मंगलवार, 22 मार्च 2011

क्या मिला तुम्हें..?

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मैने कई दशक पहले ही 
खुद को मार लिया था..
वक़्त की स्याह चादर ने
मुझे कितनी ही तहों का 
मोटा कफ़न पहना दिया था..!!


फिर तुम अचानक तीव्र गति से
मुझमे समाते चले गये..
तुमने सीधा 
मेरे गमों पर ....
यूँ वार किया कि..
कफ़न -दर-कफ़न, 
तह-दर-तह में लिपटा,
ये तन्हा वज़ूद, 
पल भर में...
यूँ खिल उठा, 
मानो ठंड से ठिठुरते
बदन पर 
सूरज की पहली किरण पड़ी हो..


मानो किसी ने...
नन्हे शिशु को 
अपनी गोद में...
समेट लेने का 
भरसक प्रयत्न किया हो..!!


मैं इस तेज़ बहाव में, 
तीव्र गति से
बहती चली गयी..!!


प्यार का प्यासा मन
ऐसे जी उठा..
मानो मुर्दे में...
जान आ गयी हो..!!


तुमने ऐसा पल भर में 
ना जाने,
कैसा प्यार दिया....????


ये क्या हुआ, 
ये कैसे हुआ..
पल भर को..
सब कुछ बदल गया...!!


लेकिन .....


सिर्फ़ और सिर्फ़
पल भर को......हाँ
सिर्फ़ पल भर को...!!


फिर ना जाने कौन से एहसास ने
तुम्हे मुझसे जुदा कर दिया..
कहाँ. मैं...
ख्वाबों मे खोने लगी थी..
कि तुमने अचानक.. 
पल भर में ही
नाता तोड़ दिया...
अपनी दोस्ती की दुहाई दे कर..
प्यार का गला घोंट दिया..!!


मैं तुम्हारे आगे हस्ती रही..
मगर असल में...
वो वक़्त.... 
फिर से आ चुका था..
कि मैं,
फिर से.... 
पल-पल में 
टूट रही थी..!!


आह......


असमंजस्ता...
विक्षिप्तता... 
की हालत का ये दौर...
फिर से...आ गया था..
और मैं जूझ रही थी..
अपने आप से...!!


क्यूंकी.....


आज मैं... 
फिर मर गयी हूँ..
दोस्ती के हाथों... 
फिर एक बार..
हाँ फिर एक बार 
कत्ल कर दी गयी हूँ..!!


मैने तो कई दशक पहले ही 
खुद को मार लिया था..
वक़्त की स्याह चादर ने 
मुझे कितनी ही..
तहो का कफ़न पहना दिया था..!!


क्यूँ????


तुमने ये सब क्यूँ किया...?
क्यूँ आए थे... 
मेरी ज़िंदगी में..???
क्यूँ अपने प्यार के...,
अपने विश्वास के... 
अपनेपन के...
पुष्प सजाए थे...???
इस कई कफनों मे लिपटे...
तन्हा बदन पर...?


क्या मिला तुम्हें..?
मुझे यूँ फिर से मार कर..,
मुझ मरी हुई को...
क्या और मारना बाकी था...??
क्या मिला तुम्हें??
बताओ क्या मिला तुम्हे???????




सोमवार, 14 मार्च 2011

आओ ना प्रिये ...



















असह्य वेदनाओं को
ढेल कर,
थका - मांदा सा
विह्वल ...
तुम्हारे पास आया हूँ....
समेट लो ना मुझे
अपने दामन में,


थपका दो जरा.. 
मेरी हिज्र की रातों को 
अपने स्पर्श से.
ढक लो एक बार 
अपनी चांदनी की ठंडक से .


मैं भूल तो जाऊं जरा ..
उस जलन को
जो विस्मृतियों में आकर
लील देती है
मेरे प्यार के रेशों को.


