Thursday 20 October 2011

अमरप्रेम का दीपक

साथियो आज बहुत दिनों बाद अपनी तबीयत के कोप से बच कर आप की दुनियां में लौटना हो पाया और कैसे ना लौटती आखिर आप सब की टिप्पणियां प्यार स्वरुप ही तो हैं  जो मुझे यहाँ खींच लाती हैं, तो बताइए फिर  भला मैं  आप सब से कैसे दूर रह  सकती हूँ ..

तो चलिए आज फिर से अंतरजाल की दौड़ में शामिल हो जाती हूँ ....और अपना काम  आरम्भ करते हुए, आप सब के ब्लोग्स तक पहुँचते हुए,   राजभाषा हिंदी  पर भी अपने लेख को क्रमबद्ध करते हुए महादेवी जी के जीवन रुपी आभामंडल को विस्तार देते हुए  आपके साथ अपनी  यह नयी रचना साँझा करती हूँ ...
 
अमरप्रेम का दीपक




तू भावों की थाली सजा
आस दीप में 
कम्पायमान अरमानों की 
लौ को प्रखर कर 
जिन्दगी को उजास देती है.

तेरी  आशाओं के रेशे 
तमन्नाओं   को दुलराते हुए 
तेरे मुख-मंडल पर 
जीने की ममता को 
जीवित रखते हैं.

किन्तु मैं अपने जीवन की
चिलचिलाती धूप से क्लांत 
तेरे सामीप्य की 
कल्पना में लिपटा
अपने ही अश्रु कणों को 
तेरी उँगलियों के 
स्पर्शमात्र से 
हिमकण बना
थोड़ी सी ठंडक 
पा लेने की 
चाह लिए 
चुपचाप तुझ में लीन
तेरी सोचें बुनता हूँ.

मैं अपने व्यथित 
आलोल मन को 
उग्रता से दौड़ाता  हुआ 
एकाकीपन की 
कोठरी में पड़ा,
अरमानों की अस्थिरता 
में डूबा 
तेरे आस दीप की 
प्रखर लौ संग 
इस प्यार की 
अमरता को आँका करता हूँ.




देख इन अंधेरों को,
एकाकीपन को ,
क्षीण होती इस वय को,
मेरी सांसों के 
वेग में छुपे 
जीवन-मरण के 
चिन्हों को... 
कि कैसे 
यह अमरप्रेम का दीपक 
नश्वरता को 
पाथेय बना
समाधिस्थ  होने को है.



"आप सब को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं" 

Tuesday 11 October 2011

कमल के फूल




क्यों इक हूक सी 
दिल में उठती है,
क्यों इक आस, सदा 
ताना-बाना बुनती है 
जितना भी निचोड़ दूँ 
दिल को 
हर सोच तुझ पर ही 
आकर क्यों रूकती है ?

क्या मैंने कभी 
जफा की थी ?
क्या मैंने कभी
बेरुखी दी थी ?
क्या मैंने चुभाये थे 
कभी नश्तर ?
क्या मैंने हिज्र की 
सर्द कोई शब् दी थी ?

missing-you-wallpaper.jpg image by foxterier

फिर क्यों मेरे 
नसीब के कागज़ पर 
तूने तमाम दर्द 
लिख डाले ?
क्यों मेरी पेशानी पर ही 
बदकिस्मती  के 
नक़्शे गढ़ डाले ?

मैं हर लम्हा 
क्यों इंतजार में जलती हूँ ?
तुझे मुझसे प्यार नहीं, तो 
मैं क्यों इस प्यार में 
सिसकती हूँ ?




क्यों फूट आते है 
वेदना के ये बूटे 
बार - बार 
मेरे मन की ओढनी पर 
देख जिन्हें मैं दिन रात 
आराम अपना  
खो देती हूँ 
और फिर  से  
समझाती हूँ दिल को 
हर - बार 
कि क्यों कमल के 
फूलों से 
प्यार की खुशबू 
की आशा रखती हूँ.


Tuesday 4 October 2011

अश्रु आहड़





मैं ही शायद 
तुम्हें नहीं समझ पायी.
तुमने तो पहले ही दिन 
मुझे अश्रु  आहड़ भेंट किया था,
प्रणय निवेदन से अब तक  सतत  
भरती आई हूँ उसे 
तुम्हारी ही कृपा से .




लेकिन बहुत बार ऐसा भी हुआ 
कि तुमने उसमें  
अनुराग की सुगंध इतनी भरी   
कि मैं पागल हिरणी सी 
मृगतृष्णा लिए 
तुम्हारे पीछे 
आकुल, व्याकुल सी 
मंजिल से भटके 
पथिक की भाँती 
दौड़ती चली गयी.

लेकिन क्या मिला मुझे
इस मरुस्थल में ?
उस सुवास  को  
पा लेने की जिद्द 
और इस इन्तजार के 
घने जंगलों में 
छटपटाते हुए 
बेबस हो, मैं .....
अनवरत 
सूखती चली गयी .

आज भी मैं  
अपने सूख चुके 
जर्द अरमानों 
की तडतड़ाहट का 
शोर सुन - सुन कर 
तड़प उठती  हूँ.

आज तुम्हारे 
भेंट किये गए  
अश्रु आहड़ से 
अविरल प्रवाह को 
रोकने का 
ना कोई 
ओर मिलता है 
ना कोई छोर 
क्यूंकि ...
मुझमे इतना 
भी  साहस  
नहीं  कि
इस भेंट को 
अपने सूने पन
की समाधि पर 
होम कर दूँ.