सोमवार, 29 मार्च 2010

मेरा बचपन ...








दोस्तो, कभी कभी अपना बचपन कितना याद आता है...वैसे मेरा बचपन कुच्छ खास अच्छा नही बीता लेकिन बचपन तो बचपन है..कुच्छ ना कुच्छ तो चंचलता, भोलापन, ठिठोलिया लेकेर ही चलता है अपने साथ और हम कितने भी बड़े हो जाए वो यादे कभी दिल को हंसा जाती है..और ठंडी ठंडी हवाओ के साथ ठंडी फुहारो से भी आलिंगन करवा देती है..ऐसा ही कुच्छ लिख रही हू..जो मुझे याद आता है..

यू परियों की तरह तितली बन घूमना
खेतो की मुंडेरो पर
टेढ़े-मेढ़े कदमो से
फ्रौक के कोने पकड़ पकड़
तितली बन कच्ची मिट्टी में नंगे पैर घूमना
वो सब याद आता है..

दो चोटियाँ कस कस के गूथना..
माँ की लिपीसटिक मूह पे पोतना
मोटी सी बिंदी माथे प सज़ा के..
साड़ी को लपेटे लपेटे..
मोटी सी काजल की धार लगा के
पल्लू को सिर पे ओढ़ कर.
मटक मटक के माँ के सामने यू आना
वो सब याद आता है..

और....

माँ का वो गीत.....
सुन मेरी लाडो..
सास बेगानी..ननद..जिठानी..
ससुरा कंठ लगाना है..
सासू के घर जाना है..
यू ही रूठना..और खिलखिला के हंस देना..
वो सब याद आता है. .

सखियो संग ठिठोली, वो चुटकी..
वो गुदगुदी..वो शरारत और वो भाग जाना..
लकड़ी के पटले नीचे तार घुमा कर
फर्श पे घुमाना..
दादी के चरखे को खाली चलाना..
वो सब याद आता है..

वो पापा का गोद मे उठाना
रसगुल्लो भरा दोना थमाना
रूसी अपनी बिटिया को प्यार से चूमना,,,,मनांना
बहना की शिकायत ....
वो स्कूल मे कमीज़ो पर स्याही छिटकाना ...
वो सब बहुत बहुत याद आता है...

मुझे मेरा बचपन आज भी मेरे बच्चो
मे लौटता नज़र आता है..
वो सब याद आता है..!

सोमवार, 22 मार्च 2010

शहीद भगत सिंग ...



























दोस्तो शहीद भगत सिंग जी की याद में कुछ फूल समर्पित है...जैसा कि वो अपनी बुलंद आवाज में लोगो में नयी स्फूर्ती का आवाहन करते थे..उसी लय में कुछ पंक्तीया मैने लिखी है जो आपकी नजर है..

इतनी तन्हाई...इतनी बेबसी कहाँ से लाए हो..
बाजुओ मे अभी दम है..अभी क्यू घबराए हो..

आहों के तूफ़ानो को आशाओ की हवा दे दो
गर्दिश की आँधियो को मंज़िल का पता दे दो..

टूटे सपने है, मगर दिल को उम्मीदो से भर लो..
गुज़र जाएँगे तंग रास्ते भी अभी चार कदम चल लो..

दिल की आतिश को हमारे साथ की सरगर्मियाँ दे दो..
इन तन्हाई की शामो को हमारे दिल का सकूँ दे दो...

अपनी कोशिशो को पाक हिम्मत-ए-मर्दा दे दो..
अपनी माँ-बहनो के होटो को उम्‍मीद के दामन दे दो..

इतना ही कर दो बस अपने भारत को हौसला-ए-कदम दे दो..
दौड़ेगा फिर ये भी सबसे आगे बस अपना बाजू-ए-बल दे दो..

छिटको निराशाओ की बदलियो को..और थोड़ी गमो को हवा दे दो..
क्यू अंधेरो मे घिरे जाते हो..अपनी सोचो को नई राहे दे दो..

