Friday 29 January 2010

सात फेरो का छळ















न जाने वो कैसे छली गई???
अपने भाग्य की रेखाओं से??

उसने तो भरोसा किया था खुदा पर
खुदा का फ़ैसला मान सर झुकाती गई...

उफ़ ये क्या खता हो गई...
सात फेरो के बंधन मे वो छली गई...!!

उम्र भर के गमो की सलाखो मे देखो..
बे-गुनाह...मासूम वो कैद हो गई....!!

त्याग कर के भी उसे दुत्कारे मिली...
ना-समझ बन्दे की वो साथी बनी..

एहसास जिसको नही था..ना समझ थी कोई..
एक वहशत थी जो पविर्त्र बंधन का मकसद बनी..

ना अच्छा बेटा..ना पति..ना अच्छा पिता बन सका..
जिसकी खातिर वो सुकोमला...उसकी भार्या बनी...

बे-दर्द रस्म-ओ-रिवाजों तले बच्चो की खातिर वो घुटने लगी..
अभिशापित सा जीवन बिताना था उसको..बिताती रही..

उम्र भर के गमो की सलाखो मे देखो..
बे-गुनाह...मासूम वो कैद हो गई....!!

उफ़ ये क्या खता हो गई...
सात फेरो के बंधन मे वो छली गई...!

Sunday 24 January 2010

अधूरापन....




















आज भी कितने अधूरेपन मे जीती हे वो...उसके अंदर जो मा का प्यार पाने का आभाव है..जो आज भी उसे एक अजीब सी खलिश दे जाता है...बचपन मे मिला ये अधूरापन उसकी ज़िंदगी का अधूरापन बन चुका है..ये ऐसा दर्द हे जिसे वो शब्दो मे ढाल कर भी कम नही कर पाती..!!

जब मा की गोद मे रह कर बच्चा बड़ा होता है तब उसकी मा को उसे छोड़ कर जाना पड़ा अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए..क्यूकी घर की आर्थिक स्थिति इतनी अच्छी नही थी की पिता घर का खर्च अकेले वहन कर सकते...घर के हालात सुधारने के लिए मा को आगे पढ़ना था, अपनी एक महीने की बच्ची को छोड़ दो साल के लिए किसी ट्रेनिंग के लिए बाहर जाना था..शायद मा के पास उसे छोडने के अलावा और कोई रास्ता नही था..शायद मा को ये एहसास भी नही था की जिस बच्ची को वो अपने सीने से अलग कर के मज़बूरीवश दूर जा रही है..वो बच्ची कितना तडफेगी ज़िंदगी भर इस प्यार के लिए..!!

शायद बाद मे मा अपने प्यार से उसकी इस कमी को पूरा कर पाती..लेकिन विधि का विधान कुच्छ और ही था..मा दो साल बाद वापिस आई तो हालात के चलते उस बच्ची को उसकी आंटी के पास भेज दिया गया..और उसकी आंटी के बारे मे तो जो कुच्छ कहा जाए कम है..एक ऐसी स्त्री जिसे मा की ममता क्या होती है, बच्चो को कैसे प्यार किया जाता है..कैसे पाला जाता है, वो नही जानती थी..ज़रा सी उस तीन साल की बच्ची की छोटी सी ग़लती पर उसे खूब पीटा जाता, आग से उसके शरीर पर घाव दिए जाते, बे-रहमी से मार खाने से उसके गाल सूज जाते....उस नन्ही सी परी का वो कांटो भरा बचपन ज़िंदगी भर का वो नासूर बन गया जो उम्र भर उसकी ज़िंदगी को टीस देता रहा...और वही मा की ममता का आभाव उसे हमेशा के लिए एक अंतहीन अधूरापन दे गया..और ये अधूरापन हमेशा हमेशा के लिए एक दर्द बन कर ठहर गया..जिसे वक़्त भी नही मिटा सका...!!

Sunday 17 January 2010

ढँके जज्बात






















दोस्तो, यह कविता मैने हिंद युग्म की दिसंबर माह की युनीकवि प्रतियोगिता के लिए भेजी थी जिसे १४वा स्थान मिला. अब इसे में आपकी राय के लिए प्रस्तुत करती हू..



