Thursday 11 February 2010

मुझे क्षमा करना...



















सागर तो हू..
मगर सतह मरूस्थल सी है
और तासीर उस रेगीस्तान जैसी..
जो प्यासा है प्यार के लिए..

मै तुम से दूर रह कर
खुद को भुलाये रहता हू..
उमडते सागर की
कल-कल करती लहरो सा
लोगो की भीड में
सवयं को उलझाये रहता हू.

मगर पाता हू जब भी
तुम्हे अपने करीब..
भूल जाता हू सीमाये
बिखर जाता हू,
छुपा लेना चाहता हू खुद को
तुम्हारे दामन में.

पिघला देना चाहता हू..
जर्द पडी दिवारो की
बर्फ को..
गरम सांसो की महक में..

मुक्त होना चाहता हू
कुछ पलों के लिए
विषाक्त, छीछ्लेदार
जिंदगी की केंचुल से

मै जानता हू तुम्हारी सीमाये
मगर अनियंत्रित हो जाता हू
तुम्हारे सानिध्य में
तुम्हारे करीब आने की आकांक्षा
उदिग्न हो जाती है
और मन आत्म -समर्पण
में डूब जाता है.

मनः स्थिती की
इस यात्रा से गुजरता हुआ
मै खो देता हू
खुद के आत्म-बळ को

शरमिंदा हू मै स्वयं से
जो प्रेम लोलुपता में फसा
भूल जाता हू तुम्हारी बेबसी .

आज में पश्चाताप में डूबा हू..
अपनी क्षुद्रता के लिए
क्षमा याचना भी नही कर सकता
डूबा हू अपने ही अहम में..
और कुचला जा रहा हू..
खुद-ब- खुद ही
अपने संताप के पहियो में.
हो सके तो
मुझे क्षमा करना.

26 comments:

M VERMA said...

आज में पश्चाताप में डूबा हू..
अपनी क्षुद्रता के लिए
क्षुद्रता कोई पश्चाताप का विषय तो नहीं पर यह क्षुद्रता अगर बीज जैसी हो तो.

रानीविशाल said...

बहुत ही खुबसूरत रचना....बधाई!
http://kavyamanjusha.blogspot.com/

Udan Tashtari said...

बहुत उम्दा अभिव्यक्ति!

Ravi Rajbhar said...

Bahut khub....aapke shabdo me jadu hai.

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

आत्मसंताप करती सी रचना....बहुत खूबसूरती से शब्दों के ताने-बाने बुने हैं...

संजय भास्‍कर said...

बेहतरीन। लाजवाब।

के सी said...

कविता बहुत बेहतर है यानि एक ही भाव पर चलती हुई अपनी पूर्णता तक पहुंचती है इसी को रस निष्पत्ति कहते हैं. इस शास्त्रीय समझ को आज मैंने आपकी कविता में देखा. बहुत बार पढ़ा कविता को, मैं खुद उतर आया कविता में यानि कविता साकार हो उठी पाठक के लिए. वर्तनी सम्बन्धी टाइप की जो त्रुटियाँ हैं कृपया उन्हें जरूर दूर कीजिये. कविता का सौन्दर्य प्रभावित हो रहा है. एक अच्छा पाठक कई बार रचना के साथ सिर्फ ऐसे ही कारणों से इन्वोल्व नहीं हो पता है. इस सुंदर कविता के लिए आपको बहुत बधाई.

ज्योति सिंह said...

आज में पश्चाताप में डूबा हू..
अपनी क्षुद्रता के लिए
क्षमा याचना भी नही कर सकता
डूबा हू अपने ही अहम में..
और कुचला जा रहा हू..
खुद-ब- खुद ही
अपने संताप के पहियो में.
हो सके तो
मुझे क्षमा करना
bahut hi sundar rachna ,jise padhte huye kho gaye hum .

अमिताभ श्रीवास्तव said...

sundar rachna

CS Devendra K Sharma "Man without Brain" said...

madam, your writing is too good

अनिल कान्त said...

