रविवार, 24 जनवरी 2010

अधूरापन....




















आज भी कितने अधूरेपन मे जीती हे वो...उसके अंदर जो मा का प्यार पाने का आभाव है..जो आज भी उसे एक अजीब सी खलिश दे जाता है...बचपन मे मिला ये अधूरापन उसकी ज़िंदगी का अधूरापन बन चुका है..ये ऐसा दर्द हे जिसे वो शब्दो मे ढाल कर भी कम नही कर पाती..!!

जब मा की गोद मे रह कर बच्चा बड़ा होता है तब उसकी मा को उसे छोड़ कर जाना पड़ा अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए..क्यूकी घर की आर्थिक स्थिति इतनी अच्छी नही थी की पिता घर का खर्च अकेले वहन कर सकते...घर के हालात सुधारने के लिए मा को आगे पढ़ना था, अपनी एक महीने की बच्ची को छोड़ दो साल के लिए किसी ट्रेनिंग के लिए बाहर जाना था..शायद मा के पास उसे छोडने के अलावा और कोई रास्ता नही था..शायद मा को ये एहसास भी नही था की जिस बच्ची को वो अपने सीने से अलग कर के मज़बूरीवश दूर जा रही है..वो बच्ची कितना तडफेगी ज़िंदगी भर इस प्यार के लिए..!!

शायद बाद मे मा अपने प्यार से उसकी इस कमी को पूरा कर पाती..लेकिन विधि का विधान कुच्छ और ही था..मा दो साल बाद वापिस आई तो हालात के चलते उस बच्ची को उसकी आंटी के पास भेज दिया गया..और उसकी आंटी के बारे मे तो जो कुच्छ कहा जाए कम है..एक ऐसी स्त्री जिसे मा की ममता क्या होती है, बच्चो को कैसे प्यार किया जाता है..कैसे पाला जाता है, वो नही जानती थी..ज़रा सी उस तीन साल की बच्ची की छोटी सी ग़लती पर उसे खूब पीटा जाता, आग से उसके शरीर पर घाव दिए जाते, बे-रहमी से मार खाने से उसके गाल सूज जाते....उस नन्ही सी परी का वो कांटो भरा बचपन ज़िंदगी भर का वो नासूर बन गया जो उम्र भर उसकी ज़िंदगी को टीस देता रहा...और वही मा की ममता का आभाव उसे हमेशा के लिए एक अंतहीन अधूरापन दे गया..और ये अधूरापन हमेशा हमेशा के लिए एक दर्द बन कर ठहर गया..जिसे वक़्त भी नही मिटा सका...!!

रविवार, 17 जनवरी 2010

ढँके जज्बात






















दोस्तो, यह कविता मैने हिंद युग्म की दिसंबर माह की युनीकवि प्रतियोगिता के लिए भेजी थी जिसे १४वा स्थान मिला. अब इसे में आपकी राय के लिए प्रस्तुत करती हू..



अब मै ढाँप लेती हूँ
अपने जज्बातो को तुमसे भी
और ओढ़ लेती हूँ
एक स्वाँग भरी मुस्कान को
छुपा लेती हूँ सारा दर्द
आवाज में भी.
तुम भेद ही नही पाते
इस चक्रव्यूह को,
नही देख पाते
स्वाँग भरी मुस्कान के पीछे
के चेहरे का दर्द.
मेरी आवाज का कंपन
कहीं तुम्हारी ही खनक में
विलीन हो जाता हैं.
तुम स्वयं मे मदहोश हो,
गफलत में हो, कि
मै संभल गयी हूँ
तुम्हारे दिये दर्द से..
किंतु सच....?
सच कुछ और ही हैं.
मै भीतर ही भीतर
पल-पल बिखरती हूँ..
टूटती हूँ.
मगर हर लम्हा
प्रयास-रत रहती हूँ..
अपने में ही सिमटे रहने को..
नही चाहती अब
मै तुम्हे अपनी आहें
सुनांना.
क्युँकि सुना कर भी
देख चुकी हूँ
और बदले में तुम्हारी
रुसवाईयाँ ही पायी हैं.
इसलिये अब मैने
अपने चारो ओर
खडी कर दी हैं
एक अभेद्य दीवार
जिसके भीतर
झांकने की
सबको मनाही हैं
और तुमको भी

गुरुवार, 14 जनवरी 2010

नये दौर की मुहोब्बत...

















