Monday 26 April 2010

हिंदी पर राजनीतिक प्रकोप

हमारे देश की प्रमुख भाषा हिन्दी है किंतु हिंदी के कतिपय विरोधी अपने ही राजनीतिग्य और उच्च पदा-धिकारी हैं जो अपने स्वार्थो और राजनीतिक हितों को दृष्टिगत रखते हुए हिन्दी के विरोध पर उतारू हैं.

सन 1950 में हिन्दी राष्ट्र भाषा घोषित होने के बावजूद भी उच्च पदस्थ अधिकारी अँग्रेज़ी को ही व्यवहार में लाते थे, क्यूकी वो अँग्रेज़ी माध्यम से पढ़े थे, अँग्रेज़ी के अच्छे भक्त थे और इसी भाषा के माध्यम से ही वो राजकीय सेवाओ में निर्वाचित हुए थे. और अब तक सभी राजकर्म अँग्रेज़ी माध्यम से ही किए जाते थे. इसलिए उन्हे अँग्रेज़ी में ही कार्य करना सुविधाजनक प्रतीत होता था.

शासन ने अहिंदी भाषी अधिकारियो को हिन्दी पढ़ाने के लिए योग्य एवं अनुभवी अध्यापको की नियुक्ति की और वे वहीँ जाकर शिक्षा देने के लिए भेजे गये जहाँ अधिकारी पदस्थ थे. लेकिन इन पदाधिकारियों की अँग्रेज़ी राज्य में उच्च पदों पर रहने के कारण अपने आपको अंग्रेज दिखाने की भावना भर गयी थी, इसलिए उनके लिए अँग्रेज़ी का व्यवहार करना उच्चता का प्रतीक माना जाता था और हिन्दी को ये लोग हेय दृष्टि से देखते थे. इन अधिकारियों के पास हिन्दी से बचने का एक सबसे बड़ा बहाना ये था कि संविधान के अनुसार हिन्दी के साथ साथ अँग्रेज़ी को 15 वर्ष तक सहराजभाषा और सह राष्ट्रभाषा रखने का प्रावधान था. यह समय इसलिए दिया गया था की इस अवधि मे हिन्दी को राजकीय, वैज्ञानिक एवं संवैधानिक कार्य के लिए सक्षम बनाया जा सके. किंतु जनवरी 1965 से पहले ही इस अवधि को बढ़ा दिया गया. बाद मे हिन्दी भाषी प्रांतो के राजनैतिक दबाव के कारण संविधान मे यह संशोधन किया गया कि जब तक भारत के सभी प्रांत सहमत नही होंगे, अँग्रेज़ी का प्रयोग राजभाषा के रूप मे समाप्त नही किया जाएगा. इसका आश्य यह हुआ कि जब तक एक भी प्रांत चाहता रहेगा तब तक अँग्रेज़ी राजभाषा रहेगी. इसी का परिणाम है की अँग्रेज़ी भाषा का प्रयोग अब भी पूर्ववत हो रहा है. यहाँ तक कि दक्षिण भारतीय राजनीतिग्य तो "हिन्दी लादी नही जा सकती" का तर्क देते हैं, और भारतीय संघ की घोषित राष्ट्रपभाषा होने पर भी हिन्दी आज भी अपनी स्थिति सुद्रड़ नही कर सकी है .

हिन्दी विरोधियो के योगदान में आम नागरिक ने भी कोई कोताही नही बरती और अपने तर्क इस प्रकार देते रहे कि :

हिन्दी भाषा एक क्लिष्ट भाषा है जिसे सीखने में परेशानी होती है, इसके मुख्य सूत्रधार अँग्रेज़ी समर्थक ही हैं जो हिन्दी को कठिन बता कर अँग्रेज़ी का प्रयोग जारी रखना चाहते हैं.

कुछ अँग्रेज़ी परस्त लोगो की यह आशंका रही है कि यदि हिन्दी के माध्यम से शिक्षा दी जाएगी तो शिक्षा के स्तर में गिरावट आ जाएगी. जबकि दुनियाँ के बहुत सारे देशो में शिक्षा का माध्यम वहाँ की अपनी भाषा है . जापान, रूस, जर्मनी एवं चीन की भाषा अँग्रेज़ी ना होकर अपने देश की भाषा है और ये देश तकनीक और औधोगिक क्षेत्र में प्रयाप्त विकसित देश माने जाते हैं.

