कैसे कैसे लम्हों से
जिन्दगी गुज़रती है
कभी खुशियों के
पंख लगा के उडती है.
तो कभी अथाह वेदनाओं
में ढलती है .
हर तरफ से रिश्तों के
हाथ छूटने से लगते हैं.
प्यार के बंधन भी
गांठे खोलते से लगते हैं.
हूक सी दिल में
शोर करती है
गूंगी घुटन भी
पलकों की
झिर्रियों से
बेबसी के निशान
छोडा करती है .
खुशियाँ जब
आँगन में
लहलहाती हैं ,
कल्पनाएँ
प्रेम नीड़ में
विश्राम पाती हैं.
तब ये जिंदगी
स्वर्ग सी लगती है
नए ख्वाबो के
महल बनते हैं.
मंजिलो की राहें
तलाश करते हैं.
आशाओं के प्याले
छलकते रहते हैं.
ना उम्मीदी के
जाम टूटा करते हैं.
मगर होता है जब
जिन्दगी पर
आभावो का कहर
यथार्थ का होता है
जब कल्पनाओ से
मिलन
धाराशायी होते हैं तब
सपनो के महल
किर्चन किर्चन
होकर
बिखरती है
जब जीवात्मा
तब ....
ठगिनी सी
किस्मत दिखाती
है सच्च का
आइना
और जिंदगी
काठ के पटरे पर
शांती का कफ़न ओढ़े
मुहँ फेर सोती है !!
26 comments:
बेहद उम्दा अभिव्यक्ति लगी आपकी ।
बहुत गहराई से लिखा है
नए ख्वाबो के
महल बनते हैं.
मंजिलो की राहें
तलाश करते हैं.
bahut hi sunder parastuti.........
ठगिनी सी
किस्मत दिखाती
है सच्च का
आइना
और जिंदगी
काठ के पटरे पर
शांती का कफ़न ओढ़े
मुहँ फेर सोती है !!
Aapki sadayen,antar man tak besaakhta pahunch jaati hain..
nice Anamika jee
ठगिनी सी
किस्मत दिखाती
है सच्च का
आइना
और जिंदगी
काठ के पटरे पर
शांती का कफ़न ओढ़े
मुहँ फेर सोती है !!
इतने पर भी शांति मिल जाये तो बहुत बड़ी बात है....बहुत खूबसूरती से समेटे हैं जज़्बात....शब्दों का चयन लाजवाब....अच्छी रचना..
यथार्थ और कल्पना, ख़्वाब और हक़ीक़त की जंग का सच्चा बयान...
Hakeekat se roobroo karaati rachna ... sach ka aaina bahut kuroop hota hai ...
और जिंदगी
काठ के पटरे पर
शांती का कफ़न ओढ़े
मुहँ फेर सोती है !!
प्रतीको के क्या कहने
Hi..
Jeevan main gar swapn nahi hon..
To yatharth ka dikhta chehra..
Us par gar abhav hon rahte..
To vishad aata hai gahra..
Jeevan kathin ho chahe jitana..
Hanskar ese nibhana hai..
Janm se mrutyu tak humko to..
Aage badhte jana hai..
Bhavpurn kavita..
DEEPAK..
www.deepakjyoti.blogspot.com
ठगिनी सी
किस्मत दिखाती
है सच्च का
आइना
और जिंदगी
काठ के पटरे पर
शांती का कफ़न ओढ़े
मुहँ फेर सोती है !!
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
प्रभावशाली अभिव्यक्ति है ।
भावनाओं को शब्दों का जो सहारा आपसे मिलता है वो लाजवाब है!
कुंवर जी,
हर तरफ से रिश्तों के
हाथ छूटने से लगते हैं.
प्यार के बंधन भी
गांठे खोलते से लगते हैं.....
जीवन का यथार्थ पेश किया है आपने.
गूंगी घुटन भी
पलकों की
झिर्रियों से
बेबसी के निशान
छोडा करती है.
