पिता की तस्वीर को 
एक टक निहारती 
बैठी मिली 

पिता जी के जाने के बाद 
घर खाली सा लगता है  !

वही  दरो - दीवार है 
वही फर्नीचर 
वही दो पलंग 
घर के कोनों में जमे बैठे हैं 
पर फिर भी पूरा घर 
एक घने अँधेरे से भरी 
काल कोठरी सा 
वीरान सा लगता है  
जिसके हर कोने में 
खामोशियां रो रही हैं  !

माँ  का सपाट सा 
दिखने वाला चेहरा  भी मानो 
दुखों के तूफ़ान समेटे हो ,
सौ प्रश्न हों आँखों में 
विवशताएँ मानो होठों के भीतर 
हिलोरे मार मार कर 
घुट रही हों 
पर वो कुछ कह नहीं रही हैं  !

ये मंजर देख मन में 
बहुत कुछ तरक  जाता है 

नज़र  घर के चारों  तरफ 
पिता जी का अक्स ढूंढ  रही है 
कल्पनाएँ  अपने प्रयासों में 
कई बार सफल भी होती हैं 
पिता जी को किसी कोने में 
बैठा  सा देखकर ............ 
लेकिंग सत्य तो कुछ 
और ही है ना 
जो कड़वा है  !

मन की आँखे बरस रही हैं 
बाहें एक बार को तो 
अपने आप फ़ैल जाती हैं 
पिता जी से आलिंगन लेने को 
और फिर सिमट जाती हैं 
उदासियों का आकाश 
स्वयं में भर कर  !

अब घर घर नहीं लगता 
माँ बुलाती है तब भी 
मन नहीं करता वहां जाने का 
क्यूंकि बरबस ही 
जिद्दी आँखे छलक ही जाती हैं 
अब माँ को ही 
अपने पास बुला लेती हूँ 
कि पिता जी के जाने के बाद 
घर  अब  घर नहीं लगता !!












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