प्यार में मिली तेरी हर रुसवायी पे जान जाती रही
जो भी तूने दे दिया, तेरा तोहफा समझ मुस्कुराती रही
हर मोड़ पे तेरी नज़दीकियाँ हाथ मुझसे छुड़ाती रही
हर फांसले की आहट मेरे अरमानों की राख उड़ाती रही
दिल की उठी हर हूक आंखो में नमी बढ़ाती रही
मेरे दिल पे तेरी मगरूर बातें जख्मों के निशां बनाती रही
याद आते रहे मुझे बीते मनुहार के वो दिन
जिस पर कि सारी रात मैं दर्द की चांदनी में नहाती रही
कैसा बे-दखल किया तूने अपने दिल के मकान से
बावफा होकर भी मै जफा के कौर खाती रही
39 comments:
बावफा होकर भी मै जफा के कौर खाती रही
बेहतरीन खयाल| दाद कबूल करें
कैसा बे-दखल किया तूने अपने दिल के मकान से
बावफा होकर भी मै जफा के कौर खाती रही
इस रचना में दर्द की अनुभूतियों को समेट कर जिस तरह से प्रस्तुत किया गया है, उसके लिए आप बधाई के पात्र है। आप की इस रचना में विचार, अभिव्यक्ति शैली-शिल्प और संप्रेषण के अनेक नूतन क्षितिज उद्घाटित हो रहे हैं।
Hi..
Wafa ke badle main tujhko..
Mili jo bewafai hai..
Tere aankhon ke sang meri..
Aankh chhalak si aayi hai..
Jisko pyaar kare koi, na..
Usko aisi saza mile..
Teri wafa ke badle tujhko..
Dua meri hai, wafa mile..
Yun na peekar gum ke aansu..
Dikho hame muskaaye tum..
Teri es muskaan main humko..
Dikhe hame hain saare gum..
sundar nazm, par dard bhari..
Deepak..
याद आते रहे मुझे बीते मनुहार के वो दिन
जिस पर कि सारी रात मैं दर्द की चांदनी में नहाती रही
कैसा बे-दखल किया तूने अपने दिल के मकान से
बावफा होकर भी मै जफा के कौर खाती रही
....खूबसूरत रचना ....उम्दा प्रस्तुति !!
कैसा बे-दखल किया तूने अपने दिल के मकान से
बावफा होकर भी मै जफा के कौर खाती रही
वाह, बहुत ही सशक्त रचना, शुभकामनाएं.
रामराम.
खूबसूरत गज़ल....दर्द को निचोड़ कर रख दिया है ...
माकन और घर में फर्क होता है न ...
हर मोड़ पे तेरी नज़दीकियाँ हाथ मुझसे छुड़ाती रही
हर फांसले की आहट मेरे अरमानों की राख उड़ाती रही
Uf! kya kahun?
कैसा बे-दखल किया तूने अपने दिल के मकान से
बावफा होकर भी मै जफा के कौर खाती रही
बहुत खूब
, बहुत ही सशक्त रचना, शुभकामनाएं.
हर मोड़ पे तेरी नज़दीकियाँ हाथ मुझसे छुड़ाती रही
हर फांसले की आहट मेरे अरमानों की राख उड़ाती रही
वाह....
ग़ज़ल के सभी शेर पसंद आए...
आपकी शायरी के भाव बिल्कुल स्पष्ट हैं,
प्रभाव छोड़ते हैं...बधाई.
अनामिका (सुनीता) बहन… अब का कहें ई कबिता को आप ही बता दें... छमा करिए, इसको गजल नहीं कहा जा सकता... इसमें भाव बहुत गहरा है, जैसा कि आपके हर कबिता में होता है, लेकिन गजल के लिए जो सबसे जरूरी चीज है, ऊ है बहर यानि मीटर... इसमें हर सेर का बहर अलग अलग है..इसलिए इसको मुक्तकों का समूह तो कहा जा सकता है, गजल नहीं...
बाकी तो भाबना ओही है जिसपर आपका अधिकार है, इसलिए उसमें कोई कमी नहीं है...उसके लिए बधाई!!!
एक ठो उदाहरन देखिए आपके गजल के मतले काः
प्यार में मुझको मिली रुसवाई, जाँ जाती रही
वो तेरा तोहफा समझकर मैं भी मुस्काती रही.
दोनों मिसरा का बहर एक है, इसलिए गजल का सेर जैसा है.
कितना दर्द और समर्पण का भाव है इस रचना में ! आपने तो दिल के हर तार को छेड़ दिया ! हर शेर लाजवाब है !
