रविवार, 30 मई 2010

जा उद्धो जा... मत कर जिरह..













हे उद्धो ...
मत जिरह करो
उस छलिया की
जिसने भ्रमर रूप रख
हम संग प्रीत बढ़ाई
और अब हमारी
हर रात पर
पत्थर फैंक कर
जाता है ...

मन को जख्मी
करता है ..
हमारे अंतस पर
उसी का पहरा है.

द्रगांचल पर
जाले बुन दिए हैं ..
अपनी लीलाओं के उसने. .

हमारे वजूद की
अट्टालिका से
वो हठी
उतरता ही नहीं.

हे उद्धो ...
क्या बिगाड़ा था हमनें
जो हमारे निश्छल मन को
ठग के ..
वो अब उपहास उड़ाता है .

हमारे गोकुल कुञ्ज को छोड़
वो नटवर
द्वारकाधीश
बना फिरता है...

मुंह में चाशनी रख
लच्छेदार बातों से
औरों का मन मोहता है .

अपने प्यार की
छाँव देता है
गैरों को..
अपने ह्रदय कोष में
बिठा..
सिर-आँखों पे रखता है...
कितने ही अभिनन्दन
और मनुहार करता है .

हमें तो आजतक
उसने अपने पास
बुलाया नहीं
गैरों को ..
निमंत्रण देता है.

हे उद्धो ..
कैसा है रे तेरा मोहना
चुरा के हमारा मन
हमीं को दर्द देता है .

तल्ख़ बातों के
कोड़े मारता है
और तुम्हें भेजता है
हमें समझाने को ..

अरे ओ उद्धव..
ये मन अब
हमारी नहीं सुनता

आज भी उस छलिया की
एक आवाज़ से
बावरा हो जाएगा .

जरा तो, वो
मिश्री से फाहे रखे रे ..
इसका भी कोई मोल लगे है ?

हम तो उसकी खातिर
बेमोल बिके रे उद्धव...!

जा उद्धो जा...
मत कर जिरह
हम तो दिल का..
बाज़ार लगाए बैठे हैं

बस एक बार
वो अपना रूप
दिखा दे..
हम उसके लिए
साँसों को अड़ाए बैठे हैं.


गुरुवार, 27 मई 2010

बस मेरे पास चले आना..

जब मेरी याद आये चले आना

जब बिन बादल बरसात हो

और रस्ता खोने लगे..

तो उदास मत होना

मेरे पास चले आना..


जब कोई जख्म रिसने लगे

दिल हा-हा कर करने लगे

तो रोकना मत खुद को

बस मेरे पास चले आना.


मायूसियाँ जब जकडने लगे

अशक जब आंखो से

बिन पूछे ही बरसने लगे

तो मेरे पास चले आना.


कोई अपना जब साथ छोडने लगे

कोई अपना ही दिल तोडने लगे

साँसे भी जब दम घोंटने लगे

तो रुकना मत...

मेरे पास चले आना.


तन्हा रात जब डराने लगे..

रूप आईने से नजरे चुराने लगे

अपनी ही आहट जब चौकाने लगे

कुछ मत सोचना..

बस मेरे पास चले आना..


सांसो की डोर टूटने से पहले

मेरे प्यार, मेरे जज्बात पर..

बस ऐतबार कर के..

रुकना मत, लौट आना..


शरमिंदा मत होना..

बीती बातो के एह्सासो से..

बस मेरे पास चले आना..


शुक्रवार, 21 मई 2010

अज्ज नू जी लो यारो, कल दा की पता..


















अज्ज नू जी लो यारो, कल दा की पता..
केस वेले कोई गम आ सतावे
एस गम दा की पता..
अज्ज नू जी लो यारो, कल दा की पता..


आज को जी लो यारो कल का क्या पता ....
किस वक्त कोई गम आ सताए...
इस गम का क्या पता...
आज को जी लो यारो कल का क्या पता.... !


जिन्दगी दे सफ़र वडे लम्बे होंदे ने
केस मोड़ दे केडा दर्द मिल जावे..
किसे दर्द दा की पता..
अज्ज नू जी लो यारो कल दा की पता .... !!


जिन्दगी का सफर बहुत लंबा होता है....
किस मोड़ पर कौन सा दर्द मिल जाए...
किसी दर्द का क्या पता...
आज को जी लो यारो कल का क्या पता .... !!