अब शिकायतो का दौर खतम हो गया
तेरी महफिल से उठा और बेगाना हो गया

तूने पलट के भी ना देखा अपने तलबगार को
ऐसा छिटका दामन से कि दिल से भी जुदा हो गया

हश्र ऐसा होगा मुहोब्बत का तेरी महफिल में
दर्द वालो के ही घर में दर्द अजनबी हो गया

क्या फरक रह गया तुझमे और बे- वफाओ में
वक़्त की मजबूरियो का तू भी खैर-ख्वा हो गया

आज अपनो की खातिर तेरा प्यार इतना बढ गया
मुझे अपनो से जुदा कर तू मुझ से ही जुदा हो गया

वाह नये दौर की मुहोब्बत के दस्तूर भी हैं नये
जिस मोड पे मिला था उसी मोड पे ला के छोडा गया.

जिस दर्द से बिल्बिलाते हुये दामन पकडा था तेरा
'तन्हा' आज उसी दर्द से फिर रु-ब-रु हो गया.

रविवार, 10 जनवरी 2010

जलने दे मुझको यू ही...









तन्हा हू तो रहने दे तन्हा मुझको यू ही
जलने मे भी मज़ा है जलने दे मुझको यू ही

ख्वाब टूट गये हैं रुसवा हो गई है खुशिया
दुनिया को क्या देखु, अश्क नही देखते कुच्छ भी
धुंधला गयी है आँखे, दिल टूटा है कुच्छ यू ही..
तन्हा हू तो रहने दे तन्हा मुझको यू ही...!!

सावन जो रह-रह कर मेरी आँखो मे आता है.
भूलने देता ही नही मेरी किस्मत की ठोकरो को..
जिसका मांजी,पतवार किनारा और मंज़िल भी है...
फिर भी बे-सहारा हू,अकेली हू, तन्हा यू ही..!!

जलजले है गमो के, दामन भी कोई नही है..
सहारा होकेर भी वो मेरा सहारा नही है..
चिता जलती है खुशियो की..कोई राह भी नही है..
फिरती हू बोझ लिए कंधो पर गमो का यू ही..!!

रस्मे है जो कंधो पर निभानी है ज़रूरी..
काम है जो ज़िंदगी के वो निभाने भी ज़रूरी..
कांटो मे चाहे उलझी जाती है ये ज़िंदगी..फिर भी..
रो कर..या हस कर...'तन्हा' तुझे ज़िंदगी बितानी है यु ही..!!

शनिवार, 2 जनवरी 2010

समझो मुझे....

















क्या तुम अनभिज्ञ हो
मेरे
हालातो से..
मैने तो हर प्रष्ठ
खोल के रख दिया हैं
तुम्हारे सामने
अपनी किताब का.

क्यू नही समझ पाते
तुम, मेरी
मजबूरिया
और दे देते हो
हर बार इल्जाम
मेरी
विवशता को

क्या तुम्हे
आडंबर लगती हैं
सारी बाते

क्यो तुम अविश्वास में
जीते हो ?
और विष
उडेल
अपने शब्द बाणो से
आघात करते हो
मुझ पर
त्राहि-त्राहि कर,
करके मुझे व्यथित,
खुद भी
खून के आंसू रोते हो.

समझो, और रखो विवेक,
ना लाओ विकारो को
जो उठते हैं मेरे प्रती
अविश्वास में
अनायास ही तुम्हारे मन में.

