Monday 30 November 2009

प्रयाण...


दीपक मंद हो चला है
टिमटिमाना धीमा हो गया है
आयु का जल भी सूख चला है
लौ की उपर उठने की शक्ति क्षीण है
आंखो की ज्योति , शरीर की शक्ति ,
मस्तिष्क की विस्मृति , शमशान सा मौन,
विकृति की नीरस शांति
प्रयाण के लिये
सब साजो - सामान जुटा चुकी है !

खांसी, दम घुटन, अव्यवो का दर्द,
स्वासों का तोड,
चंचल मन की अवरुद्ध गति...
ये सब सामान छूट चुका है !

अब आगे की सुदूर मंजिल का
भान करना है !

जाने की तैयारी है,
रुकना भी कौन चाहता है....
किंतु आगे की सवारी का
प्रबंध नही है,
यह अनंत, असीम यात्रा
बिन पाथेय कैसे संभव हो ?

मै स्वयं बड़ी जल्दी में हू..
इस घर का सामान फरोख्त हो चुका है !

अब दो सीढियां अवशेष है..
परंतु दृष्टी - अगोचर हैं !

किस ओर प्रस्थान करूँ ?
असीम अंधेरा हैं ..
यही विडंबना हैं !

Tuesday 17 November 2009

शून्य....











धूप छाँव  सी ये जिंदगी
जहा छाँव  भी
पळ भर को आती है ..
और फिसल जाती है,
जबकी धूप का एहसास
जला देता है
आत्मा की  नाज़ुक
रगों  को भी .

मैं अथक प्रयास करती हूँ
खुद को धूप में जला कर
जलता हुआ अंगारा बन जाऊं
और अंगारा बन
भस्म हो जाऊं
एक दिन...
हमेशा हमेशा के लिये .

मगर कभी कभी
घोर निराशा भी
एक रस-हीन शांती से
भर देती है जिंदगी को,
और दुख का कष्ट
महसूस भी नही होता...
जब खतम हो जाता है ..
सुख की उम्मीदों  का साथ .

तब शांत हो जाता है
अंगारो से जलता वज़ूद,
और पसर जाता है
चहुँ ओर एक
असीम शून्य !!

Sunday 8 November 2009

तुम ना समझ पाओगे,

घाव बहुत गहरे है
तुम ना समझ पाओगे,
हंसी में ही मेरी
तुम भ्रमित हो जाओगे..!

ऊपर ऊपर ही रहो..
गहराई में ना उतरो जानम,
सोचो ना कुछ भी
इन होठो पे हंसी यू ही पाओगे..!

रेला है अश्को का..
उमड़ा तो डूब जाओगे,
फिर कह दोगे बंदिशे इनको..
और खुद को फंसा पाओगे..!

छोडो ना, रहने भी दो
आँखों से ना एक्सरे करो मेरा
जख्मो की सूरत ना देखा करो
वर्ना डर जाओगे..!

भाव - भ्रमित रहने दो खुद को..
और शब्दों पे ना जाया करो
अर्थ ढूँढने निकलोगे तो
खुद से ही ना जीत पाओगे..!

घाव बहुत गहरे है
तुम ना समझ पाओगे,