आज दुर्वा को नींद नही आ रही है...रात का तीसरा पहर भी ख़तम हो चला है...नींद न जाने आज कितनी कोसो दूर चली गई है ..बीते हुई सुबह के एक बजे से रात के नौ बजे तक के सारे पल चल-चित्र की भाँती उसके हृदय-पटल पर आ-जा रहे है ॥!!
दो दिन से दुर्वा को बुखार है..लेकिन स्त्री और धरती के लिए इस सृष्टि में आराम कहाँ??? हर पल कर्म किए जा...और फल की इच्छा रखना तो दूर..बस सहे जा, सहे जा..जो जैसा फल दे..यही विडंबना है और यही समानता है स्त्री और धरती में ....,
आज सुबह दुर्वा के बेटे का रिजल्ट निकलना था..उसके पतिदेव ने इसी लिए आज छुट्टी ली थी ..फिर भी उसे ऑफिस से छुट्टी लेनी पड़ी थी क्यों कि ऐसा तो हो ही सकता कि कोई काम अकेले ही कर लिए जाए..सुबह की आपा-धापी, के बाद स्कूल पहुचे, क्युकी उसके बाद दुर्वा को आधे दिन के लिए ऑफिस भी जाना था..भगवान् का शुक्र है कि बेटा पास हो गया था.., जल्दी जल्दी में बुक्स लेने गए तो कही रास्ते में दुर्वा का चश्मा गिर गया..परेशान हो गई दुर्वा कि क्या करे ऑफिस में काम कैसे करेगी? ..पति देव भी शुरू हो गए अपने व्यंगय बाणों से बींधने (न जाने इन पतियों को देव की उपाधि क्यों और कब दे दी गई) छोटी सी बात का बतंगड़ बन चुका था.. गलती हो गई कि चश्मा गिर गया..लेकिन कोई जान-बुझ कर तो नही करता...आख़िर .गुस्से में पैर पटकती दुर्वा भी ऑफिस आ चुकी थी..शाम का वक्त भी आ गया..जैसी कि उम्मीद थी दुबारा चश्मा मुद्दा बन गया..और रोते-पीटते रात भी आ गई...काम खत्म करते करते थक चुकी थीदुर्वा।
परन्तु पुरूष कितना खुदगर्ज़ होता है ...उसे सिर्फ़ अपना स्वार्थ, अपनी इच्छाए पुरी करनी होती है.. आज की दौड़ - भाग से थकी दुर्वा सारे दिन बातें सुन सुन कर मन भी उदास था ..ऑफिस में भी ठीक से काम न कर पाने के कारण डांट पड़ी थी पर इन सब बातों का उसके पति को क्या लेना - देना? पतिदेव की शारीरिक भूख शांत कराने के लिए भोजन के रूप में परोसो ख़ुद को...ये रात भी उसी रात में से एक थी..कुंठित मन, असहाए बदन, निढाल सी वो कर्त्तव्य पुरा कर रही है..पत्नी धरम निभा रही है.....दुर्वा अपने आप को समेटने का भरसक प्रयास कर रही है...ऐसा लगता है जैसे एक बार फ़िर उसके मन रूपी कांच की किर्चने टूट -टूट कर पूरे कमरे में बिखर गई हो....अश्रु भरी आँखों से, लहुलुहान दिल से और असीम वेदना से भरी जज़्बात रुपी उंगलियो से वो ख़ुद को सहेजने के लिए,,,समेटने के लिए तमाम रात प्रयास-रत रही...और रात के चौथे पहर की पौ भी फ़ुट गई..फ़िर वही रोज़-मर्रा कि दौड़-भाग वाली जिंदगी की शुरुआत...आह दुर्वा सोच रही है..किसने रख दिया उसका नाम दुर्वा..कभी पढ़ा था उसने दुर्वा एक घास होती है..जो हर पल पैरो से रौंदी जाती है..और उसकी आह सुनने वाला, उसके दुःख को जानने वाला कोई नही होता... आह ...दुर्वा.... पराधीन सपने हूँ ...सुख नाही..वाली कहावत चरितार्थ करती हुई...!!
11 comments:
बहुत दिनों बाद लिखा, पर बहुत अच्छा लिखा.चूक स्त्री की भी है ,स्वयं को व्यक्ति के रूप में क्यों नहीं प्रस्तुत करती ,क्योंहमेशा सहने को और दबने को तैयार ,दूसरे को मनमानी करने की इतनी छूट क्यों दी ?स्वयं को बलि का बकरा बना कर दया की पात्र न बने ,अपना आत्म-सम्मान और स्वत्व बना रहे ,इतनी दृढ़ता अपने में उत्पन्न करनी होगी.
सच में क्या बोलूं दूर्वा के लिए…
बहुत ही सुंदर सार्थक प्रस्तुति!!!
ek samanya roop se jhelati hui nari ki jindgi ka sajeev aur yatharth chitran . bahut achchhi lagi kahani.
स्त्री को सब सहना पड़ता है....मगर प्रतिकार भी करना जरूरी है..
हिम्मत करनी होगी उसे, अपने पैरों पर खड़ी एक सुशिक्षित नारी के लिए आत्मशक्ति बढ़ाना और आत्मसम्मान पाना अत्यंत आवश्यक है … मार्मिक
सुन्दर और सार्थक लिखा
मन को छूता हुआ
बधाई
सादर---
आग्रह है- जेठ मास में-
दूर्वा नाम रख देने से ही झुकी क्यों रहे , सर उठाये ना कहने को !
मार्मिक कथा !
बहुत मर्मस्पर्शी और संवेदनापूर्ण कहानी दूर्वा की...जाने कितनी दूर्वायें यह पीड़ा झेल रही हैं...
बहुत दिनों बाद .....मर्मस्पर्शी
बहुत मर्मस्पर्शी सुन्दर और सार्थक लिखा
एक नारी की व्यथा वेदना को बहुत सशक्त अभिव्यक्ति दी है ! हमारे समाज की तमाम स्त्रियों की नियति यही है जिससे वे चाह कर भी बाहर नहीं निकल पातीं ! कहीं घर वालों का प्रेशर है कहीं प्रतिष्ठा का सवाल आड़े आ जाता है कभी बच्चों का भविष्य बाधा बन जाता है तो कभी स्त्री ही हिम्मत नहीं जुटा पाती और बदले में उसके हिस्से में आती है यही घुटन भरी ज़िंदगी ! बहुत सुंदर कहानी !
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