तुम्हारा सानिध्य पा कर
मैं सुकून पा, तनिक..
और छिड़का लूँ
ओस की सी ताजगी
आग्नेय हो चुकी
अपनी रातों पर.


आओ ना प्रिये
प्यार का मेघ
बरसा दो
इस अकुलाते
तपते हृदय पर.

रविवार, 6 मार्च 2011

नियति या प्रवृत्ति.....???

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सारी कुंठाओं 
और उदासियों को 
गठरी में बाँध 
टांड पर चढ़ा कर 
रख दिया है.

और अब....
अपनी स्मृति से भी 
भुला देना चाहती हूँ
इस गठरी को.

लेकिन जब-तब 
मन की आँखें 
हर दिवार को 
टटोलती हुई सी 
अपने गंतव्य तक 
पहुँच ही जाती हैं.

और मन...
भटक ही जाता है 
बार-बार ...
उन उदास,अँधेरी,
सीलन भरी 
गलियों में.

तब....
खलबली सी 
मच जाती है 
और चीत्कार करते हुए 
सारे भाव 
नमी ला देते हैं
पलकों पर.

मीलों आगे 
बढ़ आने पर भी 
हर बार 
मैं वापिस 
वहीँ आ खड़ी होती हूँ ..
जहाँ से चली थी.

मेरी हालत 
उस मेमने जैसी है 
जो हर बार 
कोशिश करता है 
दो कदम आगे बढ़ने की 
और फिर लौट आता है 
अपने पिछले ही 
पद-चिन्हों पर.

ये  प्रवृत्ति है या..
नियति......?
कि मैं चाह कर भी 
भुला नहीं पाती 
उन पलों  को 
जो भीगे हैं 
मेरी नेह से 
निकले अवसाद से.



शनिवार, 5 फ़रवरी 2011

हे राघव क्या उचित था ?

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दोस्तों बहुत दिनों से नेट की तबियत नासाज़ होने की वजह से आप सब से दूर रही...अब नेट की तबियत दुरुस्त हो गयी है तो आप से मिलना मिलाना होता रहेगा...तो लीजिये अब हमें झेलिये :) 























हे राघव
क्या उचित था
यूँ मुझे 
इस मोड़ पर 
ला छोड़ना ?
या उचित था 
तुम्हारा 
पुरुशोचित्त दंभ में 
अपनी सहचरी को 
भूलना ?

देवता बना के 
पूजा तुम्ही को 
मेरी हर 
आती - जाती सांस नें .
चरण-रज ही 
बनना चाहा मैंने 
तुम्हारे जीवन धाम में.

क्या उचित था 
अवधेश कि ..
कंटक वन में 
अपनी प्रेयसी को 
उम्र के भीषण- तम में 
यूँ तनहा छोड़ना ?
या मेरे 
अडिग विश्वास को 
यूँ कण-कण कर 
उपल मन से तोडना ?

आह ! कामद, 
क्या कभी 
मैंने कहा था ..
कि ले चलो 
मुझे अरण्य-द्वार 
या मेरे मन को 
लुभाये
तुम्हारे संसर्ग से 
अधिक 
विरह संसार.

सोचती हूँ ...
क्या यही थी 
मिथिलेश प्रिया की
भाग्य-लिपि ?
उमड़-घुमड़ कर 
दर्द से हो दग्ध 
आज ये 
दृग अम्बु सनी !!

आज ये क्लेश 
मेरे मन को 
भारी हो रहा 
क्यों समष्टि के लिए 
व्यष्टि बलिदानी भली ?
या रहेगी 
वैदेही सदा 
विदेहिनी बनी ?

आज खंडित हो गया 
मन में जो एक 
द्रिड विश्वास था .
आज जुगुप्सा 
से  तन-मन मेरा
कम्पित हो रहा.
अंतर-रोदन के तले
सब स्नेह निर्झर 
बह गया. 

