आज अंतस के भीतर
कहीं गहरे में
झाँक कर देखती हूँ
और फिर
उस लौ तक पहुँचती हूँ
जो निरंतर जल रही है,
मुस्करा रही है,
अठखेलियाँ कर रही है ...
जीवन-पर्यंत मिलने वाले
क्षोभ में भी .
सोचती हूँ आज
विस्मित सी
कि क्या ये
कर्मवाद का बल है ?
जो मैं मारी मारी फिरती हूँ
और ठोकरें खा कर भी
इश्वर के क्रोध को,
न्याय को
आँचल पसार
अपने में
जब्त कर लेती हूँ.
मैं अपने कर्मफल को
सह कर भी
फिर से..
वज्र के सामान
सबल और कठोर हो जाती हूँ.
और करबद्ध हो
यही कहती हूँ
कि ....हे प्रभु,
यदि तेरी इच्छा
सम्पूर्ण हो गयी हो,
यदि इस पिंजर में
अपने प्रतीक रुप को
रखने की दंडावधि
पूर्ण हो चुकी हो..
तो..
प्रभु एक बार
मुस्करा दो
कि ....तुमने
मुझे उत्पन्न कर के
अपना उद्देश्य पूरा किया.