Wednesday 30 March 2011

ये दूरियाँ इतनी क्यों हैं ?

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तेरी दूरियाँ मुझसे इतनी क्यों  हैं ?
इन दूरियों का दर्द इतना बे-दर्द क्यों है?

हर अरमान पर जल उठती हूँ  कि ...
तेरी जुदाई भी सलाखों सी लगती क्यों हैं ?

न चाह कर भी  साँसे आती-जाती हैं ?
इन सांसों पर तेरा नाम है फ़िर तुझ बिन ये चलती क्यों हैं ?

तेरी यादों का आना -जाना मार ही तो जाता है..
फ़िर ये जिंदा लाश चलती क्यों है??

भर जाता है इतना दर्द क्यों सीने में ..
रूह भी ज़ार - ज़ार होती क्यों है ??

जब हम तुझ बिन जी ही नहीं सकते तो 
खुद को जीने का ये भरम क्यूँ है ?

Tuesday 22 March 2011

क्या मिला तुम्हें..?

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मैने कई दशक पहले ही 
खुद को मार लिया था..
वक़्त की स्याह चादर ने
मुझे कितनी ही तहों का 
मोटा कफ़न पहना दिया था..!!


फिर तुम अचानक तीव्र गति से
मुझमे समाते चले गये..
तुमने सीधा 
मेरे गमों पर ....
यूँ वार किया कि..
कफ़न -दर-कफ़न, 
तह-दर-तह में लिपटा,
ये तन्हा वज़ूद, 
पल भर में...
यूँ खिल उठा, 
मानो ठंड से ठिठुरते
बदन पर 
सूरज की पहली किरण पड़ी हो..


मानो किसी ने...
नन्हे शिशु को 
अपनी गोद में...
समेट लेने का 
भरसक प्रयत्न किया हो..!!


मैं इस तेज़ बहाव में, 
तीव्र गति से
बहती चली गयी..!!


प्यार का प्यासा मन
ऐसे जी उठा..
मानो मुर्दे में...
जान आ गयी हो..!!


तुमने ऐसा पल भर में 
ना जाने,
कैसा प्यार दिया....????


ये क्या हुआ, 
ये कैसे हुआ..
पल भर को..
सब कुछ बदल गया...!!


लेकिन .....


सिर्फ़ और सिर्फ़
पल भर को......हाँ
सिर्फ़ पल भर को...!!


फिर ना जाने कौन से एहसास ने
तुम्हे मुझसे जुदा कर दिया..
कहाँ. मैं...
ख्वाबों मे खोने लगी थी..
कि तुमने अचानक.. 
पल भर में ही
नाता तोड़ दिया...
अपनी दोस्ती की दुहाई दे कर..
प्यार का गला घोंट दिया..!!


मैं तुम्हारे आगे हस्ती रही..
मगर असल में...
वो वक़्त.... 
फिर से आ चुका था..
कि मैं,
फिर से.... 
पल-पल में 
टूट रही थी..!!


आह......


असमंजस्ता...
विक्षिप्तता... 
की हालत का ये दौर...
फिर से...आ गया था..
और मैं जूझ रही थी..
अपने आप से...!!


क्यूंकी.....


आज मैं... 
फिर मर गयी हूँ..
दोस्ती के हाथों... 
फिर एक बार..
हाँ फिर एक बार 
कत्ल कर दी गयी हूँ..!!


मैने तो कई दशक पहले ही 
खुद को मार लिया था..
वक़्त की स्याह चादर ने 
मुझे कितनी ही..
तहो का कफ़न पहना दिया था..!!


क्यूँ????


तुमने ये सब क्यूँ किया...?
क्यूँ आए थे... 
मेरी ज़िंदगी में..???
क्यूँ अपने प्यार के...,
अपने विश्वास के... 
अपनेपन के...
पुष्प सजाए थे...???
इस कई कफनों मे लिपटे...
तन्हा बदन पर...?


क्या मिला तुम्हें..?
मुझे यूँ फिर से मार कर..,
मुझ मरी हुई को...
क्या और मारना बाकी था...??
क्या मिला तुम्हें??
बताओ क्या मिला तुम्हे???????




Monday 14 March 2011

आओ ना प्रिये ...



















असह्य वेदनाओं को
ढेल कर,
थका - मांदा सा
विह्वल ...
तुम्हारे पास आया हूँ....
समेट लो ना मुझे
अपने दामन में,


थपका दो जरा.. 
मेरी हिज्र की रातों को 
अपने स्पर्श से.
ढक लो एक बार 
अपनी चांदनी की ठंडक से .


मैं भूल तो जाऊं जरा ..
उस जलन को
जो विस्मृतियों में आकर
लील देती है
मेरे प्यार के रेशों को.


तुम्हारा सानिध्य पा कर
मैं सुकून पा, तनिक..
और छिड़का लूँ
ओस की सी ताजगी
आग्नेय हो चुकी
अपनी रातों पर.


आओ ना प्रिये
प्यार का मेघ
बरसा दो
इस अकुलाते
तपते हृदय पर.

Sunday 6 March 2011

नियति या प्रवृत्ति.....???

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सारी कुंठाओं 
और उदासियों को 
गठरी में बाँध 
टांड पर चढ़ा कर 
रख दिया है.

और अब....
अपनी स्मृति से भी 
भुला देना चाहती हूँ
इस गठरी को.

लेकिन जब-तब 
मन की आँखें 
हर दिवार को 
टटोलती हुई सी 
अपने गंतव्य तक 
पहुँच ही जाती हैं.

और मन...
भटक ही जाता है 
बार-बार ...
उन उदास,अँधेरी,
सीलन भरी 
गलियों में.

तब....
खलबली सी 
मच जाती है 
और चीत्कार करते हुए 
सारे भाव 
नमी ला देते हैं
पलकों पर.

मीलों आगे 
बढ़ आने पर भी 
हर बार 
मैं वापिस 
वहीँ आ खड़ी होती हूँ ..
जहाँ से चली थी.

मेरी हालत 
उस मेमने जैसी है 
जो हर बार 
कोशिश करता है 
दो कदम आगे बढ़ने की 
और फिर लौट आता है 
अपने पिछले ही 
पद-चिन्हों पर.

ये  प्रवृत्ति है या..
नियति......?
कि मैं चाह कर भी 
भुला नहीं पाती 
उन पलों  को 
जो भीगे हैं 
मेरी नेह से 
निकले अवसाद से.