हो गया 
ये श्राप जीवन 
रेत ज्यूँ 
तन रह गया .
डस लिया 
अंधेरों ने 
उजाला 
बस किरणों का 
सफ़र
बाकी रह गया !!

बुधवार, 12 जनवरी 2011

अलगाव

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खाबों की  निद्रा में सोया था 
प्रेम पुष्प महक में खोया था 
मखमली चांदनी सी चादर ओढ़े 
कितनी यादों से अंतस भिगोया था. 

वो  हर पल मेरे साथ रहे 
ज्यूँ निशि संग तारों की बरात रहे 
हो  विकल गगन में जब खो जाता 
वो  चांदनी  बन  सौगात मिले.

कब ये नसीबा  रूठ गए  ?
कब शब्दों से दिल टूट गए  ?
कब उम्मीदें पथ का कांटा बनी ?
जो घायल हो ये अलगाव हुए ?

विश्वास की डोरी टूट गयी 
करुण हृदय से विरक्ति फूट गयी 
कल-कल करती जो प्यासी नदिया थी 
ना जाने कब कैसे सूख गयी ?

हृदय की विकल रागिनी आज
हा-हा-कार सी गूंजा करती है 
क्लांत सी जर्जर अभिलाषाएं 
करवट ले, पलकें भिगोया करती हैं .

उपालंभो के आंसू भर भर 
आज खुद को यूँ समझाता हूँ 
हे चन्द्रामृत पिलाने वाले 
क्यूँ विरह अंगार में जलते हो ?

सुख की बातें सब स्वप्न हुई  
क्यूँ सुप्त व्यथा को  जगाते  हो 
हे करुणे, रो - रो कर क्यों
प्रेम विभूति खोते हो .

गुरुवार, 30 दिसंबर 2010

आस के तार न तोड़ सखी

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मन की ज्वाला रोक सखी 
अश्रु  की धारा रोक सखी
क्यों शोक भार से चूर्ण सखी ?
धैर्य की डोर ना छोड़ सखी !

कटु बोल सब भूल सखी 
मरहम की कोई ले ओट सखी
विकार न जला डालें तुझको 
तम-वर्षा को बस झेल सखी  !

आस के तार न तोड़ सखी 
कोई श्रम कर इनको जोड़ सखी 
टूटा जो तारा इस रात सखी
ना जाने क्या हो उत्पात सखी !

प्रियतम तुझे इक दिन समझेंगे 
अनुराग  विराग सब छोड़ सखी 
माना अरुणोदय  हुआ  नहीं 
निशी का जाना निश्चय सखी !

अब कैसा  ये कोप सखी 
पावन धारा को मोड़ सखी 
मुख से दृगजल पोंछ सखी
प्रेम सागर से मोती खोज सखी !

गुरुवार, 23 दिसंबर 2010

एक कोशिश

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तमस भाव से
अंतस जब पूरित होगा
रूप बदलते जीवन से
नभ भी भरमाया होगा
कुंठाए फैलेंगी चहुँ ओर 
विकारों के दल दल में 
बोलो कैसे प्रेम सृजित होगा ?

कैसे दुख छिप जायेगा 
कैसे आहें थम पाएंगी ?
शब्दों के जब बाण चलेंगे 
गीली पलकें तब 
कैसे मल्हार सुनाएंगी ?

निर्मल रस का अंतस में 
आविर्भाव तो करना होगा 
उजले सूरज की चाहत में 
मन के अहम् को हरना होगा 
अमृत की बूंदे जो ...
सूख चली हैं मन आँगन में 
फिर से उनको 
जीवन तो देना होगा.



मंगलवार, 7 दिसंबर 2010

वक्त तो लगता है...

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पुराने रिश्तों के घाव गहरे हों तो 
नए रिश्ते बनाने में वक्त तो लगता है.

डूबे ही गहरे हों दरिया-ए-इश्क़ में तो
उससे निकल आने में वक़्त तो लगता है.