शुक्रवार, 19 मार्च 2010

मेरी आत्मा कहती है...


















मेरे जिस्म में ठहरी आत्मा

रोज मुझसे कहती है ..

मुझे मैला मत करना !

आज तुम्हारी हू,

कल किसी और का होना है !

तुम अपनी झूठी वाणी से

मुझे मत पुकारना !

अपनी लालसा भरी आंखो से

मुझे मत देखना !

मुझे उजळी रहने दो

अपनी सच्चाई से ,

अपनी विनम्रता से !

मुझे शुद्धता देना

अपने कर्मो से ..

मेरी आत्मा रोज मुझे कहती है !!

शुक्रवार, 12 मार्च 2010

करीब आने तो दो..

















अपनी बाहो के घेरे में, थोडा करीब आने तो दो..
सीने से लगा लो मुझे, थोडा करार पाने तो दो..

छुपा लो दामन में, छांव आंचल की तो दो .
सुलगते मेरे एह्सासो को, हमदर्दी की ठंडक तो दो..

दिवार-ए-दिल से चिपके दर्द को आसुओ में ढलने तो दो ..
शब्दो को जुबा बनने के लिए, जमी परतो को जरा पिघलने तो दो..

पलको के साये में ले लो मुझे, स्पर्श में विलीन होने तो दो..
मासूम सी बन जाऊ मैं, अपनी गोद में गम भुलाने तो दो..

जिंदगी की तेज धूप से क्लांत हारा पथिक हू मैं ,
प्रेम सुधा बरसा के जरा, कराह्ती वेदनाओ को क्षीण होने तो दो..!!

सोमवार, 8 मार्च 2010

ताली एक हाथ से नही बजती ....











ताली एक हाथ से नही बजती
मगर मैने बजते हुये देखा हैं

दूरिया दोनो तरफ से नही चाही जाती
पर एक तरफ से बढते हुये देखा हैं
प्यार दोनो करे तो जन्नत का एहसास हैं
इक तरफा हो तो,तडप तडप के मरते देखा हैं .

ताली एक हाथ से नही बजती
मगर मैने बजते हुये देखा हैं

तीखे प्रहारो से छलनी होते हैं मन
तब एक तरफ से ही वज्रपात होते देखा हैं
निरीह को मौन में भी कुचला जाता हैं
वाचाल को सिरमौर बनते देखा हैं .

ताली एक हाथ से नही बजती
मगर मैने बजते हुये देखा हैं

वफा, बे-वफायी दो अलग पह्ळू हैं सिक्के के
मगर आज तक किसी एक को ही पह्ळू बदलते देखा हैं.
ताली एक हाथ से नही बजती
मगर मैने बजते हुये देखा हैं

गुरुवार, 4 मार्च 2010

मै हू ओस..

















छोड दे रात भर आज तू मुझे रोने क लिए..
समेटा करुंगा शब- ए- रात गम, तेरी ख़ुशी के लिए

तेरी रजा यही है तो यही ही सही
मै पळ पळ मरता रहूंगा, तेरी चाहत के लिए

नसीबो के खेळ छिपे हैं अपनी अपनी लकीरो में
तू सो चैन की नींद, मै हू ओस, शब पर बहने के लिए

मजबूरियो के नाम पर, बढा ले तू कितने भी फासले
तू चीरेजा कलेजा, मै हू हर घाव सीने के लिए !

देख सके तो देख अक्स अपना, आईना हू मैं तेरा..
जख्म कितने दिये तूने मुझे झुल्साने के लिए.

दिन जळते रहे , राते भी गळ गयी
कतरा - कतरा मर रहा तेरी चाहत के लिए.

आहे फुटे तो क्या, जिस्म बच भी जायें तो क्या
रूह तो फना हो गयी तेरी मुहोब्बत के लिए.