शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

आज की ये रात गुज़र जाने दे ..

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आज की ये रात गुज़र जाने दे 
जितने भी आंसू दफ़न हैं सीने में 
सब इस गम पर बह जाने दे. 

तू न रोया तो, सकूँ ना मिलेगा तुझे 
कतरा - कतरा मन के लावे को 
आँखों से निकल जाने दे.

ना टूट जाना कहीं,
ना बिखरना कभी..
तू टूटा तो ये चमन उजड़ जायेंगे 
बिछड़ जायेंगी पत्तियां पेड़ से...
फूल मुरझा जायेंगे..
फिर तू ही बता कि..
बागबान किसको कह पाएंगे..
आज की रात ये बस 
गुज़र जाने दे.

जमाने का क्या है 
रोज़ नए रंग हैं इसके 
मतलब तक ही सब 
बस बनते हैं अपने.

तू पीछे था इनके तो..
दुत्कारते थे तुझको 
आज है जरुरत तो..
पुकारते हैं तुझको 

कल तक जो इन राहों को 
तकते नहीं थे..
आज राहें जुदा हैं तो..
बिलबिलाते हैं दुखी हो .

जीने का हक़ मिले सब को
ये चाहते नहीं हैं.
कोई खुश क्यों है...
यूँ जलते बहुत हैं.

तू भी सब्र कर बस वक्त आने दे 
आज की ये रात गुजर जाने दे .


गुरुवार, 21 अप्रैल 2011

एक प्रार्थना ...















सुकून उतना ही देना खुदा जितने से जिंदगी चल जाए
औकात बस इतनी देना कि औरों  का भला हो जाए. 

दोस्ती बस इतनी हो कि दोस्त को मुस्कान मिल जाए
घर में अँधेरा इतना देना कि दूसरे का घर रोशन हो जाए 

रिश्तो में गहराई इतनी हो कि प्यार से निभ जाए  
प्यार हो तो इतना हो कि छूटे तो दिल ना टूट जाए.  

तन की चादर इतनी हो कि गैरों की नज़र ना चुभ पाए
आँखों में शर्म इतनी देना कि बुजुर्गों का मान रख पायें.  

साँसे पिंजर में इतनी हों कि बस नेक काम कर जाएँ  
बाकी उम्र ले लेना कि औरों पर बोझ न बन जाएँ !! 


रविवार, 10 अप्रैल 2011

मृग-तृष्णा

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मेरे जीवन के
ये कैसे मंथन हैं 
और इस गहरे मंथन में
कैसी प्यास..
और प्यार की तृष्णा है ....?

जिसे प्यार समझ
उसकी प्राप्ती में
दिशा शून्य हो रही  हूँ ,
जिसे जीवन का
वरदान समझे बैठी हूँ ...,
जिसकी तृप्ति को
मैं  आलोकिक  आनंद की
अनुभूति  माने बैठी हूँ ...
इस प्यास को  बुझाने में 
मेरे सारे प्रयत्न खो रहे  हैं .

कैसी मृग-तृष्णा  है ये 
इतनी भटकन के 
बाद भी 
जिन्दगी विश्राम नहीं चाहती ...
प्यार के अनंत सागर 
को पाने के लिए 
संघर्ष के  घने जंगलों में 
घुसने को तत्पर...
प्रयत्नशील .....
प्यार की ये तृष्णा 
बस एक मकड़ - जाल बन के 
रह गयी है.

प्यास  की इस मरुभूमी से 
गुज़रती  हुई मैं 
विचार शून्य हो
भटक  गयी हूँ .

और अंत में
मुझ थकी हुई को
प्रेम की  उद्विग्नता 
और अतृप्ति के अलावा
कुछ नही मिल पाता.




  

बुधवार, 6 अप्रैल 2011

फितरत

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घर  के आंगन को

रोशन कर दिया है  
असीम प्रकाश से
मन के आंगन में
पसरा अंधेरा मगर
सिमटता ही नही है .

हालात की कंटीली झाड़ियाँ 
छेदे जाती हैं वज़ूद को 
रिस रिस कर भी लहू 
जिस्म सांसे छोडता नही है  .

बहुत कोलाहल है  
जिंदगी के इर्द-गिर्द 
तन्हाइयों  का तूफ़ान 
मगर  भीतर का 
सिमटता ही नही है .

शिकवे लाखों  किये,
अश्क बहाये बहुत,
पुकारा किया मेरी सदाओं  ने,
सजदे किये तेरी राहों  में,
तूने मगर ना आना था,
और तू आया भी नही है .

बंद कर दिये हैं रोशनदान 
हर उम्मीद के ...
तेरे आने की उम्मीद 
फिर क्यूँ  रुकती नही है ?

मजबूरियों  की आढ में 
दगा दिया है  तूने मुझे
तुझे निकाल, जिगर से बाहर करूँ 
ये भी तो मुझसे होता नही है.

चाहत है कि मैं  भी 
तुझसे दगा करू, 
उफ्फ, 'तन्हा' की ये भी तो
फितरत नही है .