हर मोड़ पे तेरी नज़दीकियाँ हाथ मुझसे छुड़ाती रही
हर फांसले की आहट मेरे अरमानों की राख उड़ाती रही
इसका तो कोई जवाब ही नहीं ! बहुत खूब !
कैसा बे-दखल किया तूने अपने दिल के मकान से
बावफा होकर भी मै जफा के कौर खाती रही
aap ne bahut achchha likha hai
कैसा बे-दखल किया तूने अपने दिल के मकान से
बावफा होकर भी मै जफा के कौर खाती रही
बहुत खुब जी, धन्यवाद
खूबसूरत रचना ....उम्दा प्रस्तुति !!
बेवफाई के दर्द की अनुभूति ,अच्छी रचना ।
बहुत ही बढ़िया रचना लिखी है आपने!
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अन्तस पर सीधे चोट करती है!
--
कल मेरे लैप्पी पर वायरस का हमला था
इसलिए चाहकर भी कमेंट न कर सका!
वैसे तो मैंने आपकी कई रचनाएं पढ़ी हैं.. लेकिन इस बार दिनों बाद आया.. आपकी ताज़ा ग़ज़ल बहुत उम्दा ग़ज़ल है.. अंतिम शेर हो वाकई लाजवाब है...
"कैसा बे-दखल किया तूने अपने दिल के मकान से
बावफा होकर भी मै जफा के कौर खाती रही"
सुन्दर
बहुत ही अच्छा लिखा है आपने…
पीड़ा में डूबी हृदय की धड़कन।
bahut khoob............
"कैसा बे-दखल किया तूने अपने दिल के मकान से
बावफा होकर भी मै जफा के कौर खाती रही"
बहुत ही गहरे भावों के साथ्ा बेहतरीन प्रस्तुति ।
दर्द और सिर्फ़ दर्द से भरी बेहद खूबसूरत गज़ल्।
बावफा होकर भी मै जफा के कौर खाती रही
-सुन्दर.
याद आते रहे मुझे बीते मनुहार के वो दिन
जिस पर कि सारी रात मैं दर्द की चांदनी में नहाती रही
-वाह!! बेहतरीन!
याद आते रहे मुझे बीते मनुहार के वो दिन
जिस पर कि सारी रात मैं दर्द की चांदनी में नहाती रही
कैसा बे-दखल किया तूने अपने दिल के मकान से
बावफा होकर भी मै जफा के कौर खाती रही
अच्छी रचना!!!!!!!!!!!!! क्या अंदाज़ है बहुत खूब
रक्षाबंधन की हार्दिक शुभकानाएं !
समय हो तो अवश्य पढ़ें यानी जब तक जियेंगे यहीं रहेंगे !
http://hamzabaan.blogspot.com/2010/08/blog-post_23.html
याद आते रहे मुझे बीते मनुहार के वो दिन
जिस पर कि सारी रात मैं दर्द की चांदनी में नहाती रही
कैसा बे-दखल किया तूने अपने दिल के मकान से
बावफा होकर भी मै जफा के कौर खाती रही
दर्द की अनुभूति, बेहद खूबसूरत गज़ल्।
बहुत सुन्दर और सशक्त रचना है !
बेहतरीन
याद आते रहे मुझे बीते मनुहार के वो दिन
जिस पर कि सारी रात मैं दर्द की चांदनी में नहाती रही
यादें तो कभी हँसाती हैं कभी रूलाती हैं ....
क्या कहने इन यादों के जो कभी भी आ जाती हैं .... बहुत लाजवाब .....
याद आते रहे मुझे बीते मनुहार के वो दिन
जिस पर कि सारी रात मैं दर्द की चांदनी में नहाती रही
...bahut khoob!....dil mein utaar liye hai shabd!
रक्षाबंधन पर हार्दिक बधाइयाँ एवं शुभकामनायें!
बहुत सुन्दर कविता लिखा है आपने ! उम्दा प्रस्तुती!
प्रशंसनीय ।
ख़ुशी जी,
सुभानाल्लाह ..............बहुत खुबसूरत ग़ज़ल...एक-एक शेर एक से बढकर एक |
कभी फुर्सत मिले तो हमारे ब्लॉग पर भी तशरीफ़ लायें-
http://jazbaattheemotions.blogspot.com/
http://mirzagalibatribute.blogspot.com/
http://khaleelzibran.blogspot.com/
http://qalamkasipahi.blogspot.com/
हर मोड़ पे तेरी नज़दीकियाँ हाथ मुझसे छुड़ाती रही
हर फांसले की आहट मेरे अरमानों की राख उड़ाती रही
waah !kya kahoon tarif me shabd nahi mil rahe par hai bahut hi shaandaar .ye andaz laazwaab raha .badhai .
bahut khoob.
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