बांधे जो बंधन प्यार में, बेरुखी से हों चटके तो 
दौर -ए-मातम गुजरने में वक़्त तो लगता है.

गांठे उलझी तो क्या रिश्ताक्या बंधन, क्या प्रीत
लाख कोशिश करो सुलझाने में वक़्त तो लगता है.

हम तो दर्द की दवा ढूँढते ही रह गए जानम
ज़ख़्म-ए-नासूर सीने में वक़्त तो लगता है.

मुहब्बत की राहों में कांटे होने तो लाज़मी हैं
जब रूह ही बेवफा हो सँभलने में वक़्त तो लगता है

आज की नारी ...

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आज जहाँ देखो नारी के अधिकार की आवाज़ उठती है...लेकिन नारी इस अधिकार की आवाज़ में अपनी आत्मा की आवाज़ को खुद ही अनसुना किये जा रही है...तो लीजिए कुछ विचार पेश हैं नारी के विकास पर...आप सब पढ़ कर अपने विचारों से कृतार्थ करें ये निवेदन है....



आज स्त्रियों की समस्या को लेकर समाज में एक तूफ़ान, एक तहलका सा मचा हुआ है.  शायद कोई पत्रिका, कोई ब्लॉग ही बचा हो जो  स्त्रियों के स्तंभ के लिए सुरक्षित न हो. सब जगह विवाद हो रहे हैं, प्रस्ताव पास किये जा रहे हैं. लेकिन यह सारा बवंडर, सारा आंदोलन जीवन की उपरी सुविधाओं तक सीमित है और इसलिए हम देखते हैं कि इन सब के बावजूद स्त्रियों के सच्चे सुख में कोई वृद्धि नहीं हो रही है. ना ही स्त्रियां सतीत्व के सच्चे आदर्श कि ओर उठ रही हैं. ना उन्हें कोई आत्मिक सुकून मिल रहा है .कदाचित कौंसिलों में जाना, अखबारों में लेख लिखना, सभा सम्मेलनों एवं संस्थाओं की अध्यक्षता, दफ्तरों में काम करना आदि ही आगे बढ़ना नहीं है, निश्चय ही इनके भी दरवाजे सब के लिए खुले होने चाहियें, लेकिन इस से व्यक्तित्व का विकास होता है आत्मा का विकास नहीं. आज की नारी शक्ति की स्त्रोत है, पुरुष से अधिक नारी के कन्धों पर समाज की उन्नत्ति का भार है.


नारी जरा से नशे में अपनी मर्यादा, अपने मातृत्व का महान गौरव भूल गयी है . अधिकार ! कैसा मोहक, मायावी, जाल में फ़साने और नशे में विस्मृत कर देने वाला शब्द है ये . नारी भी इसका शिकार हो गयी है.

आज नारी को भी कुछ चाहिए. पुरुष अस्थिर, अतृप्त, अस्त-व्यस्त और गतिमान है तो वह क्यों न हो ? उसे भी गति का आनंद, उसके झोंको एवं आन्धियों में गिरने और उड़ने का स्वाद क्यों न लेने दिया जाये ? बस इसी सोच पर अटकी है आज की नारी की सोच.

पुरुष तो स्वार्थी है, बेवफा है और हमने तो सदा त्याग किया है, कब तक त्याग करती रहें ? इसलिए उस त्याग को छोड़कर हम भी उनकी कोटि में क्यों न आ जाएँ ?  आज सारा ध्यान पुरुष की नक़ल करने में ही नारी अपनी सफलता मानती है . आज नारी असंतुष्ट और अतृप्त है, फल्तह वह अपने व्यक्तित्व का निर्माण भी नहीं कर पाती. उसका हृदय जल रहा है कि वह दासी बनी कब तक बैठी रहे ? इसी कश्मोकश के परिणामस्वरूप कई नारियाँ प्रसिद्धि पा लेने के बावजूद भी दुखी और अतृप्त हैं . उनका हृदय प्यास से भरा है, आत्मा छटपटा रही है . नारी यह भूल गयी है कि उसे स्नेह भी चाहिए.

