Wednesday 20 October 2010

परिणति



गोधूली की बेला में
सुख दुख के पलड़े में
कलुषित विचारों का
गुरुत्व देख रही हूँ मैं.

क्या किया रे मन तूने  ...
सदा अपनी उम्मीदों
की पूर्णता के लिए
तटस्थ रहा,
प्रलाप करता रहा
अपनी खुशी पाने के लिए.
लेकिन कभी विचारा
कि क्या बोया था तूने ?

दर्द, आंसू, रुसवाई,
जिल्लत, अविश्वास
और उपालंभ ....!

तो ....

कैसे पा सकता था
अपनी उम्मीदों
की लहलहाती फसल ?

ता-उम्र की कमाई
शोहरत को
छीन लिया तूने,
लूट लिया
सिर उठा कर
चलने की
फितरत को भी .
अपनों का वक़्त चुरा
हर सों जिसने
तुझे खुशियाँ देनी चाहि
तूने क्या दिया उन्हें ?

सिर्फ और सिर्फ
वितृष्णा, जफा,
बे-एतबारी के
अल्फाजों के पत्थर ...!

सजाया अपनी
मुहोब्बत को भी
तोहमतों के
गुलदस्ते से,
अम्बार लगाए
मलिन भावों के .

आह !
कितना अधम
हो गया रे मन
आज अपनी ही
नज़रों में.

सात जन्मों के लिए भी
तेरा कृत्य
क्षम्य नहीं है.

यही तेरा दंड है
कि चिरकाल तक
तू इसी दुर्दम वेदना से
लथ - पथ रहे .
अपनी ही क्षुद्र
सोचों के
कटु आघातों
से पल - पल मरे .

तू नहीं है
किसी के
प्यार के काबिल
यही तेरी परिणति है .

Friday 15 October 2010

रिश्ते और मजबूरियाँ



















मन  अक्सर यूँ  सोचा करता है
पिछले जन्मों का कोई रिश्ता है  
तुम संग जो गहरी प्रीत बढ़ी 
रूह से रूह का  कोई नाता है 

बिन कहे ही दिल को आभास हुआ 
जब रूह को कोई भी टीस हुई 
फिर ना जाने क्यों मन टूटा 
क्यों प्रीत में गहरी सेंध लगी.

पहले पहरों - पहरों की बातें 
घंटों में सिमटनी शुरू हुई 
आड़े आ गयी मजबूरियाँ सारी 
दीवारें खिंच खिंच बढती गयी .

धीरे से समझाया मन को मैंने 
कि ऐसा भी कभी होता है 
साथी हो मजबूर बहुत तो 
अरमानों को रोना होता है .

दबे पाँव फांसले आये 
कई रूपों में दमन किया 
अश्क प्रवाह बढते गए 
कड़वाहटों ने फिर जन्म लिया.

विचारों के नश्तर यूं टकराए 
जुबा के उच्चारण बदलने लगे 
मन ने मन की नहीं सुनी 
सुख - दुख भी अनजाने हुए .

इक दूजे को आंसू दे 
दिल के जख्म सुखाने चले 
मरहम जो देने थे आपस में 
मवादों के ढेर जमाने लगे .

विकारों की ऐसी आंधी आई 
भाव शून्य दिल होने लगा  
आह ! कितने हम बदल गए 
अश्कों से भी ना मैल धुला .

हर गम को नौटंकी समझे 
रूह की बातें कहाँ रही 
इतना प्यार गहराया देखो 
रूह के रिश्ते चटक गए .

बस एक आखरी अरज है मेरी  
एक करम और कर डालो 
अंतिम बंधन जो शब्दों का है  
विवशता की उस पर भी शिला धरो .

चाहत अपनी कर दो ज़ाहिर 
अब कोई रिश्ता न शेष रहे 
यादों की गंगा -यमुना में 
ना इस रिश्ते का कोई अवशेष रहे  


Friday 8 October 2010

अडिग खामोशियाँ















तुम्हारी खामोशियों के साथ 
मेरी कुछ चाहतें पड़ी हैं 
जो अपलक प्रतीक्षारत हैं 
खामोशियों की सरसराहट सुनने को .

आगोश में दृगांचल   के 
दो बूँदें भी छुपी हैं 
कि कब तुम खुद से बाहर आओ 
और ये आज़ाद हो 
तुम्हारे मन के पैरहन पर आ गिरें .

जब भी यादों के घने कोहरों 
से झाँक कर देखा है तुम्हें  
सदा प्रेम पुष्प बरसाते हुए 
आँखों में प्यार का 
सागर भरे पाया है.


किन्तु आज ...


आज तुम मौन,
विरक्ति भाव लिए हुए 
अनजान पथ के 
पथिक बन 
मेरी सदाओं से 
अनभिज्ञ ,
मेरी कोशिशों की 
समिधा को 
होम किये जा रहे हो 
आज तुमने अविश्वास के 
हवन में हमारे रिश्ते को 
जला दिया है .

कच्चे धागों में 
जो गहरी भावनाएँ 
बहुत कसावट से 
गूंथी थी ....
एक- एक बल को 
खोल डाला है तुमने 
विकारों की तपिश से.


आज ये खामोशियाँ 
इतनी अडिग  हो गयी हैं 
जो रिश्तों के हवन की 
प्रज्ज्वलित अग्नि 
में स्वाहा होते, 
ढहते अरमानों का 
हा-हा-कार सुन कर भी 
कोई प्रतिक्रिया नहीं करती.

आज भी चाहतें मेरी 
कराह रही हैं 
और 
प्रतीक्षारत हैं कि  
कब तुम्हारी खामोशियाँ 
टूट कर बिखरें 
और थाम लें हाथ 
इन सदाओं का.

Friday 1 October 2010

गरीब विधवा













जानते हैं 
सरहद होती नहीं 
कोई ईमान की..
ये भी सच है कि
हद होती नहीं
कोई फ़र्ज़ की .

तब क्या करे
वो गरीब विधवा 
जो निस्सहाय 
और निरीह हो ?

क्या करे वो 
जब छोटे बच्चों की 
जिंदगी की
सूत्रधार हो ?

इस दुनियां के 
मकड़जाल में,
जब रूप की धूप
तन पे हो 
और इंसानी 
भूखी आँखों का 
ना कोई 
दीन ईमान हो.

कैसी कठिन डगर है उसकी 
जिसका ना 
सरमायेदार हो ?
चल दिया जो छोड़ 
उसे जूतों में लगी 
धूल सा,
चल दिया जो 
पोंछ कर 
कुर्बानियां उसकी 
काँटों के पापोश पर.

क्या करे वो जब 
आत्मा से बड़े 
पेट का संताप हो ?

तब न क्या  
रात के अंधेरों में 
चिल्लर सी 
खर्च हो जायेगी वो ?

या जिंदगी की 
शतरंज  पर 
हर मोहरे  से 
पिट जायेगी वो ?

हाय कैसी ये दुर्गति,
ये कैसा अभिशाप है 
हाय रे विधवा 
गरीबी ही तेरा 
श्राप है ...!!