हंजुआ दी रात वडी भारी होंदी है ...
सवेर दी पौ निकलनी ओस वक्त वडी औखी होंदी है...
दिल नू ऐ वक्त तार - तार कर जाउन्दा है....
एस वक्त नू कढना वडा भारी होंदा है...!!


आसुओ की रात बड़ी भारी होती है ...
सुबह की पौ निकलनी उस वक्त बहुत भारी होती है...
दिल को ये वक्त तार - तार कर जाता है....
इस वक्त को निकालना बहुत भारी होता है...!!



थोडी जी खुशी मिल जावे ...ओनु गले लगा लो यारो ....
अज्ज नू जी लो यारो, कल दा की पता ....
कद्दो कोई कंडा चुभ जावे ....
रावां दे कंडयाँ दा की पता .... !!


थोडी सी खुशी मिल जाए ...उसे गले लगा लो यारो ....
आज को जी लो यारो, कल का क्या पता ....
कब कोई कांटा चुभ जाए....
राहो के कांटो का क्या पता .... !!



अज्ज नू जी लो यारो, कल दा की पता..
केस वेले कोई गम आ सतावे
एस गम दा की पता..
अज्ज नू जी लो यारो, कल दा की पता..


आज को जी लो यारो कल का क्या पता ....
किस वक्त कोन सा गम आ सताए...
इस गम का क्या पता...



सोमवार, 17 मई 2010

महिला ब्लॉगर्स का सन्देश जलजला जी के नाम

मुझे ख़ुशी हो रही है की बहुत सी हमारी ब्लॉगर मित्र इस राजनैतिक कृत्य की भत्सर्ना कर रही हैं. एक जगह ही तो ऐसी बचती है जहाँ हम अपने एहसासों को बांटते हैं. यहाँ हम छोटे बड़े का फर्क ना कर के निर्विघ्न, बिना लिंग भेद के सब के साथ भाई चारे से पेश आये...यहाँ भी अगर यही सब होगा तो इंसान खुद को कहीं आज़ाद महसूस नहीं कर पायेगा..इसलिए सब से सविनय निवेदन है की जो मेरी बात के समर्थक हैं वो इस कृत्य के विरोध में टिपण्णी अवश्य दे.


कोई मिस्टर जलजला एकाध दिन से स्वयम्भू चुनावाधिकारी बनकर.श्रेष्ठ महिला ब्लोगर के लिए, कुछ महिलाओं के नाम प्रस्तावित कर रहें हैं. (उनके द्वारा दिया गया शब्द, उच्चारित करना भी हमें स्वीकार्य नहीं है) पर ये मिस्टर जलजला एक बरसाती बुलबुला से ज्यादा कुछ नहीं हैं, पर हैं तो कोई छद्मनाम धारी ब्लोगर ही ,जिन्हें हम बताना चाहते हैं कि हम इस तरह के किसी चुनाव की सम्भावना से ही इनकार करते हैं.

ब्लॉग जगत में सबने इसलिए कदम रखा था कि न यहाँ किसी की स्वीकृति की जरूरत है और न प्रशंसा की. सब कुछ बड़े चैन से चल रहा था कि अचानक खतरे की घंटी बजी कि अब इसमें भी दीवारें खड़ी होने वाली हैं. जैसे प्रदेशों को बांटकर दो खण्ड किए जा रहें हैं, हम सबको श्रेष्ट और कमतर की श्रेणी में रखा जाने वाला है. यहाँ तो अनुभूति, संवेदनशीलता और अभिव्यक्ति से अपना घर सजाये हुए हैं . किसी का बहुत अच्छा लेकिन किसी का कम, फिर भी हमारा घर हैं न. अब तीसरा आकर कहे कि नहीं तुम नहीं वो श्रेष्ठ है तो यहाँ पूछा किसने है और निर्णय कौन मांग रहा है?
हम सब कल भी एक दूसरे के लिए सम्मान रखते थे और आज भी रखते हैं ..