मै तुमसे
बेहद प्यार करती हू
मगर मजबूर हू
नही उतर पाती
तुम्हारी उमीदो पर खरी

मै गुनेह्गार हू तुम्हारी
पर मै नही खैलती
भावना से तुम्हारी

हे प्रिये,
धीर धरो
मै सदा ही हू
तुम्हारी, सिर्फ तुम्हारी.

सोमवार, 28 दिसंबर 2009

तू और मैं ....
















मेरे स्वप्नो की छाया में रमी हुई
मेरी स्मृतियों में बसी
सांसो के धागो में बंधी तू...!
और मै.......??
तेरी छाया के पीछे दौड़ता
एक व्याकुळ, आकुल,
बेबस पथिक मात्र हू..!

तू अपने ह्र्दय की फुलवारी में
किसी और की सोचे बुन रही है
तेरी छटपटाहट मेरे लिए नही है
तेरी उदासीनता का मुझे भान है
मगर मै तेरे ध्यान को
आकर्षित ना कर सका, और...
चुपचाप तुझमे लीन रहा
और तू अल्हड़, बेखबर की तरह
मेरे सपनो के परे छिपी रही !

मै अपनी निराशा, उन्माद, व्यथा
और व्यग्रता में उपासना की
इस एकांकी मंजिल की ओर
निरंतर बढता रहा !
अपनी अतृप्त व्याकुलता को
दौड़ाता रहा, किंतु
तेरे प्रेम पथ का ओर
छोड़ ना सका और..
छोर पा ना सका..!

ये जीवन इंतजार की
घड़ियों में एकत्रित हो..
सूखता रहा !

अब मै सूनेपन की
समाधी में गड़ा
अपनी नीरवता के
सूखे फुलो से लदा हू..
किंतु मेरे अरमान
अब भी जीवित हैं..
और मेरी लाश रूप धरती पर
कृमियों की तरह
रेंगते हुए तड़प रहे हैं !

तू चाहे इस धरती पर
पराग कणो की तरह बिखर के उड़ गयी..
परंतु तेरे चरण - चिन्ह
अंकित हैं आज भी
ह्र्दय धरा पर !!

शुक्रवार, 25 दिसंबर 2009

खलिश....
























अजब खलिश है सीने में..
नम हर पोर है सीने में..
दग्ध भाव है..
सज़ल नयन है..
चित भाव विभोर है..
मर मर कर इस जीने में..!!

ना अरमानो की छाव कही..
ना ख्वाबो के है पाँव कही..
ना सुख की भोर है नयनों में..
ना प्रेमालाप का राग कही..!!

असहाए, दरिद्र सी उत्कंठाये.. ..
उजास नहीं है किसी पथ में..
नैराश्य की घन-घोर घटा..
छाई जीवन के उपवन में..!!

कोई उम्मीदों की बदली छा जाये..
कर-बध्ध हू, कामना फल पाए ..
मुझ भटके पथिक को कोई राह मिले..
प्रभु तेरे दर की अब राह मिले..
प्रभु तेरे दर की अब राह मिले..!!

मंगलवार, 22 दिसंबर 2009

स्वांग भरी मुस्कान

















दोस्तों
, यह रचना मैंने हिंद-युग्म में युनिकवी की अक्तूबर माह की प्रतियोगिता में भेजी थी जिसे ११ वा स्थान प्राप्त हुआ था और आज इसे आप सब के बीच पेश कर रही हू...उम्मीद है पसंद करेंगे

सब कुछ बिखरता जा रहा है
लेखनी की सांसे टूटने लगी है..
सारे गम अंतस को बींध कर..
अब तो नासूर बन चुके है..
जिनकी अथाह वेदना
जीने की उमीदो को
नोच-नोच कर
जिंदगी को तल्ख़ किये जाती है..!!

चेहरे की झुर्रिया
और गहरा चली है..
जो अट्टहास करती है..
उस मुस्कान पर
जो स्वांग भरती है..
झिलमिलाती झूठी खुशियों का..!!

