हे मेघदेव विचरण करते हो
नभ में आवारा मद-मस्त हो
उष्णता में भर लेते हो
जल, सिन्धु देव का अतृप्त हो.
त्राहि त्राहि करता हर प्राणी
देखा करता है व्यथित हो .
भारी बेडोल सी काया ले, फिर
उमड़-घुमड़ गरजा करते हो
कभी बाढ़ रूप धर कुपित हो
जल-जल करते हो धरती को.
उस किसान की जरा सोच करो
हर दिन-रैन में जो ये आस भरे
कब फसल कटे,कब मेहनत रंग चढ़े..
कब दो जून की रोटी मिले.
ज्यूँ मेह गिरे कटी फसल पे
आस भी ढार-ढार बहे,
खून पसीना सब बर्बाद हुए
घर की दहलीज़ वीरान रहे.
उस झोपड़ पर भी दृष्टि करो
हालत उस गरीब की मनन करो
त्रिपाल ढके जिसके सर को
खोये जो जान,जल निकसन को.
धरा सोने को बची नहीं..
मजदूरी भी जिसको मिली नहीं,
सूखी लकड़ी का भी जुगाड़ नहीं..
दो रोटी जो पेट दुलारे कहीं.
सोने का आसन गीला है,
ढकने का वस्त्र भी गीला है,
तन की पैरहन गीली है,
बच्चों का मन भी गीला-गीला है.
जन-जीवन अस्थिरता में डूब गया
हर जीव अती से कराह रहा.
तुम अब भी मद-मस्त चापें भरते हो.
इस सृष्टि पर तांडव करते हो.