मंगलवार, 20 मई 2025

स्त्री और स्वाभिमान
















स्त्री अपना स्वाभिमान रौंद देती है
उस घर की ख़ातिर
जिसे मकान से घर बनाते हुए
उसने हज़ारों बार सुना ….
“निकल जाओ मेरे घर से “

अपने बच्चों के किए
घर में शांति बनाये रखने के लिए
गिर जाती है कितनी ही बार
अपनी ही नज़रों में,

हाँ …. उन्हीं बच्चों के लिए
जिन्हें अपना सर्वस्व देकर भी
माँ के नाम से नहीं
पिता के नाम से ही जाना जाता है !

सहती रहती है उस कामुक इंसान को
जिसने अपनी ज़िद्दी इच्छाओं की
कामुक भावनाओं के नाखूनों से
उसके लाल मिट्टी वाली
दिल की धरा को छीला है !

मूक आँखों में उन किरचनों का
दर्द समेटे,
झंझावातों से सुन्न हो चुकी
धमनियों से
थक जाती है सोचते सोचते …
कि कैसे भेड़िया बन जाता है पुरुष
अपने लिसलिसे, बुलबुलाते
कीड़ों को शांत करने के लिए …

कैसे स्वांग करता है, मनुहार करता है
मानो आसमान कदमों में रख देगा !

नहीं जानना चाहता जो
साथी की मर्जी
अपनी जिद्द की धुन में
मसल देता है रूह को भी !

आह ! कैसी विडंबना है …
बार बार
बालात्कार होता है
होती रहती है रूह लहूलुहान
अधेड़ उम्र के पड़ाव पर भी बार बार
फिर भी तमाम उम्र
उस रिश्ते को ढोती
इस रिसते मवाद का इलाज़ भी
नहीं कर सकती !

साथी….. साथी कहना तो मानो
साथी शब्द को ही गाली देना है
उसीके बदलाव की उम्मीद में
ख़ुद का अस्तित्व भी चीख चीख कर
बग़ावत कर रहा होता है
सारे बंधन तोड़ देने को
किंतु नहीं पकड़ पाती
अपनी अलग राह
कि….
जवान बच्चों का भविष्य है
नए रिश्तों के आगमन का बंधन है
समाज -परिवार की शरम, बंधन
बेड़ियां बन जाते हैं उसके
कठोर फैसलों में
और …… और वो
सहती रहती है …
सहती रहती है …
और बस सहती ही जाती है
अपने स्वाभिमान को रौंदना,
अपनी ही नज़रों में गिर जाना
बिछा ही देना स्वयं को
सुन्न धमनियों के साथ
मृत हो चुके शरीर के साथ
उस कामुक, अंध लोलुप
इंसान के सम्मुख
जिसे संसार उसका
जीवन साथी कहता है !