बढ़िया रचना
बहुत खुबसुरती से पिरोया है दिल का दर्द एक एक मनका उभर कर आया है
jindagi isi ko kahte he ji.
खूबसूरत कविता के सृजन के लिए बधाई प्रेषित करना चाहूँगा.. अनामिका जी आप इस नाचीज़ के ब्लॉग पर पहली बार आयीं ऐसा आपको लगा लेकिन जहाँ तक मुझे याद है आप पहले भी कई बार अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुकी हैं.. हाँ मामला दहाई के अंकों तक नहीं पहुंचा ये बात और है.. :) शायद कविता,ग़ज़ल और व्यंग्य को अल्प विराम दे आजकल कहानी/लघुकथा विधा पर हाथ आजमाने की वजह से या ब्लॉग का रंगरूप बदलने से या तस्वीरें लगा देने से आप पहिचान नहीं पा रहीं. :(
उम्मीद कम विश्वास अधिक है कि आप आशीष बनाये रखेंगीं
Another awesome post ! Keep writting through your magical lekhani.
बेहतरीन भावाभिव्यक्ति के लिये साधुवाद स्वीकारें....
खुशियाँ जब
आँगन में
लहलहाती हैं ,
कल्पनाएँ
प्रेम नीड़ में
विश्राम पाती हैं.
ye baat khub jami mujhe di ....solid nazm hai ./...
.............आँगन मे लहलहाती है..........
अनेक विसँगतियोँ मे सँगति । यही जीवन का आनन्द है ।
आपकी रचना
समूचे जीवन की संरचना ।
बेहतरीन भावाभिव्यक्ति।
.... bahut sundar ...प्रसंशनीय रचना !!!
और जिंदगी
काठ के पटरे पर
शांती का कफ़न ओढ़े
मुहँ फेर सोती है'
हा हा हा
पागल लड़की! लिखा तो अच्छा है पर जब जिंदगी खुशियाँ ले के आती है तब उस से कोई शिकायत नही? और जरा सा अपना तेवर दिखाया कि शिकायतें चालू.
निराश,हताश होने लगती हो और वही सब कुछ तुम्हारी कविताऑ में दिखने लगता है.
जब तक अपने आपको इनसे उपरऔर निर्लिप्त रहना नही सीख जोगी. तुम्हारी रचनाएँ निराशा के गीत गाती रहेंगी.
और ये सही है?
कत्तई नही.
इसलिए ना मैं तुम्हारी इस रचना को श्रेष्ठ कहूँगी ना तुम्हारी निराशावादी सोच को. समझी? पागल लड़की.
अनामिका जी !
धन्यवाद् ! उस प्यार के लिए जो अपने मेरी रचना को पढ़ कर उस पर टिप्पणी किया. सस्नेह मेरा अभिवादन ! उस आग्रह के लिए जिसने मुझे चर्चा मंच पर आमंत्रित किया. क्षमा,मेरी असमर्थता के लिए की मैं 9 जुलाई को आप सभी से संपर्क नहीं कर पाई.
अनामिका जी !आप के ब्लॉग पर ही लिख रही हूँ तो साक्ष्य देने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी की मैंने आप की सभी कवितायेँ पढ़ी.साहित्य में रूचि रखना ही साहित्य प्रेम है.हम भारतीय हैं,हमारी मातृभाषा हिन्दी है,हमारा अपना विपुल साहित्य है उससे प्रेम करना यानि अपने समाज और संस्कृति,सभ्यता से प्रेम करना है,किसी भी राष्ट्र के श्रेष्ठ नागरिक का यही प्रथम कर्तव्य और दायित्व है,जिसे आप पूर्ण श्रद्धा और आत्मविश्वास के साथ निभा रही हैं,यह देखकर मुझे आत्मसंतुष्टि का अनुभव हुआ.कुछ वर्ष पहले यह एक चिंतन का विषय था की नै पीढ़ी जो अंग्रेजियत का शिकार हो रही है उससे हिन्दी भाषा के भविष्य और अस्तित्व पर खतरा आ सकता है लेकिन हिन्दी भाषा की पत्रिकाओं की प्रकाशन दर में निरंतर हो रही वृद्धि ने उस दुश्चिंता के ग्राफ को काफी नीचे कर दिया है.इन्टरनेट पर हिन्दी की साइटों,ब्लोगों ने तो हिन्दी को अंतर्राष्ट्रीय पाठकों का एक इतना बड़ा समूह दे दिया है कि कोई चाहे भी तो हिन्दी को कोई भी पीछे नहीं धकेल सकता.यूँ समझिये कि जब आप जैसी साहित्यिक प्रतिभा संपन्न और प्रतिनिधित्व करने के उत्साह से पूर्ण महिलाएं हिन्दी भाषा में ही ब्लॉग के साथ इस मुहिम में शामिल हो रही हैं तो कहना ही चाहिए "राष्ट्रभाषा जिंदाबाद".
