रश्मि प्रभा जी के आह्वान पर इस रचना को रचा गया------और गणतंत्र दिवस पर उनके ब्लॉग परिचर्चा पर इसे शोभा पाने का अवसर मिला---लीजिये आपके विचारों हेतु प्रस्तुत है ---
हाँ मैं नारी हूँ--
जिस पैदाइश पर मुंह बिसूरा गया
फिर कंजक बना बेशक पूजा गया
लिख दिए कुछ शब्द मेरी सलेट पर कि --
ढका, नपा -तुला, दबा रहना सिखाया गया
हाँ वही संस्कारों में दबी नारी हूँ मैं।
चुभती नज़रें बदन पर सरकती रही
अफ़सोस शर्म से खुद की ही नजर झुकती रही
पढ़-लिख के नवाबी सनदें छुपा दी गयी
चूल्हे-चौके की मजहबी सरहदें बना दी गयी --
हाँ वही अपनों में मिटती नारी हूँ मैं।
बूँद-बूँद रिश्तों को बचाती रही
आजन्म सौगाती रिश्तों में संवरती रही
हादसों से खंडर में तब्दील होती गयी
बर्दाश्त की हदें भी मुझी को दिखाई गयी --
हाँ वही टुकड़ों में बिखरी नारी हूँ मैं।
कभी उम्र तो कभी जिन्दगी को जलाया गया
जख्म देकर नासूरों को छीला गया
धिक्कार कर सारे अधिकार हनन कर दिए
चोटों को सहलाती, मर्माती, रंभाती
हाँ वही दर्द की परछाई नारी हूँ मैं।
मुझ पर ईमान खोता, मेरे पहलु में रोता
मुझसे ही जन्मा, मुझी में विलीन होगा
ओ अधूरे पुरुष मुझसे ही तू सम्पूर्ण होगा
मैं ही हूँ दुर्गा, मैं ही भवानी,
हाँ वही सम्पूर्ण नारी हूँ मैं।
मैं चाहूँ तो क्षण में तुझे रौंद दूं
अपने ही जख्मों से तुझे तोल दूँ
मगर अम्बा से पहले जगदम्बा हूँ मैं
दुर्गा से पहले गौरा हूँ मैं
तेरी तरह अधूरी नहीं,सम्पूर्ण नारी हूँ मैं।
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