अंतिम सांसे ले रही थी
उनकी दोस्ती..
फिर भी एक आस...
एक उम्मीद
कि , लौट आयेंगे
फिर से वो दिन..
कि, फिर... शायद फिर..
इतना वक़्त दे पाएंगे..
फिर से नए रिश्तो को..
मज़बूत बनायेंगे..
फिर से लम्बी बाते होंगी..
वो गमो को भेद..
जिंदगी को जी लेने वाली
वो मुस्कुराह्ते होंगी..
फिर से धड़कने
एक-दूजे को छुएंगी ..
एक-दुसरे को सुनेंगी..
फिर से डर की
सरहद पार कर जायेंगे..
और इस बार
इस पवित्र रिश्ते को..
पाकीज़गी दे पाएंगे..!!
आह..
कैसे मोहपाश है, ये,,
उमीदो के दामन
छूटते नहीं है...
ये भ्रम जाल
टूटते नहीं है..!!
अंतिम सांसे ले रही थी
उनकी दोस्ती..
फिर भी एक आस...
एक उम्मीद.....!!
1 टिप्पणी:
कि, फिर... शायद फिर..
इतना वक़्त दे पाएंगे..
फिर से नए रिश्तो को..
मज़बूत बनायेंगे..
"शायद" शब्द को हटा दीजिये
और एक विश्वाश दिला दीजिये
फिर देखिये क्या कमाल होगा,
जिसके लिए लिखा है
वो आपके सामने होगा
ये तो रही मेरी बात,
जहाँ तक रचना की बात है, विरह की पीडा और फिर पाने की आस, बड़ी खूबी से बयां हो रही है. और हाँ, रिश्तो की डोरी कभी कमज़ोर मत होने दीजिये. विशेषकर दोस्ती...
अच्छी रचना है, लिखती रहिये,,
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