मैं जीवन और मृत्यु के
संयोग में हूँ.
अपने जीवन की साँसों के
कोमल धागों में
बंधा अवश्य हूँ, लेकिन
विश्वास की काल्पनिक भित्ति पर
अपने जीवन को थाम रखा है.
किसी की दुत्कारों में हूँ
या दुलार में.
किसी के रोष में हूँ
या स्नेह में.
प्रतीक्षा में हूँ
अथवा नैराश्य में.
राग में हूँ
या वैराग्य में.
विश्वास में हूँ
या विडम्बना में.
मैं इन विचारों के
उतार-चढ़ाव में
उलझा पड़ा हूँ,
और प्रयाण की
अंतिम उच्छवासों में
लटका हुआ हूँ.
मैं किस ओर हूँ,
किस ओर नहीं,
मैं स्वयं नहीं जानता
जीवन का यही
सनातन प्रश्न है.
वास्तविकता में तो
मैं स्वयं में
कुछ नहीं हूँ,
माया और साथ का
ये मोह.....
आह ! विश्वास और संदेह का
ये मोहक मिलन !!
कैसी विडंबना है ये
मैं जीवन के हर क्षण में
भयभीत हूँ !!