सोमवार, 29 जून 2015

माँ

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 छोटे थे तो
माँ के आँचल में
सिमटे रहते थे हम

ऑफिस जाती थी तो
पल पल घडी के कांटो को
निहारा करते थे हम
आके सीने से लगा लोगी माँ
उसी पल की चाहत में
उदास होते थे हम.

जवानी मस्तानी आई
हम मद मस्त होने लगे
आजादी की चाह लिए
दोस्तों में वक्त देने लगे.
हम बदल गए,
माँ बदली नहीं,
ऑफिस से लौट 
इंतज़ार करती रही 
पूछना, टोकना भी
कहाँ  भाता था माँ .
बेरुखी से कहना
क्यों बार बार पूछती हो माँ,
सोचते थे कि रात आये नहीं
दोस्तों से बिछड़ कर न जाएँ कहीं
ये आजादी यूँ ही चलती रहे
पापा घर बुलाने की जिद न करें।
आज माँ तुमसे दूर हूँ
नौकरशाही में माँ मजबूर हूँ ,
आज न तुम्हारी रोक टोक है
दिन रात दोस्त ही दोस्त हैं
आजादी भी माँ भरपूर है
घर भी है माँ
साजो-सामान भी है
पर माँ तू नहीं है
न तेरी आवाज़ है
इंतज़ार करती
वो तेरी न आँख है.

आज कोई कहने वाला नहीं
बेटा, तू कब आएगा,
कोई  पूछता नहीं  कि
बेटा, तू क्या खायेगा।
मैं भूखा रहूँ या
बीमार रहूँ
माथा चूम ले
गोद में भर के मुझे
मेरा दुख छीन ले
दूर तक भी कहीं
माँ वो तेरा साया नहीं .
आज तडफता हूँ
माँ तेरे साथ को
आज रोता हूँ
माँ मैं तेरे प्यार को
चंद पैसों की खातिर
माँ तुझसे दूर हूँ
आजादी है महंगी
माँ बहुत मजबूर हूँ !!
 

शनिवार, 14 मार्च 2015

आखिर तो इंसान हूँ ....

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दिल में चुभन हुई
तो मैं हंसने लगा
मानो  हंस के
चुभन को भुलाने चला ..

चुभन जख्म करने लगी
तो मैं खामोशी से
लब  सी गया
क्यूंकि आंसू दिखाने से
डरता रहा ..

रक्त रंजित किया ..
जख्मों ने छलनी किया
अश्क रुक न सके
आँख छलक ही गयी 

आखिर तो हाड-मांस का
पुतला हूँ मैं.
भावों के स्पंदन से
जलता बुझता हूँ मैं  !!

गुरुवार, 19 फ़रवरी 2015

एकाकीपन.......

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एकाकीपन के 
झंझावतों से 
स्वयं को मुक्त करने,
अंतस की खलिश 
को कम करने हेतु 
बड़ी बहिन समान
भाभी, माँ सी छाया
देने वाली सासु माँ
मन को अलोलित करने वाले
मासूम बच्चो से ,
और उन बाकी रिश्तों …
जो इस तिश्नगी पर
फोहे बनने को काफी थे ……
उस सब से मिल तो ली थी
मगर उफ्फ ये
दिल की आग से
तपा आँखों का पानी,
कुछ अनचाही तल्खियाँ,
और जिद्दी मनहूसियत
मेरे वजूद को काबिज किये रहे
और ये रूह जो
सिर्फ और सिर्फ
तेरे आगोश की, तेरे साथ की,
तेरे जज्बातों की, स्पर्श की
तपिश पाने के लिए
तड़फती ही  रही .....!!



शनिवार, 24 जनवरी 2015

ए दोस्त ........





मेरे वक्तव्य को 
अन्यथा न लेना दोस्त 
मेरी फितरत है 
जिसके लिए जैसा भाव है 
उसे उसका सौंप दूँ  
बिना लाग -लपेट के
कह देना मेरी आदत है। 


नहीं, दोषारोपित नहीं कर रही 
यह कह कर तुम्हे कि 
अधूरापन है दोस्त 
तुम्हारी मित्रता में।  

समय की, समाज की 
असह्य बेड़ियां हैं 
हमारे लिए दोस्त 
इसलिए विचलित मन 
बार बार तुमसे ही 
उलझ जाता है  !

बहुत कुछ बांटना चाहती हूँ 
तुम्हारे साथ ,
परन्तु हमारी  व्यस्तताये  
इस मैत्री को 
अल्पायु किये देने पर 
आमादा हैं !

अस्त -व्यस्त होते हुए 
मेरे यही मनोभाव 
व्याकुल किये रखते हैं मुझे  
और मैं स्वयं को 
हर संभव प्रयास करते हुए भी 
असमर्थ महसूस करती हूँ !!