गहन प्रेम ही तो किया था प्रिय
क्या इसमें भी तुम्हारी
शंकाएं सिर उठाती हैं ?
यह केवल आसक्ति नहीं थी प्रिय !
इसमें दोषी शायद मेरे
कृत्य ही हैं कहीं न कहीं.
अपेक्षाओं से भरी
बदली लिए
उमड़-घुमड़, बस
बरस गयी तुम पर
बिना जाने कि ये
गहन प्रेम तुम्हें भी
मुझसे है या नहीं ...
एक पल को भी
तुम्हारी इच्छा का
प्रस्फुटन तक
होने नहीं दिया मैंने.
आज सोचती हूँ...
कितनी निर्ममता से
मांग की थी
मैंने अपने नेह के
प्रतिदान की ...
उचित ही तो है फिर
तुम्हारा मेरे प्यार पर
शंका करना औ दुत्कारना .
सच है फिर....
तुम्हारा मेरे प्रति
उदासीन होना और
मेरे प्यार को
तथाकथित प्रेम
कह देना..... !!