अहिंदी भाषी प्रांतो को भी यह भ्रम रहता है कि हिंदी भाषी प्रदेशो में रहने वाले लोगो को अधिक लाभ मिलेंगे और उनकी उपेक्षा होगी. जबकी संविधान ने यह गारंटि दी हुई है कि भाषा, धर्म, जाति आदि के आधार पर कोई पक्षपात नही होगा.

हमारे जाने-माने लेखक भारतेंदु हरीशचंद्र जी भी लिखते है :

जिसको न निजभाषा तथा निज देश का अभिमान है
वह नर नही, नर पशु निरा है और मृतक समान है

जब तक हम हिंदी के प्रश्न को अपने स्वाभिमान और आत्मगौरव से नही जोड़ेंगे, तब तक इसका सर्वांगीन विकास नही कर सकते. हमारा यह दायित्व है कि हम हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में और अधिक सशक्त बनाए और वह सम्मान दिलाए जिसकी वह वास्तव में अधिकरिणी है.

Tuesday 20 April 2010

शब्दो का कलरव

मेरा क्षुब्ध मन
कई बार मुझसे
बगावत करता है
मुझसे अनुरोध भी
करता है..
बार बार मचलता
और रूठ्ता है .
मुझे उत्तेजित भी करता है
कि इस के भीतर के
अंतर्द्वंद को
शब्दो से
बिखेर दू..

आंखे प्रणय-कलह
उत्पन्न करती हैं
बुद्धी
कुछ सुनना नही चाहती
मैं इस झगडालू कुटुंब को
समझाती हुं . .
इन्हे शांत कर
स्वस्थ मन होकर
बैठती हुं .

अब ....

अब शब्दो का कलरव
शांत हो गया है
हृदय के कोमल एहसास
कातर मन से
मेरा कहना मान गये हैं .

अब मैं आंसू बहा कर
अपनी वेदनाओ पर
नियंत्रण पा लेती हुं
और अपने खिन्न मन को
समझाती हुं, कि
यही क्षण भर का रुदन
ये शब्दो का मौन
ये कलम की बद-रंगत ही
अनेक कुंठाओ और ...
विरोधो को
जन्म देने से
रोक सकेंगे .
और तब...
एक
अनंत शांति का
सर्जन होगा. !

Sunday 11 April 2010

जिंदगी और बता .....????





















जिंदगी और बता, गम कितने तू मुझे देगी..
मैं हँसता जाऊंगा..क्या हँसी भी मेरी तू छीन लेगी..?

जिंदगी और बता गम कितने तू मुझे देगी.....??

मस्त चाले देख मेरी, ना तू गश खाना..
ढेरो ठोकरे देकर भी कहीं तू ना थक जाना..
सागर के
हिलोरे
माना मुझे तहस-नह्स कर देंगे,.
गम चाहे दे कितने भी...लौट कर तो किनारो में सिमट जायेगी ..!!

जिंदगी और बता गम कितने तू मुझे देगी.....??

हंस-हंस के इस्तेकबाल करूँगा मैं तेरा ...
ज़िस्त भी चाहे छूटे...उफ़ भी ना लब पे मेरे होगी..
काँटों की चादर में सुला दे चाहे इस तनहा रूह को..
हंस के बलाए लूँगा...रुसवा ना रुख से हँसी मेरे होगी...

जिंदगी और बता गम कितने तू मुझे देगी.....??

कोई जान भी ना पायेगा गम की दुनिया मेरी..
पलती हैं जो भीतर ही...छुप के दिल के कोनो में...
रोएगी ना मेरी आँख..तू देखना जानिब-ऐ-जिंदगी मेरी...
लौट जायेगी एक दिन तो, तू टकरा -टकरा के रूह से मेरी...

जिंदगी और बता गम कितने तू मुझे देगी.....??
मैं हंसता जाऊंगा....क्या हंसी भी मेरी तू छीन लेगी..

Thursday 8 April 2010

आपका प्यार ...


आपने इस काबिल समझा
और सीने से लगाया..
मुझ ना -चीज़ को चाहा ..
बेशुमार प्यार दिया..!!

मुझ ना समझ की ..
हर बात को माना,
हर भूल को माफ़ किया..!!

भूल गई आज कि
तन्हाई किसे कहते है..
जलन क्या है ..
और खलिश किसे कहते है..!!


