जन्म से ही
अकेलेपन से बचता इंसान
रिश्तो में पड़ता है.
बंधनों में जकड़ता है.
कुछ रिश्ते धरोहर से मिलते
कुछ को अपनी ख़ुशी के लिए
खुद बनाता है
कुछ दोस्त बनाता है
उम्मीदें बढाता है
कि वो अपनत्व पा सके
अकेलेपन से पीछा छुड़ा सके.
लेकिन जब उम्मीदें
टूटती हैं
शिकायतों का
व्यापार चलता है
फिर द्वेष घर बनाता है
हर रिश्ता चरमराता है
दुख और पीड़ा से
इंसान छटपटाता है.
तब एक वक़्त ऐसा आता है
हर जिरह से इन्सान हार जाता है.
संवाद मौन धारण कर
गुत्थियों को उलझाता है
बंधन मुक्त हो इंसान
अकेला पन चाहता है.
विरक्ति की ओर अग्रसर हो
शून्य में चला जाता है
तब .....
तब न तेरी न मेरी
सब ओर फैली हो
मानो शांत, श्वेत
धवल चांदनी सी
बस ...
बस वही पल
जो शीतलता दे जाता है
वही जीना साकार
हो जाता है
अंत में तो
इंसान अकेला ही रह जाता है
कोई दोस्त, कोई साथी
काम न आता है.
फिर क्यों न अकेलेपन को ही
अपनाता है