पुरुष के अज्ञान अथवा परिस्थिति के कारण वर्तमान काल में नारी की जो दशा है उसमे उसने भ्रमवश यह समझ लिया है कि पुरुष नारी से श्रेष्ठ है. जो पुरुष करे, वह स्त्री क्यों न करे - आज नारी ने अपने को अनायास ही लघुता प्रदान कर दी है. क्यों नारी पुरुष बनना चाहती है ? क्या पुरुष उस से श्रेष्ठ है ? श्रेष्ठ तो नहीं था पर अपनी कल्पना एवं अधिकार के नशे में नारी ने अप्रत्यक्ष रूप से उसे श्रेष्ठ बना दिया है. आज नारी के जागरण के इस क्षेत्र में पुरुष ही नारी का नेतृत्व कर रहा है ...या यों कहें कि भ्रमवश नारी पुरुष का ही अंधानुकरण कर रही है . यद्यपि मुंह से कहती है कि वह पुरुष के पीछे चलने को तैयार नहीं, मेरा अपना व्यक्तित्व है लेकिन यह एक आश्चर्यजनक सत्य है कि इन कृत्यों से नारी कि स्वतंत्रता घटी है, बढ़ी नहीं . पुरुष को वह एक मोडल बना कर उसका अनुसरण कर रही है .

परन्तु क्या यह अधिकार पुरुष की प्रतिद्वंदिता से प्राप्त हो सकता है ?  वह नारी जो माता रूपी खिले हुए फूल की पूर्वा-वस्था (कली) है, पुरुष रुपी फल से, जिसे उसने ही जन्म दिया है, बराबरी का दावा करने चली है.  आज वह भूल गयी है कि वह पुरुष की माता है. अतः सदा से ही वो पुरुष से श्रेष्ठ  ही है लेकिन बराबरी के अधिकार की आवाज़ उठा कर खुद अपनी श्रेष्ठता, अपनी कमजोरी का परिचय दे रही है.

आज नारी को समता चाहिए. प्रत्येक देश, समाज, प्रांत, जाती में नारी की स्वतंत्रता की मांग है . यह उचित मांग है . कोई उलटी खोपड़ी और विकृत हृदय व्यक्ति ही होगा जो इसका विरोध करेगा. नारी को ये अधिकार देने का सब को अवश्य समर्थन करना चाहिए. समाज नारी को अपाहिज रख कर देर तक खड़ा नहीं रह सकता. स्वयं पुरुष नारी बिना अशक्त है.अथार्त जीवन की रचना संभव नहीं. स्त्री पुरुष दोनों ही इसमें सहयोगी हैं. एक दूसरे के दोनों पूरक अंग हैं. दोनों मिलकर एक सम्पूर्ण इकाई की रचना करते हैं. इसलिए बराबरी का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता. तब स्वतंत्र व्यक्तित्व और बराबरी के अधिकार का तहलका मचाना ना स्त्रियों के लिए कल्याणकारी हो सकता है ना अपने अधिकारों एवं मर्यादा का दुरूपयोग करना पुरुषों के लिए लाभदायक है. 

