Friday, 20 June 2014

ओ वसुषेण (कर्ण )


बहुत दिनों से महाभारत टी. वी. पर दिखाई जा रही है।  आज तक जितना कर्ण को जाना था, श्रद्धा में नत-मस्तक हुई थी, लेकिन उस दिन जब द्रुपद कन्या का चीर - हरण दिखाते हैं तो कुछ संवाद कर्ण ने जो द्रौपदी के लिए कहे, असहनीय थे।  तब से अंतस में कर्ण के प्रति कुपित मन भावों को  शब्दों में ढालने को कुलबुला रहा था ,  आदरणीय प्रतिभा सक्सेना जी के बार बार प्रेरित करने पर आज मैं यह लिख पायी हूँ जो आपके लिए प्रस्तुत है  … 

ओ वसुषेण (कर्ण )

क्यूँ सदा जन्म  पालन की हीनता में रहे 
क्या न विश्वास था खुद के शौर्य पर 
धर्म का ढोल पीट सदा अधर्मियों के साथी बने 
क्या यही था पौरुष कि हीनता शमित न कर सके !!

पौरुष प्रखर होता जो लाज कृष्णा की बचाते 
उल्टे स्वयं ही कटु स्वर प्रताड़ना के उच्च किये 
वेश्या, कुलच्छिनी, कृष्ण की भार्या सी 
न जाने क्या क्या कह विष उड़ेलते गये !!

टेरती हारी थी जब वो कुलीना,
तब साथ तुमने मित्रता की ओट में कौरवों का दिया 
पाषाण हृदय लिए कहो कैसे उस माँ का सामना किया 
पूरा जीवन जिस बेल को सींचा किया, लज्जित किया !!

हे अभागे वसुषेण क्यों तुम इतने पूर्वाग्रहों में घिरे 
लजा दिया पौरुष भी अपना, गरिमा को कलंकित किया 
संतप्त मन, विषमताओं में जीते रहे सदा 
मित्र धर्म की आड़ में क्या पद लोलुप रहे ?

मान पाकर भी अमान्य हो गए 
कवच कुण्डल देकर भी रीते हो गए 
विभ्रमताओं के कंटक में चिर व्याकुल रहे 
जान कर भी अधर्म में जो गिरे, उसे क्या कहें !!


13 comments:

vandana gupta said...

kahne ko kuch bacha kahan hai

प्रतिभा सक्सेना said...

कर्ण का प्रखर व्यक्तित्व जीवन भर छायाओं से घिरा रहा - यही होता है. समय पर सही निर्णय न ले पाना जीवन की सबसे बड़ी विडंबना है.

डॉ. मोनिका शर्मा said...


मान पाकर भी अमान्य हो गए
कवच कुण्डल देकर भी रीते हो गए
विभ्रमताओं के कंटक में चिर व्याकुल रहे
जान कर भी अधर्म में जो गिरे, उसे क्या कहें

कर्ण का जीवन कई मायनों में अलग सा है .... .... विचारणीय है

Onkar said...

एक अलग दृष्टिकोण

Unknown said...

बहुत हीं प्रभावित किया आपने | बहुत खूब ...

Madhuresh said...

दिनकर की रश्मिरथी से इतर, जब ये नया वाला महाभारत देखना शुरू किया, तब मुझे भी इन्ही विचारों ने कुलबुलाया। सही शब्द दिए हैं आपने।

ब्लॉग बुलेटिन said...

ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन छोटी सी प्रेम कहानी - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

vijay kumar sappatti said...

कर्ण पर जितना भी लिखा जाए , कम है .
आपने बहुत अच्छा लिखा है .
बधाई स्वीकार करे और आपका आभार !
कृपया मेरे ब्लोग्स पर आपका स्वागत है . आईये और अपनी बहुमूल्य राय से हमें अनुग्रहित करे.

कविताओ के मन से

कहानियो के मन से

बस यूँ ही



Dr.R.Ramkumar said...

मान पाकर भी अमान्य हो गए
कवच कुण्डल देकर भी रीते हो गए
विभ्रमताओं के कंटक में चिर व्याकुल रहे
जान कर भी अधर्म में जो गिरे,



sunder abhivyakti

चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ said...

बेहतरीन प्रस्तुति

संजय भास्‍कर said...

अत्यंत भावपूर्ण लेकिन यथार्थ के कठोर धरातल पर बुनी गयी एक बेहद मर्मस्पर्शी रचना ! बहुत ही सुन्दर ! बधाई स्वीकार करें !

Sadhana Vaid said...

कर्ण की व्यथा मन को पीड़ित करती है ! सबसे बड़ा दुर्भाग्य उसके साथ यही रहा कि समाज में सम्मान और यथोचित स्थान पाने की लालसा के चलते वह दुर्योधन जैसे दुर्जन का साथी और अनुगामी बना और कौरव कुल की काजल की कोठरी में अपनी अन्तरात्मा के विरुद्ध भी घुसने के लिये तैयार हुआ ! मित्र के लिये तो उसे वैसे ही वचन बोलने थे जो मित्र को अच्छे लगें ! उसका दण्ड भी तो अंतत: उसीने भोगा !

Sadhana Vaid said...

कर्ण की व्यथा मन को पीड़ित करती है ! सबसे बड़ा दुर्भाग्य उसके साथ यही रहा कि समाज में सम्मान और यथोचित स्थान पाने की लालसा के चलते वह दुर्योधन जैसे दुर्जन का साथी और अनुगामी बना और कौरव कुल की काजल की कोठरी में अपनी अन्तरात्मा के विरुद्ध भी घुसने के लिये तैयार हुआ ! मित्र के लिये तो उसे वैसे ही वचन बोलने थे जो मित्र को अच्छे लगें ! उसका दण्ड भी तो अंतत: उसीने भोगा ! बहुत सुंदर प्रस्तुति !