चाँद की तासीर
ठंडक लिए होती है 
तो क्यों आज 
पिघल रहे हो 
चाँद तुम … ?
जानती हूँ 
इस पिघलन में 
कितनी व्याकुलता है 
कितनी अपने ही टुकड़ो में 
टूटने की विवशता है     
कितनी वेदना को 
आत्मसात किया  होगा 
चाँद तुमने 
तब कहीं जा कर 
पिघलने पर 
मजबूर हुए होंगे. 
देखती हूँ 
तुमसे ही अवभासित  
तुम्हारी आँखों के तारे 
तुम्हारे ये तारे 
इतरा रहे हैं  
अपने रूप पर 
तुमसे अस्तित्व पाकर 
तुम में ही दाग दिखाते हैं  
तुम पर प्रहार कर  
तुमसे अपृक्त (विलग ) हो 
तुम्हे ही नगन्य बताते हैं  !!
आज के युग के ये तारे 
पूर्वाग्रहों में डूबे 
छद्य समाज से परिष्कृत 
कठुराघात करते 
टमकाते, मटकाते  
ओ चाँद, 
तुझे ही 
खंड खंड करते 
तेरी शीतलता को 
उच्छिन्न कर तुझे 
गर्माते ही जाते हैं !!