लेकिन नारी कभी सोचे कि क्या इन मांगो से या इन मांगों के पूर्ण हो जाने से नारी - हृदय की प्यास बुझ जायेगी ? नारी - हृदय की प्यास तभी मिट सकती है जब वह अपने में नारी की सच्ची प्रतिष्ठा करे और यह प्रतिष्ठा पुरुष हृदय के पूर्ण सहयोग से ही संभव है. नारी पिता, पुत्र, भाई किसी न किसी रूप में पुरुष को आत्मार्पण करने को अपनी आंतरिक  प्रेरणा और प्रकृति द्वारा बाध्य है इसी में उसके मातृत्व का, पुरुष की माता होने का गौरव सुरक्षित है और पुरुष  इस भावना को व्यवहारिक रूप देने वाला, बढाने वाला सहायक और साथी है. इसलिए स्त्री जीवन का उद्देश्य तब तक पूरा नहीं हो सकता जब तक वह पुरुष का सहयोग प्राप्त ना कर ले. यही हाल पुरुष का भी है. बेशक कुछ समय के लिए पुरुष अपना अस्तित्व स्वतंत्र रख ले, परन्तु बिना नारी के आत्मार्पण के अपने को अधूरा अनुभव करता है.यही वह नारी है जो पुरुष नहीं है और ना ही हो सकेगा.

पुरुषों का भी  होश तब तक ठिकाने नहीं आ सकता जब तक स्त्रियां भी उन्ही के सामान शक्तिमान न हो जाएँ. और इसके लिए स्त्रियों की ओर से मांग इस बात की होनी चाहिए कि हमारी तरह पुरुष भी अपने जीवन व्यापी बंधन के प्रति वफादार बनें. हमारी तरह वे भी जीवन में आत्मार्पण करें. वे भी विवाहित जीवन कि जिम्मेदारियों और बोझ को प्रेम-पूर्वक निबाहे और उठायें. 

आज का युवक परिस्थितियों के आगे झुक जाने वाला, कठिनाइयों के बीच रो देने वाला, चिडचिडा और असंयमी हो गया है. वह बोलता बहुत और चाहता अधिक है....आखिर क्यों? यह दुर्भाग्य की बात है की जिसके त्याग का दूध पी कर वह शक्तिमान होता था, जिसका अमृत पीकर समाज में बच्चे उठते थे वो माता का आँचल उनके ऊपर से हटता जा रहा है .  नारी के इस कार्य की तुलना पुरुष के कौन से श्रेष्ठ कार्य से हो सकती है ? जिनका त्याग प्लेटफोरमस पर नहीं बोलता, बल्कि बच्चे के जीवन में अंकुरित होता और पनपता है. जो अधिकार की नहीं, प्रेम की भूखी है - उस प्रेम की जिससे बढ़ कर कोई अधिकार नहीं. और इस प्रेम और सम्मान को, जिसे पाकर और कुछ पाने की इच्छा नहीं रह जाती. नारी ही एक ऐसी त्यागमयी मूर्ती है जो प्रतिदान की आशा नहीं रखती. एक नारी ही इतनी श्रेष्ठ है जो सुघड़ता से अपनी चहुंमुखी जिम्मेदारियों को सहर्ष स्वीकार कर के निभा सकती है. फिर क्यों नारी ऐसी आवाज उठा कर खुद अपनी श्रेष्ठता को कम कर अपनी लघुता का परिचय दे रही है. नारी तो सदा से श्रेष्ठ और पूज्य थी, रही है और रहेगी.

बुधवार, 1 दिसंबर 2010

मवाद..

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कितनी ही 
अनकही बातों का
घना जंगल 
और 
कंटीली झाडियाँ हैं
भीतर वजूद में
जिनमें  घुसने में 
खुद को भी 
भय लगता है.


मानो ...
रक्त-रंजित कर देंगी 
मुझे
इस जंगल के 
भीतर के जहरीले 
अहसासों की नागफणी..
और भर देंगी 
मवाद से 
मेरी रूह को,
दर्द से भरी
ऊपर तक 
चढती हुई बेलें.


मैंने अपने आप को 
समेट लिया है 
अपने ही खोल में 
और मूँद ली हैं आँखे,
कि...
मैं डर रही हूँ ....
इन खामोशियों के 
नीचे दबे 
बाहर आने को व्याकुल 
उस तूफ़ान से 
जो कि काफी है 
लील लेने के लिए 
मेरी जिंदगी को .