हमारे देश की प्रमुख भाषा हिन्दी है किंतु हिंदी के कतिपय विरोधी अपने ही राजनीतिग्य और उच्च पदा-धिकारी हैं जो अपने स्वार्थो और राजनीतिक हितों को दृष्टिगत रखते हुए हिन्दी के विरोध पर उतारू हैं.
सन 1950 में हिन्दी राष्ट्र भाषा घोषित होने के बावजूद भी उच्च पदस्थ अधिकारी अँग्रेज़ी को ही व्यवहार में लाते थे, क्यूकी वो अँग्रेज़ी माध्यम से पढ़े थे, अँग्रेज़ी के अच्छे भक्त थे और इसी भाषा के माध्यम से ही वो राजकीय सेवाओ में निर्वाचित हुए थे. और अब तक सभी राजकर्म अँग्रेज़ी माध्यम से ही किए जाते थे. इसलिए उन्हे अँग्रेज़ी में ही कार्य करना सुविधाजनक प्रतीत होता था.
शासन ने अहिंदी भाषी अधिकारियो को हिन्दी पढ़ाने के लिए योग्य एवं अनुभवी अध्यापको की नियुक्ति की और वे वहीँ जाकर शिक्षा देने के लिए भेजे गये जहाँ अधिकारी पदस्थ थे. लेकिन इन पदाधिकारियों की अँग्रेज़ी राज्य में उच्च पदों पर रहने के कारण अपने आपको अंग्रेज दिखाने की भावना भर गयी थी, इसलिए उनके लिए अँग्रेज़ी का व्यवहार करना उच्चता का प्रतीक माना जाता था और हिन्दी को ये लोग हेय दृष्टि से देखते थे. इन अधिकारियों के पास हिन्दी से बचने का एक सबसे बड़ा बहाना ये था कि संविधान के अनुसार हिन्दी के साथ साथ अँग्रेज़ी को 15 वर्ष तक सहराजभाषा और सह राष्ट्रभाषा रखने का प्रावधान था. यह समय इसलिए दिया गया था की इस अवधि मे हिन्दी को राजकीय, वैज्ञानिक एवं संवैधानिक कार्य के लिए सक्षम बनाया जा सके. किंतु जनवरी 1965 से पहले ही इस अवधि को बढ़ा दिया गया. बाद मे हिन्दी भाषी प्रांतो के राजनैतिक दबाव के कारण संविधान मे यह संशोधन किया गया कि जब तक भारत के सभी प्रांत सहमत नही होंगे, अँग्रेज़ी का प्रयोग राजभाषा के रूप मे समाप्त नही किया जाएगा. इसका आश्य यह हुआ कि जब तक एक भी प्रांत चाहता रहेगा तब तक अँग्रेज़ी राजभाषा रहेगी. इसी का परिणाम है की अँग्रेज़ी भाषा का प्रयोग अब भी पूर्ववत हो रहा है. यहाँ तक कि दक्षिण भारतीय राजनीतिग्य तो "हिन्दी लादी नही जा सकती" का तर्क देते हैं, और भारतीय संघ की घोषित राष्ट्रपभाषा होने पर भी हिन्दी आज भी अपनी स्थिति सुद्रड़ नही कर सकी है .
हिन्दी विरोधियो के योगदान में आम नागरिक ने भी कोई कोताही नही बरती और अपने तर्क इस प्रकार देते रहे कि :
हिन्दी भाषा एक क्लिष्ट भाषा है जिसे सीखने में परेशानी होती है, इसके मुख्य सूत्रधार अँग्रेज़ी समर्थक ही हैं जो हिन्दी को कठिन बता कर अँग्रेज़ी का प्रयोग जारी रखना चाहते हैं.
कुछ अँग्रेज़ी परस्त लोगो की यह आशंका रही है कि यदि हिन्दी के माध्यम से शिक्षा दी जाएगी तो शिक्षा के स्तर में गिरावट आ जाएगी. जबकि दुनियाँ के बहुत सारे देशो में शिक्षा का माध्यम वहाँ की अपनी भाषा है . जापान, रूस, जर्मनी एवं चीन की भाषा अँग्रेज़ी ना होकर अपने देश की भाषा है और ये देश तकनीक और औधोगिक क्षेत्र में प्रयाप्त विकसित देश माने जाते हैं.
अहिंदी भाषी प्रांतो को भी यह भ्रम रहता है कि हिंदी भाषी प्रदेशो में रहने वाले लोगो को अधिक लाभ मिलेंगे और उनकी उपेक्षा होगी. जबकी संविधान ने यह गारंटि दी हुई है कि भाषा, धर्म, जाति आदि के आधार पर कोई पक्षपात नही होगा.
हमारे जाने-माने लेखक भारतेंदु हरीशचंद्र जी भी लिखते है :
जिसको न निजभाषा तथा निज देश का अभिमान है
वह नर नही, नर पशु निरा है और मृतक समान है
जब तक हम हिंदी के प्रश्न को अपने स्वाभिमान और आत्मगौरव से नही जोड़ेंगे, तब तक इसका सर्वांगीन विकास नही कर सकते. हमारा यह दायित्व है कि हम हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में और अधिक सशक्त बनाए और वह सम्मान दिलाए जिसकी वह वास्तव में अधिकरिणी है.
