खोखली दिवारों के
खाली मकान में
रहती हूँ मैं.
खाली बर्तन की
तेज़ आवाज़ सी
झूठी हंसी में ..
खनकती हूँ मैं .
भीतर के दर्द का
लावा बनती हूँ जब ..
तब आँखों की कोरो से
गिरती हूँ मैं .
लोग कहते हैं
बात-बात पर रोती हूँ मैं
ये ना समझें कि
वेदना के कीचड़ में
दुनियां को
खिलते कमल सा
दिखाती हूँ मैं .
सोचा करते हैं
'वो' भी कि ..
उनसे जुदा रह,
खुश रहती हूँ मैं.
'वो' ना समझे कि
हर पल उन्हें
याद करती हूँ मैं.
रक्त-रंजित एहसासों में
सिमटी रहती हूँ मैं
फिर भी हंसी के
चिथड़ो में
लिपटी रहती हूँ मैं.
एक हंसी की खातिर
तुम्हे क्या पता...
कितने गम के
कपाटो से
गुजरती हूँ मैं.
दस्तक देते हैं
कितने ही आंसू..
पलकों की
झिर्रियों से
मगर ...
हंसी के डोले में
सजा, उन्हें
फुसलाती हूँ मैं.
कुरेदो ना
इस से ज्यादा
मेरे भीतर की
खुरचन को..
कब ना जाने
खोखली दिवार
सी ढह जाऊ मैं ...
बस...
बस यहीं रोक लो..
शब्दों की चाल को
इन शब्दों में
पिघल के कहीं
ढल के रह जाऊ ना मैं.
47 comments:
bahut badhiya ...hamesha ki tarah!
अनामिका जी खुरचन को खुरच-खुरच कर रख दिया है आपने शब्दों में। ऐसा लगता है कि झूठी हंसी के पैबंद लगा कर दिल में दर्द लिए हंसते रहते हैं।
एक हंसी की खातिर
तुम्हे क्या पता...
कितने गम के
कपाटो से
गुजरती हूँ मैं.
सच कहूं ये बात मेरे आस पास की है पर आपने बड़े सलीके से कह दी
शानदार पोस्ट
waah !!
tum itna jo muskura rahi ho kya gam hai jisko chhupa rahi ho...!!
khoobsurat..
बहुत ही सुन्दर खास कर निम्न पंक्तियाँ
दस्तक देते हैं
कितने ही आंसू..
पलकों की
झिर्रियों से
मगर ...
हंसी के डोले में
सजा, उन्हें
फुसलाती हूँ मैं.
एक हंसी की खातिर
तुम्हे क्या पता...
कितने गम के
कपाटो से
गुजरती हूँ मैं.
बहुत खूबसूरती से आपने इस मर्म को बयान किया है
सुन्दर रचना
nice
TLASHTE HAI AE SUKUN TUJHE HM
JHROKHON SE JHANK KE
JANE KAISI SHKHSHIYT HAI TERI
KI NAZAR AATI HI NHI
YE GM OUR SUKOON EK HI THALI KE CHTTE BTTE HAI . ENHE JITNA PUCHKARO YE UTNA HI PRESHAN KRTE HAI .
एक हंसी कितनी वेदना छिपा सकती है ...
यह कविता बखूबी बता सकती है ...
मुग्ध हुए हम तो !!
लोग कहते हैं
बात-बात पर रोती हूँ मैं
ये ना समझें कि
वेदना के कीचड़ में
दुनियां को
खिलते कमल सा
दिखाती हूँ मैं .
bahut badhiyaa
रचना बहुत अच्छी लगी ... मन की वेदनाओं को शब्द दी हैं आप ...
क्या बात अनामिका जी
आपने तो खामोश कर दिया
आप के साथ सबसे अच्छी बात यह है कि
भाषा का इतना जबरदस्त प्रवाह बनाकर चलती है कि कोई भी एक बार में पूरी रचना पढ़ जाता है.
आप आने वाले समय में और भी कमाल करेगी इसका मुझे भरोसा है.
खोखली दिवारों के
खाली मकान में
रहती हूँ मैं.