अब ये गन्दी चुनाव की राजनीति ने भावों और विचारों पर भी डाका डालने की सोची है. हमसे पूछा भी नहीं और नामांकन भी हो गया. अरे प्रत्याशी के लिए हम तैयार हैं या नहीं, इस चुनाव में हमें भाग लेना भी या नहीं , इससे हम सहमत भी हैं या नहीं बस फरमान जारी हो गया. ब्लॉग अपने सम्प्रेषण का माध्यम है,इसमें कोई प्रतिस्पर्धा कैसी? अरे कहीं तो ऐसा होना चाहिए जहाँ कोई प्रतियोगिता न हो, जहाँ स्तरीय और सामान्य, बड़े और छोटों के बीच दीवार खड़ी न करें. इस लेखन और ब्लॉग को इस चुनावी राजनीति से दूर ही रहने दें तो बेहतर होगा. हम खुश हैं और हमारे जैसे बहुत से लोग अपने लेखन से खुश हैं, सभी तो महादेवी, महाश्वेता देवी, शिवानी और अमृता प्रीतम तो नहीं हो सकतीं . इसलिए सब अपने अपने जगह सम्मान के योग्य हैं. हमें किसी नेता या नेतृत्व की जरूरत नहीं है.
इस विषय पर किसी तरह की चर्चा ही निरर्थक है.फिर भी हम इन मिस्टर जलजला कुमार से जिनका असली नाम पता नहीं क्या है, निवेदन करते हैं कि हमारा अमूल्य समय नष्ट करने की कोशिश ना करें.आपकी तरह ना हमारा दिमाग खाली है जो,शैतान का घर बने,ना अथाह समय, जिसे हम इन फ़िज़ूल बातों में नष्ट करें...हमलोग रचनात्मक लेखन में संलग्न रहने के आदी हैं. अब आपकी इस तरह की टिप्पणी जहाँ भी देखी जाएगी..डिलीट कर दी जाएगी.

रविवार, 16 मई 2010

मुस्कान भी अब मेरी थकने लगी है......















मुस्कान भी अब मेरी
थकने लगी है
मजबूरियाँ जो इतनी
निष्ठुर हो चली हैं ..

अथक प्रयास कर के भी,
कोई उम्मीद जगती नही है..
कि तिनका-तिनका हो
चाहते बिखर सी गई हैं ..!!

मुस्कान भी अब मेरी
मुझ पर ही हसने लगी है ..!!

श्वासों की लय, जो
डर डर के चलती है..
कि जाने कौन से पल में
क़यामत छुपी है..

हर आहट में जैसे
तुफानो की सरगोशी है..
टूट गई अब के तो ..
संभलने की ताकत भी नही है..

मुस्कान भी अब मेरी
पथराने लगी है..!!

गहरी नींद से यूँ
हडबडा के उठ जाती हूँ,
काली रात में
अपने ही साए से डर जाती हूँ..

मन रूपी दीपक जलता है..
बिरहन सी तड़प लिए..
बेचैन साँसों के गुबार में
ज्यूँ तन्हाई पलती है..

थक चुकी है वो भी
अब मेरे आलिंगन में॥

कि आँख भी अब मेरी
डब-डबाने लगी है..
मुस्कान भी अब होठों की
फीकी पड़ने लगी है..!!

बुधवार, 12 मई 2010

जिन्दगी...




कैसे कैसे लम्हों से
जिन्दगी गुज़रती है
कभी खुशियों के
पंख लगा के उडती है.
तो कभी अथाह वेदनाओं
में ढलती है .

हर तरफ से रिश्तों के
हाथ छूटने से लगते हैं.
प्यार के बंधन भी
गांठे खोलते से लगते हैं.

हूक सी दिल में
शोर करती है
गूंगी घुटन भी
पलकों की
झिर्रियों से
बेबसी के निशान
छोडा करती है .

खुशियाँ जब
आँगन में
लहलहाती हैं ,
कल्पनाएँ
प्रेम नीड़ में
विश्राम पाती हैं.

तब ये जिंदगी
स्वर्ग सी लगती है
नए ख्वाबो के
महल बनते हैं.
मंजिलो की राहें
तलाश करते हैं.

आशाओं के प्याले
छलकते रहते हैं.
ना उम्मीदी के
जाम टूटा करते हैं.

मगर होता है जब
जिन्दगी पर
आभावो का कहर
यथार्थ का होता है
जब कल्पनाओ से
मिलन
धाराशायी होते हैं तब
सपनो के महल
किर्चन किर्चन
होकर
बिखरती है
जब जीवात्मा

तब ....

ठगिनी सी
किस्मत दिखाती
है सच्च का
आइना
और जिंदगी
काठ के पटरे पर
शांती का कफ़न ओढ़े
मुहँ फेर सोती है !!

रविवार, 9 मई 2010

कैसे तुम मुझे मिल गई थी.


कैसे तुम मुझे मिल गई थी..

मैं तो बद-किस्मती से समझोता कर चुका था..

खुदा के दर से भी खफा हो चुका था..

मौत का रास्ता चुन चुका था..

इस तन्हा दुनिया से विरक्त हो चला था..