19 comments:
अनामिका जी बस एक घटना बताना चाहूँगा की एक दिन मेने अख़बार में एक बिज्ञापन देखा . जिस में अंग्रेजी में लिखा था :- "Annual Hindi language seminar 2007-08". अब बताइए हिंदी भाषा की गोष्ठी की सुचना अंग्रेजी में. क्या कहेंगी ?
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति ।
... प्रभावशाली अभिव्यक्ति !!!
आपके बारे में कुछ नहीं जनता ..न नाम न आपका कार्य ..मगर आज का लेख कुछ अलग हट कर लगा और अच्छा लगा ! अच्छा इसलिए भी की आजकल यह विषय नीरस है ...हिन्दी ब्लाग्स पर भी ! हालांकि टिप्पणियां खूब मिलती हैं फिर भी हिंदी को जो जगह मिलनी चाहिए वह नहीं मिल पायी !
आपको शुभकामनायें !
कमाल है संयोग का और टिप्पणी के समय का !
जब तक हम हिंदी के प्रश्न को अपने स्वाभिमान और आत्मगौरव से नही जोड़ेंगे, तब तक इसका सर्वांगीन विकास नही कर सकते.
Aapki baat se sahmat hoon.
हिन्दी भाषा को समुचित स्थान अभी तक नहीं मिल सका. हर जगह अंग्रेजी को प्राथमिकता दी जाती है.
मैं संध्या गुप्ता जी की बात से सहमत हूँ..जब तक हम स्वयं हिंदी को सम्मान नहीं देंगे तब तक हिंदी ऐसे ही हेय दृष्टि से देखी जाती रहेगी ..विचारणीय लेख..
हिंदी में नए शब्दों का निर्माण मूल शब्द में उपसर्ग और प्रत्यय लगा कर किया जाता है...मूल शब्द के प्रारंभ में लगने वाला शब्दांश उपसर्ग और अंत में लगाने वाला शब्दांश प्रत्यय कहलाता है...
इक प्रत्यय लगते समय ध्यान रखना पड़ता है की शब्द के पहले अक्षर की मात्रा में परिवर्तन होता है...लेकिन जहाँ आ की मात्र होती है वहाँ कोई बदलाव नहीं किया जाता ---
सप्ताह + इक = साप्ताहिक
मास + इक = मासिक
इतिहास + इक = ऐतिहासिक
नीति + इक = नैतिक
भूगोल + इक = भौगोलिक ....आदि
अब बहुत सुधार आया है ..ब्लॉगिंग का भी इसमें बहुत महत्वपूर्ण योगदान है..हिन्दी भारत की मुख्य भाषा है और हम सब हिन्दी का और प्रचार प्रसार करेंगे...बढ़िया आलेख...बधाई
हिंदी को सम्मान जब अपने ही देश में नहीं है....तो कोई दूसरा कैसे दे सकता है....हिंदी भाषा का उपयोग आज के समय में, ख़ास करके नयी पीढ़ी बिलकुल नहीं करना चाह रही है....और यह एक गंभीर समस्या है.....
बहुत अच्छा विषय चुना आज..
बधाई....
हमेशा से ही व्यक्ति की चाहत रही है कि वह विशेष दिखे। इसीलिए प्रबुद्ध व्यक्तियों ने अपने लिए भाषा भी विशेष चुनी है। पहले वे संस्कृत का प्रयोग करते थे और पण्डित कहलाते थे अब ऐसे ही अभिजात्य लोग अंग्रेजी का प्रयोग करके आधुनिक कहलाते हैं। लेकिन हम सब मिलकर हिन्दी के प्रति स्वाभिमान जागृत कर सके तो एक दिन सुफल अवश्य मिलेगा।
बहुत ही सुन्दर भाव और अभिव्यक्ति के साथ आपने बढ़िया आलेख प्रस्तुत किया है जो काबिले तारीफ़ है! बधाई!
आपने सही कहा है ... पर जब तक सरकार कुछ नही करेगी इस दिशा में ... कुछ नही होने वाला ...
हिन्दी भाषा को बढावा और सन्मान देने वाला राजनेता अब तो आगे आया नहीं है!... सरकार भी सौतेला व्यवहार कर रही है!...आप के विचारों से मै सहमत हूं!
हमे तो हिन्दी पर अभिमान है ।
बहुत अच्छा लेख है, पर किसी पर जोर जबरदसती करने से काम नहीं होगा इसके लिए लोगों का मन टटोल कर उनके मन में इस बात के लिए जगह बनवानी पड़ेगी,तभी ये सम्भव होगा
महत्वपूर्ण । हिन्दी सेवियोँ का दायित्व बोध निहित है इस ज्वलंत लेख मे ।
अनामिका जी , आप की हुँकार आन्दोलन का मार्ग प्रशस्त करने मे समर्थ है ।
सच कहा आपने , स्थिति तो इससे भी बदतर लगती है ।
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