निश्चय ही कविता प्रेम के असल मायने दर्शाती है . एक निश्च्छल एवं निस्वार्थ प्रेम ही प्रेम है...

आपकी कविता बहुत अच्छी है .

दिगम्बर नासवा said...

सागर की लहरें भी किनारा देख कर बेकाबू हो जाती हैं ..... प्रेम की बहुत ही उन्मुक्त चाहत से उपजी रचना .... बहुत गहरे एहसास लिए .......
.... आपको महा-शिवरात्रि की बहुत बहुत बधाई .....

Urmi said...

बहुत ही ख़ूबसूरत और लाजवाब रचना लिखा है आपने जो काबिले तारीफ़ है! इस शानदार और उम्दा रचना के लिए बधाई!

संजय भास्‍कर said...

महा-शिवरात्रि की बहुत बहुत बधाई .....

रंजू भाटिया said...

बहुत बढ़िया लिखा है आपने प्रेम की सहज अभिव्यक्ति लफ़्ज़ों में पीरो दी है

देवेन्द्र पाण्डेय said...

बेहतरीन पंक्तियाँ-

सागर तो हूँ..
मगर सतह मरूस्थल सी है
और तासीर उस रेगीस्तान जैसी..
जो प्यासा है प्यार के लिए..
..वाह!

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

बेहतरीन शब्दों में ....लाजवाब रचना....

आभार....

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

बेहतरीन शब्दों में ....लाजवाब रचना....

आभार....

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' said...

अनामिका जी आदाब
....सागर तो हू..
मगर सतह मरूस्थल सी है
और तासीर उस रेगिस्तान जैसी..
जो प्यासा है प्यार के लिए..
सच कहें, तो इन्ही पंक्तियों पूरा भाव स्पष्ट हो रहा है
शरमिंदा हू मै स्वयं से
जो प्रेम लोलुपता में फसा
भूल जाता हू तुम्हारी बेबसी .
वाह, बहुत खूब

अनामिका की सदायें ...... said...

SERAJ JI DWARA BHEJA GAYA COMMENTS...
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Aapke Blog me.n aapki rachnaye.n padha

Bahot khoob Rachnaye.n
Keep exploring
..

Jo ashk gire aa.nkh se alfaaz bane hain
Warna hame.n dar-asl me.n likhna nahin aata

By me -- Seraj Azmi

पूनम श्रीवास्तव said...

pashchyatap k ahasaas ko apane badi khoobspprti se vyakt kiya hai.badhai
poonam

निर्मला कपिला said...

शुरू से अन्त तक कविता अपने से बाँध कर चलती है मुक्त छंद होते हुये भी कहीं से लय नही टूटती येही सुन्दरता है इस कविता मे। बधाई इस अनुपम रचना के लिये।

रचना दीक्षित said...

बहुत प्रभावशाली रचना सुंदर दिल को छूते शब्द .मनभावन,अद्भुत

Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) said...

अदभुत...
जैसे आपने मेरे मन की बात कह दी हो...अदभुत..

उफ़्फ़्फ़... शब्द आ ही नही रहे है कि मै क्य बोलू... लाजवाब रचना... जैसे आपने मेरी साईड ले ली हो :) सच मे मै कुचला जा रहा था अपने सन्ताप के पहियो मे... amazing yaar..superb..awesome..adding ur feed in my blog reader..

Shishupal Prajapati said...

अब तक पढी गयी कविताओं में बेहतरीन कविता, और जुड़ गयी मेरे करीब!


मुक्त होना चाहता हू
कुछ पलों के लिए
विषाक्त, छीछ्लेदार
जिंदगी की केंचुल से

बहुत-बहुत बधाई हो!
आपका शुभेक्शु
शिशु

अलीम आज़मी said...

bahut sunder rachna aapki ....jitni bhi tareef ki jaaye kam hai aapki...