Saturday 13 September 2014

ये कैसी परिणति




नाज़ों से पाला 
दर्दों को झेला
देह को कटते
खुली आँखों से देखा
तब तुझे पाया था !

खून से लथपथ
अचेत, अधमरी सी
निर्बल सी काया को
अपने आगोश में
समेटा था
तब तेरी साँसों को
सम्बल मिल पाया था !

अपने पयोधरों से
तेरा रोम रोम सींचते
रातें आखों में काटते
तेरे लिए दुआएं मांगते
तेरे काँटों को चुनते 
तेरी इस माँ ने
तेरी ही खुशियों के लिए
रब की हर चौखट को
टेरा था !

लेकिन तूने
नव-यौवना बनते ही
घात-प्रतिघात कर
विश्वास की ड्योढ़ी को
तिरस्कृत कर
ममत्व का
निर्ममता से
प्रतिदान करते हुए
तनिक भी विचारा नहीं 

और 

अनजान युवान की मलिन,
लिस-लिसी, अशुचि पूर्ण
मिथ्या बातों में आ
देह की श्वेत चुनर को 
तार तार कर,जश्न मना
स्वयं तो उच्छिष्ट (अपवित्र) कर
अपनी ही धरती को
बंजर बना डाला !

आह ! ममता को सुवासित करने
की ये कैसी परिणति
कि  तेरी जननी
अपने ही अनुताप में
सुलगती, आज स्वयं के
अग्निस्नान को बाध्य है !!



Friday 1 August 2014

चाँद पिघल रहा है

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चाँद की तासीर 
ठंडक लिए होती है 
तो क्यों आज 
पिघल रहे हो 
चाँद तुम … ?

जानती हूँ 
इस पिघलन में 
कितनी व्याकुलता है 
कितनी अपने ही टुकड़ो में 
टूटने की विवशता है     

कितनी वेदना को 
आत्मसात किया  होगा 
चाँद तुमने 
तब कहीं जा कर 
पिघलने पर 
मजबूर हुए होंगे. 

देखती हूँ 
तुमसे ही अवभासित  
तुम्हारी आँखों के तारे 
तुम्हारे ये तारे 
इतरा रहे हैं  
अपने रूप पर 

तुमसे अस्तित्व पाकर 
तुम में ही दाग दिखाते हैं  
तुम पर प्रहार कर  
तुमसे अपृक्त (विलग ) हो 
तुम्हे ही नगन्य बताते हैं  !!

आज के युग के ये तारे 
पूर्वाग्रहों में डूबे 
छद्य समाज से परिष्कृत 
कठुराघात करते 
टमकाते, मटकाते  
ओ चाँद, 
तुझे ही 
खंड खंड करते 
तेरी शीतलता को 
उच्छिन्न कर तुझे 

गर्माते ही जाते हैं !!



Saturday 12 July 2014

वक्ते - नाजुक के दौर में है चमन ....














गिले -शिकवे करने आते बहुत 
कर्मठ बनना किसी को गवारा नहीं 
सुधार हो देश का, सबकी मंशा यही 
व्यवस्था सुधारें किसी में ये दम तो नहीं 

स्वार्थ सिद्दी को जेबें गरम करते बहुत 
बाबू बन जेब से हाथ बाहर आते नहीं 
पंच दिवसीय दफ्तर जाना भला सा लगे 
हाय ! ओफ़िस कार्यकाल बढे न कहीं !!

दूसरों  पर  ऊँगली उठाना आसान 
अपना गिरेबान तो कोई झांके सही 
रोना भ्रष्टाचार का दिन रात रोते रहें 
नैतिकता पे चल कोई उद्योग करते नही  !!

ललचौहो की सत्ता के  गुण है बड़े 
दादागिरी से श्वेत सब काला करें 
नंग नेता, अधिकारी से कोई लड़ता नहीं  
असहाय जनता नारे बाजी करती नहीं !!

हाय हाय का रुदन मत करो  
धीर धर, इस घडी को संयम रखो  
बेसब्री की सुरा में न मतवाले बनो 
नयी नीतियां गतिशील होने तो दो !!

वक्ते - नाजुक के दौर में है चमन 
साथी मुल्कों से उठती हैं लपटें बड़ी 
खरे,श्रमि  नेता भी कम है बहुत 
इनको भी आजमाइश करने तो दो !!

Friday 20 June 2014

ओ वसुषेण (कर्ण )


बहुत दिनों से महाभारत टी. वी. पर दिखाई जा रही है।  आज तक जितना कर्ण को जाना था, श्रद्धा में नत-मस्तक हुई थी, लेकिन उस दिन जब द्रुपद कन्या का चीर - हरण दिखाते हैं तो कुछ संवाद कर्ण ने जो द्रौपदी के लिए कहे, असहनीय थे।  तब से अंतस में कर्ण के प्रति कुपित मन भावों को  शब्दों में ढालने को कुलबुला रहा था ,  आदरणीय प्रतिभा सक्सेना जी के बार बार प्रेरित करने पर आज मैं यह लिख पायी हूँ जो आपके लिए प्रस्तुत है  … 

ओ वसुषेण (कर्ण )

क्यूँ सदा जन्म  पालन की हीनता में रहे 
क्या न विश्वास था खुद के शौर्य पर 
धर्म का ढोल पीट सदा अधर्मियों के साथी बने 
क्या यही था पौरुष कि हीनता शमित न कर सके !!