आप के प्यार में जाना
कि जिंदगी कितनी हसीं है..
खुशी क्या है..
और सुकून किसे कहते है..!!

आप के साथ ने..
हर पल मुझे संभाला है...
आज जानी हुं कि इस धरती पर
कुछ तो वजूद मेरा है..!!

आपने जो सीख दी
जिंदगी की राहो पर चलने की..
हिम्मत देती है वो मुझे..
रो कर फ़िर से मुस्कुराने की..!!

आबाद-ऐ-चमन है आज
हँसी की भी शहनाई बजती है..
उम्मीदों को मंजिले मिलती हैं..
जिंदगी जीने की ललक बढती है..!!

आप मुझे यू ही बस
बाहों मे पनाह देते रहें..
सीने से लगा...
मुझ गरीब दिल को प्यार देते रहें !!

पार हो जायेगी ये नैया..
किनारे मिल जायेंगे मुझे...,
एक कफ़न और दो गज ज़मीन के साथ..
एहसास-ऐ-सुकून भी मिल जायेंगे मुझे..!!

अरमान तो इस दगाबाज दिल के और भी हैं..
आप का साथ रहे बस ...
मुझ ना -चीज़ को जीने के लिए
इस से बढ़ कर और जरुरत क्या है..!!

सुकून मिल जाए...
बैचैन रूह को मरने से पहले..
मेरे लिए तो बस..
इस से बढ़ कर और मेरी ख्वाहिश क्या है..!!

आपने इस काबिल समझा
और सीने से लगाया है..
मुझ ना -चीज़ को चाहा
बेशुमार प्यार दिया है..!!

किन अल्फाजो से बयां करू..
मेरी नजरो मे आपकी एहमियत क्या है..
आपकी रहमतों का सबब क्या है..
आपकी जरुरत क्या है..!!

बस इतना समझ लो कि..
साँसे हो मेरी आप....
और आपके बिन...
मुर्दा सी ये तनहा है..!!

Sunday 4 April 2010

मेरी हर सोच मे तुम क्यों हो????


मेरी हर सोच मे तुम क्यों हो?
मेरी हर साँस मे तुम क्यों हो?
मेरा तुम्हारा तो कोई रिश्ता भी नही
फ़िर मेरे दिन और रात मे तुम ही क्यों हो?

मैंने तुम्हें चाहा तो क्या हुआ ..
मैंने तुम्हें पूजा तो क्या हुआ ..
मेरे हर लम्हात पर तुम्हारा हक़ क्यों है?
मैं चाहे हक़ न भी देना चाहू , तो ऐसा क्यों है?



मैंने तो सकूं चाहा था तुम्हें चाह कर ..
मैंने तो तृप्ति चाही थी तुम्हें पाकर ...
फ़िर मैं और बैचैन क्यों हो गई तुम्हें चाह कर?
फ़िर मैं और प्यासी कैसे हो गई तुम्हें पाकर?

मेरी हर सोच में तुम क्यों हो?
मेरी हर साँस में तुम क्यों हो?
मेरा तुम्हारा तो कोई रिश्ता भी नही ..
फ़िर मेरे दिन और रात में तुम ही क्यों हो?

मैंने तो जिंदगी को खुशिया देनी चाही थी ..
मैंने तो ज़ख्मो को मरहम देनी चाही थी ..
मैंने तो तन्हाई को जलन देनी चाही थी ..
मैंने तो दुखती रगों को दावा देनी चाही थी ..

तुम्हें पाकर मैं सब पा तो गई हू !
चैन-ओ-आराम पाकर भी फ़िर बैचैन क्यों हो गई हू ?
तुमारे प्यार से तन्हाई को जलाया है मैंने ..
फ़िर क्यों दवा पाकर भी दुआ की दरकार करती हू ?

क्यू बे-इन्तहा तुमसे प्यार करती हू ?
तृप्त सागर की प्यास बुझा तो चुकी हू ..
फ़िर भी अतृप्त अधूरी सी जिंदगी क्यों हू ?
तुम बिन अधूरी सी बेवजूद सी क्यों हू ?

मेरी हर सोच मे तुम क्यों हो?
मेरी हर साँस मे तुम क्यों हो?
मेरा तुमारा तो कोई रिश्ता भी नही ..
फ़िर मेरे दिन और रात मे तुम ही क्यों हो?