खाली बर्तन की
तेज़ आवाज़ सी
झूठी हंसी में ..
खनकती हूँ मैं .
सन्नाटा छा गया, कैसे लिखा ऐसे?
खोखली दिवारों के
खाली मकान में
रहती हूँ मैं.
खाली बर्तन की
तेज़ आवाज़ सी
झूठी हंसी में ..
खनकती हूँ मैं .
पहली पंक्तियों ने ही दिल को छू लिया.... बहुत ही मनोहक रचना...
--
www.lekhnee.blogspot.com
Regards...
Mahfooz..
दर्द को
शब्दों में ढाल
कविता सी
बहती हूँ मैं....
खूबसूरत अंदाज़ भीतर की खुरचन का...
कुरेदो ना
इस से ज्यादा
मेरे भीतर की
खुरचन को..
कब ना जाने
खोखली दिवार
सी ढह जाऊ मैं ...
Baap re baap! Kya likhtin hain aap! Gazab dhaya hai!
anamika ji, bahut hi bhauokta se bhariek behatreen rachna jo andar tak dil ko khurach gai.
poonam
ाअनामिका जी
वेदना का जीवन्त चित्रण कर दिया………………हर लफ़्ज़ से दर्द ही दर्द टपक रहा है…………किसी एक पंक्ति की क्या तारीफ़ करूँ।
अच्छी रचना ... किन्तु रचना का लक्ष्य समझ नहीं आता ... मन कुछ मलिन सा हो जाता है ... शायद संवेदना ही के कारण
बस...
बस यहीं रोक लो..
शब्दों की चाल को
इन शब्दों में
पिघल के कहीं
ढल के रह जाऊ ना मैं.
--
मार्ामिक और सुन्दर रचना के लिए बधाई!
Aapne apne dil ke jajbaaton ko kured kar bahut hi dardnaak racnha likhi hai ... bahut lajawaab rachna ban aayi hai ,, badhaai ...
एक हंसी की खातिर
तुम्हे क्या पता...
कितने गम के
कपाटो से
गुजरती हूँ मैं.
.....सुंदर भाव प्रस्तुत किया है आपने!...बधाई!
एक हंसी की खातिर
तुम्हे क्या पता...
कितने गम के
कपाटो से
गुजरती हूँ मैं.
aantrik vedna ki marmik abhivyakti.
kya bat hai, aapki ye rachna dil ko chu gayi, bahut badhiya laga
अनामिका की सदायें
गम के कपाटों की दरारों से आती हैं
खोखली दीवारें भी कुछ बुदबुदाती हैं
प्रेमिल आंखें क्यों देख नहीं पाती हैं
जितना खुरचोगे उतने ही जख्म उभर आएंगे
प्रेम वैसे ही थोड़ा है हम कहां कहां लगाएंगे
विरह को ही आवरण बना लो
शब्दों को ही आचरण बना लो
मन को अपने आमरण बना लो।
खोखली दिवारों के
खाली मकान में
रहती हूँ मैं.
खाली बर्तन की
तेज़ आवाज़ सी
झूठी हंसी में ..
खनकती हूँ मैं .
di....bahut din bad aaya..:)
ye wala hissa sabse badhiya tha nazm ka... baki ki nazm is hisse ki khubsurti tak nahi pahunch payi ... khokhle bartan si hansi wali baat to zabardast hai ./..
ek ek pankti chi nisha chod gayee dil par............
dua hai ise ehsaas se koi hakeekat me na guzre...........
कुरेदो ना
इस से ज्यादा
मेरे भीतर की
खुरचन को..
कब ना जाने
खोखली दिवार
सी ढह जाऊ मैं ...
बस...
बस यहीं रोक लो..
शब्दों की चाल को
इन शब्दों में
पिघल के कहीं
ढल के रह जाऊ ना मैं.
अनामिका आज तो कुछ अलग ही बात है,सुना है की खुर्जा की खुरचन बहुत अच्छी होती है पर आपकी इस खुरचन का तो जवाब नहीं क्या कहूँ अब ग़म की फेहरिस्त तो कानून के हाथ की तरह बहुत लम्बी होती है सो कुछ न कहना ही बेहतर है
दिल में दर्द छुपाकर हँसते रहना --क्या बात है । छूपे दर्द की अभिव्यक्ति भी कमाल की है ।
बहुत सुन्दर ।
दिल की खुरचन .....जिन्दगी की सच्चाई.........कुछ याद आए लम्हें ...........और आँख भर आई............
