Thursday 24 June 2010

कर्मफल























आज अंतस के भीतर
कहीं गहरे में
झाँक कर देखती हूँ
और फिर
उस लौ तक पहुँचती हूँ
जो निरंतर जल रही है,
मुस्करा रही है,
अठखेलियाँ कर रही है ...
जीवन-पर्यंत मिलने वाले
क्षोभ में भी .

सोचती हूँ आज
विस्मित सी
कि क्या ये
कर्मवाद का बल है ?
जो मैं मारी मारी फिरती हूँ
और ठोकरें खा कर भी
इश्वर के क्रोध को,
न्याय को
आँचल पसार
अपने में
जब्त कर लेती हूँ.

मैं अपने कर्मफल को
सह कर भी
फिर से..
वज्र के सामान
सबल और कठोर हो जाती हूँ.

और करबद्ध हो
यही कहती हूँ
कि ....हे प्रभु,
यदि तेरी इच्छा
सम्पूर्ण हो गयी हो,
यदि इस पिंजर में
अपने प्रतीक रुप को
रखने की दंडावधि
पूर्ण हो चुकी हो..

तो..

प्रभु एक बार
मुस्करा दो
कि ....तुमने
मुझे उत्पन्न कर के
अपना उद्देश्य पूरा किया.

56 comments:

कडुवासच said...

.... बेहतरीन!!!

मनोज कुमार said...

यह बात निर्विवाद सत्य है कि संतुष्टि ही हमें सच्ची प्रसन्नता देती है। जीवन एक नाटक है। यदि हम इसके कथानक को समझ लें तो सदैव प्रसन्‍न रह सकते हैं।

राजकुमार सोनी said...

अनामिका जी
आपकी रचना जीवन के कठिन प्रश्नों से जूझने की वकालत तो करती है। यदि हम सब जीवन को एक फिलासफर की हैसियत से देखेंगे तो शायद कुछ वैसा ही भाव उपजेगा जैसा आपने लिखा है।
रचना में गजब की दार्शनिकता है..आपको बधाई।

राजकुमार सोनी said...

आपने मेरे ब्लाग पर जो शुभ सूचना दी है उसके लिए भी आपका आभार।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

प्रभु एक बार
मुस्करा दो
कि ....तुमने
मुझे उत्पन्न कर के
अपना उद्देश्य पूरा किया.

:) :)

बहुत दार्शनिक अंदाज़...जीवन का पूरा फलसफा बयां कर दिया....जीवन में संतोष आ जाये तो सारी कलह खत्म हो जाये....अच्छी प्रस्तुति

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

प्रभु एक बार
मुस्करा दो
कि ....तुमने
मुझे उत्पन्न कर के
अपना उद्देश्य पूरा किया.
--
चित्रों में तो ईश्वर सदैव ही मुस्कराते रहते हैं!
आपकी विवेचना सुन्दर रही!

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

अनामिका की सदाएँ ईशवर तक त पहुँचिए जाएँगी, लेकिन आपका बात ऊ पत्थर का भगवान समझेगा कि नहीं संदेह बुझाता है... हम त हमेसा भगवान को मुस्कुराते हुए देखे हैं, उसका बनाया हुआ आदमी के तकलीफ में... नहीं त बताइए त एतना सुंदर जानवर, पेड़ पौधा, जंगल सब गायब हो जाता, अऊर भगवान खामोस देखते रहता... उसको भी इसी में मजा आता है...

kshama said...

तो..

प्रभु एक बार
मुस्करा दो
कि ....तुमने
मुझे उत्पन्न कर के
अपना उद्देश्य पूरा किया.
Bada gahara likh jatin hain aap!
Ab na kahna ki,maine blog pe post daal deen aur aapko pata na chala! Warna,abke mai naraaz ho jaungi!

Udan Tashtari said...

बहुत गहरी रचना!!


मैं अपने कर्मफल को
सह कर भी
फिर से..
वज्र के सामान
सबल और कठोर हो जाती हूँ.


-यही जीवन है.

kunwarji's said...

बहुत ही सुन्दर भावाभिवयक्ति

कुंवर जी,

Avinash Chandra said...

