इन उदास चिलमनों में
तूफ़ान गुजरने के बाद के
उजड़े शहर की बर्बाद इमारतें हैं.
इन उदास चिलमनों में
बाढ़ के बाद बचे चिथड़ों के नज़ारों से
उठती दर्दनाक सीलन है.
वो नज़ारे जो कभी हीर- रांझा के
वो किस्से जो शीरी-फ़रहाद के थे,
वो सब दफ़न हैं इन उदास आँखों में.
कभी चमक उठती हैं ये आँखे
उन खाबों की दुनियां में डूबकर
तो कभी बरसता है सावन भादो
इन गहरी पलकों की कुंजों से.
गुमां होता है कभी यूँ कि
देता है सदायें वो फ़कीर कहीं दूर से
कभी सहमीं सी देखती हैं ये पनीली आँखे
डोली में सिमटी दुल्हन के घूंघट से.
रफ्ता रफ्ता फांसले बढ़ते हैं
ज्यों रेगिस्तान के वीराने की तरह
और भर जाता है मन
इस चिलमन की उदास नमीं से .