Monday, 3 December 2012

यादें.....




चुभती बेचैनी है सीने में,
नमी सूखी है नैनों में,
अपनों की चादर छिटकी है
अनाथ ये ' तन्हा ' बिखरी है.

कुछ दिन बीते, मुझे छोड़ गए 
खींच के साया अपने-पन का 
काट नेह-तरु की डाली को  
जलती यादों में छोड़ गए.

कभी हाथ पकड़ चलाते थे 
दुनियां के ऊबड़-खाबड़ रस्तों पर 
आज उनके साथ को आँका करती हूँ.
इन रीते हाथों की लकीरों में

द्वन्द का सागर उठता है,
मन व्याकुल हो मचलता है 
जी चाहे चीख के रो लूँ मैं
पर वीरान सी आँखे अटकी हैं,

धुंधली आकृति बन जाती है,
तब ढेरों बातें करती हूँ...
फिर भी वो पास नहीं आते हैं,
मैं उन  बिन सिसका करती हूँ.