अनामिका जी ! मैं व्यवसाय से अध्यापन के क्षेत्र से जुडी हुई हूँ.व्यक्तित्व से सोशल वर्कर हूँ,रूचि से साहित्य-प्रेमी हूँ ,मेरी रचनाएँ इन सभी तत्वों से तैयार शोभा गुप्ता की सवेंदानाओं का उदगार हैं . आजकल मैं एक संस्था को संचालित कर रही हूँ जिसका मुख्य उद्देश्य ऐसे बच्चों को शिक्षा और चिकित्सकीय उपचार मुहैया करवाना है जो इसे प्राप्त कर पाने में आंशिक या पूर्ण रूप से असफल रहे हैं या रह जाते हैं.हमारे पास ऐसे- ऐसे बच्चे आते हैं जिनकी उम्र पंद्रह से बीस वर्ष की हो गई है जिन्होंने कभी स्कूल के अन्दर पाँव तक नहीं रखा.आने वाली १८ जुलाई को एक ऐसी ही लड़की की हम शादी करने जा रहे हैं जिसकी उम्र बीस वर्ष है जो घरो में झाड़ू-बरन करके अपना और अपनी दादी का गुजारा कर रही है,जिसके पास माँ-बाप ,भाई - बहन कोई भी नहीं है जो use किसी भी प्रकार से आर्थिक,सामाजिक सहयोग दे सके.पढ़ने के लिए बड़ी मुश्किल से तैयार हुई उसने कहा"बस मैं लिखना - पढ़ना सीखूंगी वह भी रात में जब कम कर के वापिस आ जाऊंगी,बोलो मंजूर है तो पढ़ाओ नहीं तो बताओ की यह कम कर दो इतना पैसा मिलेगा". मैं अपने कुछ सहयोगी मित्रों के साथ यह कम पिछले पंद्रह वर्षों से कर रही हूँ.मुझे मेरे एक मित्र ने बताया की उन्होंने मेरी एक रचना हिन्दी कुंज में छपी हुई है जिसे मुझे देखना चाहिए.शाम को घर देर से वापिस आई,कम से खली होते-होते १.३० हो गया था और शनिवार की सुबह घर से सात बजे निकल कर उस लड़की की शादी के लिए इन्तेजाम के सिलसिले में कुछ लोगो से मिलाना था सो, सो जाना सही लगा फिर तो मैं चर्चा मंच पर नहीं आ सकी.आज जब चर्चा मंच पर पहुंची तो समझ नहीं आया कहाँ लिखे,या पोस्ट करे फिर आप से सीधे आप के दर पर मिलना ज्यादा सही लगा.क्षमा पहले मांग चुकी हूँ,ध्यान रहे.
अनामिका जी ! समय ज्यादा हो रहा है,मेरे वो बार-बार पूछ रहे हैं आज पुरे साल का कम इकठ्ठा कर रही हैं क्या.जल्दी ही मिलूंगी ई-मेल के जरिये भी हम बात कर सकते हैं और ब्लॉग के जरये से भी. शुभ-रात्रि! शोभा गुप्ता 10 July 2010
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