अपनी तमाम उम्र से
दो सावन निचोड़ दिए
थे तुमने,  और 
बंजर पड़ी धरती से 
कंटीले झाड हटा मैं भी  
खुशियों के अंकुर बो 
रंग-बिरंगे फूलों की 
लह-लहाती फसल पा 
झूम रही थी।
कितने खुशगवार दिन थे 
दर्द की सारी परतें 
बे-बुनियाद हो 
अपना ठिकाना 
भटक गयी थीं !
आज भी नजरें 
तलाश रही हैं 
प्रेम से लबालब 
उस कश्ती को
जो  डूब गयी थी 
शक की नदी में।
कई निशब्द से 
पैगाम भेजे और 
उम्मीदें बाँधी कि 
हर बार की तरह  
अनकहे मजमून 
पढ़ लोगे तुम  !
फलक पे इस बार 
धुंध गहरा गयी है 
मेरे एहसास 
शायद नहीं पहुँचते अब  !
अवयवों से सांसों तक 
उतरती मौत 
न जाने कब आ जाये--- 
बताओ कब तक
फासले तक्सीम कर  
रूठे रहोगे मुझसे 
जफा के स्वांग 
हमारे बीच 
कब तक चलेंगे ???
न बिसरेंगे वो सावन 
जानते हो तुम भी ,
जबरन लगे  तो 
देखो सामने 
कुछ लकडिया जल रही हैं 
हाँ मैंने ही जलाई हैं 
रख आओ उस पर 
नकारी हुई मेरी मुहोब्बत को 
मैं भी समझा लूँ 
अड़ियल मन को 
कि  श्राद्ध कर ले 
अपनी मुहोब्बत का !!