अपने नसीब पर भी बे-इन्तहा रो चुका था..

अब और कोई आस बाकी ना बची थी..

जीने की आरजू भी ख़तम हो चली थी..

तभी न जाने तुम मुझे मिल गई थी..

कैसे तुम मुझे मिल गई थी..!!

यु ही मैंने तो बस तुम्हे देखा था..

चेहरा तो अभी देखा भी नही था..

अभी धुंधले से अक्षर दो-चार..

बस मन के पढ़े थे..

आवाज़ तो अभी सुनी भी नही थी..

बस एक सरगोशी कानो में की थी.

तुम्हारे कानो ने भी ना जाने क्या सुन लिया था..

कैसे तुम पलट के मेरे पास आ गई थी..

कैसे तुम मुझे मिल गई थी..!!

ना जाने क्या तुम्हारे मन में हलचल हुई थी..

इक दूजे की आवाज़ सुनने की ललक जाग उठी थी..

तब इक-दूजे के बोल कानो में बजने लगे थे..

मन के भीतर तक कही वो बसने लगे थे..

फ़िर यु हुआ की बार बार हम इक-दूजे को सुनने लगे..

और न जाने कब एक-दुसरे में खोने लगे थे..

साँसों से होते हुये दिल में बसने लगे थे..

ना जाने कब तुम मेरा चैन,,,मेरी जान बन गई थी..

कैसे तुम मुझे मिल गई थी...!!

सोचा नही था की तुम इतना चाहोगी मुझे..

जाना भी नही था की इतना भी चाह सकता है कोई..

इतना प्यार भी होता है इस जहा में, जाना नही था..

कहानियों की बातें सच होने लगी थी..

मेरी जिंदगी भी झूमने-नाचने लगी थी..

मुहोब्बत भी मुझ पर रश्क खाने लगी थी..

न जाने कब तुम मेरी आत्मा..मेरे प्राणों में बस गई थी..

न जाने कब तुम मेरी जिंदगी बन गई थी..

न जाने तुम कैसे मुझे मिल गई थी..!!

गुरुवार, 6 मई 2010

घूँघट

दोस्तो आज कुछ हट के लिखने की कोशिश की है...आशा है इसे पढ कर आनंदित होंगे...असल में किसी ने पेशकश की कि सुहागरात या घुंघट पर कोई रचना लिख कर भेजे..तो हमने क्या खुद को किसी से कम समझना था, बैठ गये दिमाग की कलम घिसने और जो जो लफ्जो की उठा-पटक हुई वो इस रचना के लटको -झटको में समा गयी...तो जी आप भी भुगतीये ....


घूँघट उठाया जो उसके मुख से..
बेदाग सा इक चाँद नज़र आया
फैली थी चाँदनी जिसके दम से..
मेरे दिल का वो करार नज़र आया..!!


पलक उठा के यू देखा उसने मुझे..
और मैं फलक से टूटता तारा नज़र आया..
मुस्कराहट की सौगात जब दी उसने..
मैं खुद-ब-खुद में संभलता नजर आया....!!

रुखसारो पे बला की हया नाचती थी..
सुर्ख लबो पे पंखुडियो सी कोमलता
उसके वज़ूद मे एक जादूगरी..
बाहो मे मानो सुकून-ए-जन्नत भरा..!!

मैं यू हुआ दीवाना मिल के उस से..
मेरा रोम-रोम पुलकित हो आया...
मैं आसमान था या वो ज़ॅमी मेरी..
मानो जन्नत-ए-खुदा मैं ही पाया !!.

रविवार, 2 मई 2010

कुटज तरू सा मेरा मन






















मरू भूमि सी ऊष्ण
कठोर जिन्दगी की
विषम परिस्थितियों से
टकराता, गिरता पड़ता
चोटिल होता मेरा मन.

शिव की जटा-जूट सा
सूखा, नीरस
शिवालिक बना
ये मेरा मन.

कुटज तरु की भांति
फिर भी सदैव
मुस्कराने को तैयार
ये मेरा मन.

अलमस्त, अटखेलियाँ करता
अंतस में फैले अवसाद पर
कफ़न चढ़ाता ..
आगे बढ़ता..
मंद समीर सा बहता
भ्रमर गुंजन में
खुद को खोता
ये मेरा मन.

कृत्रिम आवरणों के
रेशे करता
कुछ कह जाता
नए रूप में
सजता- संवरता
अंततः ह्रदय विषाद को
मुक्ति देता
और तब एक
कविता में ढल जाता
ये मेरा मन.