बहुत दिनों से महाभारत टी. वी. पर दिखाई जा रही है। आज तक जितना कर्ण को जाना था, श्रद्धा में नत-मस्तक हुई थी, लेकिन उस दिन जब द्रुपद कन्या का चीर - हरण दिखाते हैं तो कुछ संवाद कर्ण ने जो द्रौपदी के लिए कहे, असहनीय थे। तब से अंतस में कर्ण के प्रति कुपित मन भावों को शब्दों में ढालने को कुलबुला रहा था , आदरणीय प्रतिभा सक्सेना जी के बार बार प्रेरित करने पर आज मैं यह लिख पायी हूँ जो आपके लिए प्रस्तुत है …
ओ वसुषेण (कर्ण )
क्यूँ सदा जन्म ओ पालन की हीनता में रहे
क्या न विश्वास था खुद के शौर्य पर
धर्म का ढोल पीट सदा अधर्मियों के साथी बने
क्या यही था पौरुष कि हीनता शमित न कर सके !!
पौरुष प्रखर होता जो लाज कृष्णा की बचाते
उल्टे स्वयं ही कटु स्वर प्रताड़ना के उच्च किये
वेश्या, कुलच्छिनी, कृष्ण की भार्या सी
न जाने क्या क्या कह विष उड़ेलते गये !!
टेरती हारी थी जब वो कुलीना,
तब साथ तुमने मित्रता की ओट में कौरवों का दिया
पाषाण हृदय लिए कहो कैसे उस माँ का सामना किया
पूरा जीवन जिस बेल को सींचा किया, लज्जित किया !!
हे अभागे वसुषेण क्यों तुम इतने पूर्वाग्रहों में घिरे
लजा दिया पौरुष भी अपना, गरिमा को कलंकित किया
संतप्त मन, विषमताओं में जीते रहे सदा
मित्र धर्म की आड़ में क्या पद लोलुप रहे ?
मान पाकर भी अमान्य हो गए
कवच कुण्डल देकर भी रीते हो गए
विभ्रमताओं के कंटक में चिर व्याकुल रहे
जान कर भी अधर्म में जो गिरे, उसे क्या कहें !!