पौरुष प्रखर होता जो लाज कृष्णा की बचाते 
उल्टे स्वयं ही कटु स्वर प्रताड़ना के उच्च किये 
वेश्या, कुलच्छिनी, कृष्ण की भार्या सी 
न जाने क्या क्या कह विष उड़ेलते गये !!

टेरती हारी थी जब वो कुलीना,
तब साथ तुमने मित्रता की ओट में कौरवों का दिया 
पाषाण हृदय लिए कहो कैसे उस माँ का सामना किया 
पूरा जीवन जिस बेल को सींचा किया, लज्जित किया !!

हे अभागे वसुषेण क्यों तुम इतने पूर्वाग्रहों में घिरे 
लजा दिया पौरुष भी अपना, गरिमा को कलंकित किया 
संतप्त मन, विषमताओं में जीते रहे सदा 
मित्र धर्म की आड़ में क्या पद लोलुप रहे ?

मान पाकर भी अमान्य हो गए 
कवच कुण्डल देकर भी रीते हो गए 
विभ्रमताओं के कंटक में चिर व्याकुल रहे 
जान कर भी अधर्म में जो गिरे, उसे क्या कहें !!


Wednesday 4 June 2014

दूर्वा..

आज दुर्वा को नींद नही रही है...रात का तीसरा पहर भी ख़तम हो चला है...नींद जाने आज कितनी कोसो दूर चली गई है ..बीते हुई सुबह के एक बजे से रात के नौ बजे तक के सारे पल चल-चित्र की भाँती उसके हृदय-पटल पर -जा रहे है ॥!!

दो दिन से दुर्वा को बुखार  है..लेकिन स्त्री और धरती के लिए इस सृष्टि में आराम कहाँ??? हर पल कर्म किए जा...और फल की इच्छा रखना तो दूर..बस सहे जा, सहे जा..जो जैसा फल दे..यही विडंबना है और यही समानता है स्त्री और धरती में ....,

आज सुबह दुर्वा के बेटे का रिजल्ट निकलना था..उसके पतिदेव ने इसी लिए आज छुट्टी ली थी ..फिर भी उसे  ऑफिस से छुट्टी लेनी पड़ी थी क्यों कि  ऐसा तो हो ही सकता कि  कोई काम अकेले ही कर लिए जाए..सुबह की आपा-धापी,  के बाद स्कूल पहुचे, क्युकी उसके बाद दुर्वा को आधे दिन के लिए ऑफिस भी जाना था..भगवान् का शुक्र है कि बेटा पास हो गया था.., जल्दी जल्दी में बुक्स लेने गए तो कही रास्ते में दुर्वा का चश्मा गिर गया..परेशान हो गई दुर्वा कि क्या करे ऑफिस में काम कैसे करेगी? ..पति देव भी शुरू हो गए अपने व्यंगय बाणों से बींधने ( जाने इन पतियों को देव की उपाधि क्यों और कब दे दी गई) छोटी सी बात का बतंगड़ बन चुका था.. गलती हो गई कि चश्मा गिर गया..लेकिन कोई जान-बुझ कर तो नही करता...आख़िर .गुस्से में पैर पटकती दुर्वा भी ऑफिस चुकी थी..शाम का वक्त भी गया..जैसी कि  उम्मीद थी दुबारा चश्मा मुद्दा बन गया..और रोते-पीटते रात भी गई...काम खत्म करते करते थक चुकी थीदुर्वा

परन्तु पुरूष कितना खुदगर्ज़ होता है ...उसे सिर्फ़ अपना स्वार्थ, अपनी इच्छाए पुरी करनी होती है.. आज की दौड़ - भाग से थकी दुर्वा सारे दिन बातें सुन सुन कर मन भी उदास था ..ऑफिस में भी ठीक से काम कर पाने के कारण डांट पड़ी थी पर इन सब बातों का उसके पति को क्या लेना - देना? पतिदेव की शारीरिक भूख शांत कराने के लिए भोजन के रूप में परोसो ख़ुद को...ये रात भी उसी रात में से एक थी..कुंठित मन, असहाए बदन, निढाल सी वो कर्त्तव्य पुरा कर रही है..पत्नी धरम निभा रही है.....दुर्वा अपने आप को समेटने का भरसक प्रयास कर रही है...ऐसा लगता है जैसे एक बार फ़िर उसके मन रूपी कांच की किर्चने टूट -टूट क पूरे कमरे में बिखर गई हो....अश्रु भरी आँखों से, लहुलुहान दिल से और असीम वेदना से भरी जज़्बात रुपी उंगलियो से वो ख़ुद को सहेजने के लिए,,,समेटने के लिए तमाम रात प्रयास-रत रही...और रात के चौथे पहर की  पौ भी फ़ुट गई..फ़िर वही रोज़-मर्रा कि दौड़-भाग वाली जिंदगी की शुरुआत...आह दुर्वा सोच रही है..किसने रख दिया उसका नाम दुर्वा..कभी पढ़ा था उसने दुर्वा एक घास होती है..जो हर पल पैरो से रौंदी जाती है..और उसकी आह सुनने वाला, उसके दुःख को जानने वाला कोई नही होता... आह ...दुर्वा.... पराधीन सपने हूँ ...सुख नाही..वाली कहावत चरितार्थ करती हुई...!!