मैं मन के इस अभेद्य
तिमिर को भेदने का
मानो आशाओं की मोम्बत्तिया जला,
असफल प्रयास करती हू..,
और....
मोमबत्तियों के गालो पर
पिघलते हुऐ मोम के आंसू
मेरी इस स्वांग भरती..
मुस्कान का..
मुल्ये चूका रहे है..!!

मैं थक चुकी हू..
इस दोहरी जिंदगी से..
मोम-बतीया अपने हाथो से बुझा..
उनके आंसू पोंछ देती हू..!!

रविवार, 20 दिसंबर 2009

सागर सिमट जाएगा.....















लम्हा दर लम्हा सागर सिमट जाएगा..
कतरा - कतरा कर ख़ुद ही में ये लिपट जाएगा..
तुमको पता भी न चलेगा..
कितने गम...कितनी तन्हाईया
ख़ुद ही मे ले कर ये मिट जाएगा..

लम्हा दर लम्हा सागर सिमट जाएगा..
कतरा - कतरा कर ख़ुद ही में ये लिपट जाएगा..

भटकते भटकते एक दिन जब सांसे थक जाएँगी..
इन पत्थर दिल इंसानों की नगरी से जब उम्मीदे टूट जाएँगी..
उपर वाले से लड़ते लड़ते जब तकदीर हार जायेगी..
उस दिन देखना तुम सागर को..
मगर फ़िर भी दर्द पर हस्ते सागर की
बस हँसी ही तुमको नज़र आएगी..

न जान पाओगे तब भी तुम...
कितने गम...कितनी तन्हाईया
ख़ुद ही मे ले कर..
ये सागर सिमट जाएगा..!!
कतरा - कतरा कर ख़ुद ही में ये लिपट जाएगा..!!

मेरी चाहत है कि, एक वक्त ऐसा भी हो जाए..
तुम मेरे लिए तड़पो ..और मै इस जहान से रुखसत हो जाऊ..
तुम समझो तब अपनी बे-रुखिया ...अपने सितम..
तब तुम जी भर के रोवो....और मै भी तुम्हारी तरह मुस्कुराती रहू..

सुना हे प्यार जब पुराना हो जाता है, तो
कोयले की तरह भीतर ही भीतर जल जाता है..
आज मेरी भी हालत वही हो गई है..
और चाहत है की तुम वो ही कोयला बन जाओ..

देखना एक दिन यु ही दर्द से सराबोर जब ये हो जाएगा..
टूट कर जब ये नि-श्वास हो जाएगा..
लम्हा दर लम्हा सागर सिमट जाएगा..
कतरा कतरा कर के ...
भीतर ही भीतर ख़ुद ही मे ये समा जाएगा..
तुमको तो पता भी न होगा..
कितने गम...कितनी तन्हाईया
ख़ुद ही मे ले कर ये सागर मिट जाएगा.

लम्हा दर लम्हा सागर सिमट जाएगा..
कतरा - कतरा कर ख़ुद ही में ये लिपट जाएगा..

रविवार, 13 दिसंबर 2009

प्रारब्ध












चेहरे की झुर्रिया..
अपने निशाँ
छोड़ने लगी है..!!
मौत भी धीरे धीरे ..
अपनी चादर
फैलाने लगी है...!!
क्षणिक सुखो की
भावभरी शाखाये भी..
दारुड दुःख में..
सूख चली है..!!
मगर..., आह....
ये प्रारब्ध..
हां....
ये निर्दयी प्रारब्ध
पैशाचिक नृत्य
करता हुआ..
क्षण - क्षण..
जिंदगी को
लीले जाता है..!!
फिर भी...
फिर भी..
अवसाद यू, की
वो अंतिम क्षण
आने ही नहीं पाता ..
इस संतप्त जिंदगी का ..!!
आह ...
ये निर्दयी प्रारब्ध...!