अब मै ढाँप लेती हूँ
अपने जज्बातो को तुमसे भी
और ओढ़ लेती हूँ
एक स्वाँग भरी मुस्कान को
छुपा लेती हूँ सारा दर्द
आवाज में भी.
तुम भेद ही नही पाते
इस चक्रव्यूह को,
नही देख पाते
स्वाँग भरी मुस्कान के पीछे
के चेहरे का दर्द.
मेरी आवाज का कंपन
कहीं तुम्हारी ही खनक में
विलीन हो जाता हैं.
तुम स्वयं मे मदहोश हो,
गफलत में हो, कि
मै संभल गयी हूँ
तुम्हारे दिये दर्द से..
किंतु सच....?
सच कुछ और ही हैं.
मै भीतर ही भीतर
पल-पल बिखरती हूँ..
टूटती हूँ.
मगर हर लम्हा
प्रयास-रत रहती हूँ..
अपने में ही सिमटे रहने को..
नही चाहती अब
मै तुम्हे अपनी आहें
सुनांना.
क्युँकि सुना कर भी
देख चुकी हूँ
और बदले में तुम्हारी
रुसवाईयाँ ही पायी हैं.
इसलिये अब मैने
अपने चारो ओर
खडी कर दी हैं
एक अभेद्य दीवार
जिसके भीतर
झांकने की
सबको मनाही हैं
और तुमको भी

Thursday 14 January 2010

नये दौर की मुहोब्बत...

















अब शिकायतो का दौर खतम हो गया
तेरी महफिल से उठा और बेगाना हो गया

तूने पलट के भी ना देखा अपने तलबगार को
ऐसा छिटका दामन से कि दिल से भी जुदा हो गया

हश्र ऐसा होगा मुहोब्बत का तेरी महफिल में
दर्द वालो के ही घर में दर्द अजनबी हो गया

क्या फरक रह गया तुझमे और बे- वफाओ में
वक़्त की मजबूरियो का तू भी खैर-ख्वा हो गया

आज अपनो की खातिर तेरा प्यार इतना बढ गया
मुझे अपनो से जुदा कर तू मुझ से ही जुदा हो गया

वाह नये दौर की मुहोब्बत के दस्तूर भी हैं नये
जिस मोड पे मिला था उसी मोड पे ला के छोडा गया.

जिस दर्द से बिल्बिलाते हुये दामन पकडा था तेरा
'तन्हा' आज उसी दर्द से फिर रु-ब-रु हो गया.

Sunday 10 January 2010

जलने दे मुझको यू ही...









तन्हा हू तो रहने दे तन्हा मुझको यू ही
जलने मे भी मज़ा है जलने दे मुझको यू ही

ख्वाब टूट गये हैं रुसवा हो गई है खुशिया
दुनिया को क्या देखु, अश्क नही देखते कुच्छ भी
धुंधला गयी है आँखे, दिल टूटा है कुच्छ यू ही..
तन्हा हू तो रहने दे तन्हा मुझको यू ही...!!

सावन जो रह-रह कर मेरी आँखो मे आता है.
भूलने देता ही नही मेरी किस्मत की ठोकरो को..
जिसका मांजी,पतवार किनारा और मंज़िल भी है...
फिर भी बे-सहारा हू,अकेली हू, तन्हा यू ही..!!

जलजले है गमो के, दामन भी कोई नही है..
सहारा होकेर भी वो मेरा सहारा नही है..
चिता जलती है खुशियो की..कोई राह भी नही है..
फिरती हू बोझ लिए कंधो पर गमो का यू ही..!!

रस्मे है जो कंधो पर निभानी है ज़रूरी..
काम है जो ज़िंदगी के वो निभाने भी ज़रूरी..
कांटो मे चाहे उलझी जाती है ये ज़िंदगी..फिर भी..
रो कर..या हस कर...'तन्हा' तुझे ज़िंदगी बितानी है यु ही..!!

Saturday 2 January 2010

समझो मुझे....

















क्या तुम अनभिज्ञ हो
मेरे
हालातो से..
मैने तो हर प्रष्ठ
खोल के रख दिया हैं
तुम्हारे सामने
अपनी किताब का.

क्यू नही समझ पाते
तुम, मेरी
मजबूरिया
और दे देते हो
हर बार इल्जाम
मेरी
विवशता को

क्या तुम्हे
आडंबर लगती हैं
सारी बाते

क्यो तुम अविश्वास में
जीते हो ?
और विष
उडेल
अपने शब्द बाणो से
आघात करते हो
मुझ पर
त्राहि-त्राहि कर,
करके मुझे व्यथित,
खुद भी
खून के आंसू रोते हो.

समझो, और रखो विवेक,
ना लाओ विकारो को
जो उठते हैं मेरे प्रती
अविश्वास में
अनायास ही तुम्हारे मन में.

मै तुमसे
बेहद प्यार करती हू
मगर मजबूर हू
नही उतर पाती
तुम्हारी उमीदो पर खरी

मै गुनेह्गार हू तुम्हारी
पर मै नही खैलती
भावना से तुम्हारी

हे प्रिये,
धीर धरो
मै सदा ही हू
तुम्हारी, सिर्फ तुम्हारी.