बहुत सुन्दर रचना.............
amazing..very deep and full of melancholy..congrars for the beautiful post.
अनामिका जी !मैं कल रात se आप से संपर्क करने की कोशिश कर रही हूँ लेकिन अभी तक असमर्थ हूँ.मेरा इ-मेल पता है-shobhaguptablog@gmail.com संभव हो तो कृपा करके संपर्क करें.मेरा ब्लॉग पता है-http://meriduniameinmeribaat.blogspot.com/
ऐ रफीक रकाबत अच्छी नहीं एहतेराम करने वालों से!
दर्द हमें भी होता है बेशक शाद रहते हैं!
हंसी में ना जाने क्या-क्या छुपा लेना पड़ता है, इंसान को!
खुरच दिया आपने, हरा कर दिया...... ना जाने कब नींद आएगी!
कुरेदो ना
इस से ज्यादा
मेरे भीतर की
खुरचन को..
कब ना जाने
खोखली दिवार
सी ढह जाऊ मैं ...
बहुत सुन्दर रचना.............
स्त्री की सदियों की पीड़ा उसकी खनकती हंसी की वजह है .. ना हँसे तो जाये कहाँ ....उसके अंतर्मन की कहानी लिख दी आपने !बहुत सुन्दर .आपको बधाई इस सुन्दर कविता के लिए
आपने तो कमाल ही कर दिया अनामिकाजी ! वेदना की इतनी मर्मस्पर्शी और सशक्त अभिव्यक्ति कितने दिनों के बाद पढने को मिली ! अंदर तक भिगो गयी आपकी रचना ! बहुत बहुत बधाई और शुभकामनायें !
भीतर के दर्द की गहरी अभिव्यक्ति है इस कविता में ...हँसी का मनोविज्ञान किस-किस दर्द से होकर गुजरता है और पीछे कितनी सारी
खुरचन छोड़ जाता है । बहुत खूब !!! लाजवाब
दर्द को शब्दों मे ढाल
कविता मे बहती हूँ मै।
बहुत सुन्दर गहरे भाव लिये उमदा रचना।
बस यहीं रोक लो..
शब्दों की चाल को
इन शब्दों में
पिघल के कहीं
ढल के रह जाऊ ना मैं.
बस जरा सी सहानिभूति और बह जाता है सब दर्द गिले शिकवे। बहुत अच्छी लगी रचना। बधाई।
एक हसी की खातिर -------
क्या बात है अनामिका जी
सबकुछ खामोश
बहुत अच्छी कबिता
बहुत-बहुत धन्यवाद.
रक्त-रंजित एहसासों में
सिमटी रहती हूँ मैं
फिर भी हंसी के
चिथड़ो में
लिपटी रहती हूँ मैं.
ओह्ह क्या लिख दिया ये.... वेदनासिक्त हंसी...की पूरी कहानी लिख दी..
antrmn ko chuti sundar kavita .
कुरेदो ना
इस से ज्यादा
मेरे भीतर की
खुरचन को..
कब ना जाने
खोखली दिवार
सी ढह जाऊ मैं ...
...मार्मिक अभिव्यक्ति.
क्या खूब समेटा है दर्द को एक ही कविता में.... बधाई..
aapki kavitaen sidhi dil me utar jaati hain.apni sanvednaon ko isi tarah bachaye rakhen,jeevan ke jhanjhavaton ke beech bhi.
sahitya sugandh par meri taja kavita padhne ka kasht karen.
mahavnagda.blogspot.com
खोखली दिवारों के
खाली मकान में
रहती हूँ मैं.
खाली बर्तन की
तेज़ आवाज़ सी
झूठी हंसी में ..
खनकती हूँ मैं .
वाह वाह क्या बात कही है। अति सुन्दर।
आपने तो कमाल ही कर दिया अनामिकाजी
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