Wednesday 23 November 2011

अलग दुनियां




रहमत करने वाला
थोड़ा रुसवा क्या हुआ 
इंसा भी अपना 
धर्म भूल गया 
इसमें जन्म लेने 
वाले का क्या दोष 
फिर भी उसने ना 
अपनों को 
शर्मिंदा किया.
रहा वो सदा 
मस्त 
अपनी अलग 
दुनियां में 
हमसे  तो कोई 
गिला न किया. 

कहते हैं  
ख़ुशी बांटने से 
बढती है...
बस इसी 
लीग पर वो 
चलता रहा. 
हमारी हर 
ख़ुशी हम से 
सांझा करता चला 
गली, मुहोल्ले में 
ढोलक की थाप पर 
नाचता औ नचाता गया .

क्या ले जाते हैं 
हमारा तुम्हारा
ये लोग ..
होठों पे हंसी दे 
दुआएं ढेरो 
दे जाया करते हैं
ये लोग .
आज इन्हें  भी 
बस कुछ दुआ चाहिए  
मौत के चुंगल  में 
आ चुके  हैं जो 
उन बन्दों को बन्दों की 
बस थोड़ी सी 
रहमत चाहिए.



Monday 14 November 2011

लौट आओ.. मेरे देवता !



मैंने सुना था 
कि प्रेम सबके 
भीतर ही है
उसी, स्वयं के प्रेम  को 
पाने और तृप्त होने के लिए 
एक मूर्ती का निर्माण किया था.

अपने असीम आनंद और 
विश्वास के साथ 
इस अराध्यदेव की 
ह्रदय -वाटिका में 
प्रतिष्ठा की थी.

प्रेमाश्रुओं के स्नान 
और अनुराग की धूप से 
उपासना की थी.
उपास्यदेव से  
तादाम्य बनाए रखने  के लिए 
श्रद्धा फूलों की वर्षा भी 
स्थिर मन से 
करती रही.

लेकिन मेरा दुर्भाग्य से 
निरंतर संघर्ष रहा 
और तेरी उदासीनता व् 
अकृपा दुराग्रह बन कर 
मेरे प्रेममयी जीवन पर 
काले मेघ सी  मंडराने लगीं . 

सुखद स्मृतियाँ जलने लगी हैं.
मेरा खोया हुआ प्रेम 
अनंत विरह का 
महासागर हो गया है.
मेरा मन मंदिर 
सूना, प्राणहीन हो चला है .
मैं स्वयं  भग्न-हृदया,
एक उजड़ा हुआ 
भूतहा खंडर सी हो गयी  हूँ.

मैं तुझ में समाना चाहती हूँ,
तेरी आसक्ति  में घुलना चाहती  हूँ,
मेरी साधना तेरे चरण-स्पर्श 
की ओर खींचती है.

हे देव ! मेरे मन के 
नयनों में आ जाओ.
मेरे ह्रदय में स्पंदित हो जाओ.
प्रेम और तृप्तता को
अभीष्ट कर,
मुझे प्रकाश दो 
लौट आओ..
लौट आओ..
मेरे देवता !

लौट आओ.. मेरे देवता !








मैंने सुना था 
कि प्रेम सबके 
भीतर ही है
उसी, स्वयं के प्रेम  को 
पाने और तृप्त होने के लिए 
एक मूर्ती का निर्माण किया था.

अपने असीम आनंद और 
विश्वास के साथ 
इस अराध्यदेव की 
ह्रदय -वाटिका में 
प्रतिष्ठा की थी.

प्रेमाश्रुओं के स्नान 
और अनुराग की धूप से 
उपासना की थी.
उपास्यदेव से  
तादाम्य बनाए रखने  के लिए 
श्रद्धा फूलों की वर्षा भी 
स्थिर मन से 
करती रही.

लेकिन मेरा दुर्भाग्य से 
निरंतर संघर्ष रहा 
और तेरी उदासीनता व् 
अकृपा दुराग्रह बन कर 
मेरे प्रेममयी जीवन पर 
काले मेघ सी  मंडराने लगीं . 

सुखद स्मृतियाँ जलने लगी हैं.
मेरा खोया हुआ प्रेम 
अनंत विरह का 
महासागर हो गया है.
मेरा मन मंदिर 
सूना, प्राणहीन हो चला है .
मैं स्वयं  भग्न-हृदया,
एक उजड़ा हुआ 
भूतहा खंडर सी हो गयी  हूँ.

मैं तुझ में समाना चाहती हूँ,
तेरी आसक्ति  में घुलना चाहती  हूँ,
मेरी साधना तेरे चरण-स्पर्श 
की ओर खींचती है.

हे देव ! मेरे मन के 
नयनों में आ जाओ.
मेरे ह्रदय में स्पंदित हो जाओ.
प्रेम और तृप्तता को
अभीष्ट कर,
मुझे प्रकाश दो 
लौट आओ..
लौट आओ..
मेरे देवता !

Wednesday 2 November 2011

क्या मैं गलत हूँ ?




मतभेदों से उठती 

वेदनाओं से 
मैं अस्त-व्यस्त सी हूँ.
मेरे  उपालंभों को 
गलत आकार दे 
तुम सदा भटके राही की तरह 
कर्कशता और कुप्ता के 
भाव लिए 
विकारों को जन्म देते गए 
और फासले बढाते गए .
कभी इन उलाहनों  में 
छिपी आत्मीयता  की 
गमक को जानने की 
कोशिश नहीं की .
जब तक ये निजता की 
सुवास है, 
प्यार की प्यास है ....
ये शिकायतों का 
व्यापार  चलता रहेगा. 

क्या कभी गैरों से 
कोई शिकायत करता है ?
क्या ऐसा नहीं लगता कि 
मन  की उलझनों को,
गांठों को , 
खुशियों को ,
अवसाद को 
गर सांझा ना करुँगी तो 
कुछ परायापन आ जायेगा,
रिश्तों में कुछ बनावट,
कुछ ठहराव सा 
आ जायेगा .

 मैं सदा इस अलीक 
दीवार को  डहाने के  लिए , 
इस परायेपन की  
बांस को बुहारने के लिए,
प्रयासरत...
आज  तुमसे 
विद्रोह  करने का 
साहस कर , 
तुम्हारी  दिशा विहीन सी 
भटकन को रोकना 
चाहती हूँ...!

इसी अश्रांत चेष्टा में 
हर बार
मेरी भावनाओं  
के मेघ तुम्हारे  
कठोराघातों से 
छुई-मुई हो 
फूटते रहे हैं ....
और पलकों का 
अविरल प्रवाह 
बेबसी के अंगारों  सी 
जलन लिए सोचता है 
कि  क्या मैं गलत हूँ ?