प्रभु एक बार
मुस्करा दो
कि ....तुमने
मुझे उत्पन्न कर के
अपना उद्देश्य पूरा किया.


wo wakai muskura raha hai.... :)

bahut hi pyari rachna :)

badhai ho

स्वप्निल तिवारी said...

o tere ki ..bada fghazab ka samarpan hai di .. :)

''अपनी माटी'' वेबपत्रिका सम्पादन मंडल said...
This comment has been removed by the author.
''अपनी माटी'' वेबपत्रिका सम्पादन मंडल said...

rachanaa theek hai. magar pahale ki tarah dhaardaar nahi hai. chalo ye utaar-chadaaw to chalataa rahataa hai

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" said...

मैं अपने कर्मफल को
सह कर भी
फिर से..
वज्र के सामान
सबल और कठोर हो जाती हूँ.
बेहद उम्दा रचना!
सच में, जिसने कर्मगति को स्वीकार लिया...उसने जीवन को जान लिया....

रंजू भाटिया said...

bahut sundar rachna lagi yah shukriya

चैन सिंह शेखावत said...

darshnik andaaz wali ek behatreen kavita...badhai

सुरेन्द्र "मुल्हिद" said...

anamika ji!
shastri ji ke charcha manch ke maadhyam se aapke blog par aana hua!
bahut hee achha likhti hain aap, padh kar dil wakai khush ho gaya!
likhte rahiye!

Subhash Rai said...

अनामिकाजी, इश्वर है या नहीं, मैं नहीं जानता परंतु यह सही है कि इसी के नाम पर लम्बे समय तक हम भाग्य और कर्म के निष्क़्रियतावाद में फंसे रहे हैं. इससे बाहर निकलने की जरूरत है. इश्वर अगर है तो वह आप की, हमारी सत्ता के रूप में ही है, और कहीं नहीं, इसलिये हम निरीह और कातर नहीं हो सकते. हम जो चाहेंगे, हासिल कर लेंगे अन्यथा उसके लिये लडते रहेंगे. जीवन में दयनीयता के लिये कोई जगह नहीं होनी चहिये.

रचना दीक्षित said...

आज तो बड़ा दार्शनिक पहलू नज़र आ रहा है ये सच है की प्रभु ने तो अपना उद्देश्य पूरा कर लिया है पर हम कब कर पायेगें?????

ज्योति सिंह said...

aaj ki rachna me to sagar si gahrai hai ,dhale huye hai geet aaho me ,ek dhundhali roshni palak jhapak rahi raho me .
प्रभु एक बार
मुस्करा दो
कि ....तुमने
मुझे उत्पन्न कर के
अपना उद्देश्य पूरा किया.
ek adbhut si rachna .

Anupama Tripathi said...

जीवन का निचोड़ -
कटु सत्य -
बहुत सुंदर

ओम पुरोहित'कागद' said...

ANAMIKA JI,
NAMASKAR !
AAJ AAPKE BLOG PAR AANA SARTHAK RAHA.
BAHUT ACHHI RACHNAYEN BHI MILI OR JEEVAN KA EK EHSAAS BHI MILA .YE SAWAL TO MAIN BHI AKELE ME BAR BAR KIYA KARTA HUN-
प्रभु एक बार
मुस्करा दो
कि ....तुमने
मुझे उत्पन्न कर के
अपना उद्देश्य पूरा किया.
ACHHI RACHNA KE LIYE BADHAI HO !

रंजना said...

अंतर्मन को गहरे छूकर मूक कर गयी आपकी यह रचना...

रंजना said...

अद्वितीय....

rashmi ravija said...

Bahut hi behtareen kavita...ek daarshinkta ka bhaav liye..

Akhilesh pal blog said...

bahoot hi khoob

विजयप्रकाश said...

वाह...शब्दों और भावनाओं का सुंदर संगम.आपका यह अंदाज बहुत पसंद आया.

सूफ़ी आशीष/ ਸੂਫ਼ੀ ਆਸ਼ੀਸ਼ said...

अनामिका जी,
मैं बहुत कुछ तो नहीं जानता पर हाँ, इस बात में यकीन रखता हूँ.... के हमें जो मिलता है, हमारे कर्मों का ही फल है!
प्रेरक है इश्वर से आपका साक्षात्कार!
जय हो!

निर्मला कपिला said...

प्रभु एक बार
मुस्करा दो
कि ....तुमने
मुझे उत्पन्न कर के
अपना उद्देश्य पूरा किया.
aआनामिका कविता बहुत अच्छी लगी। बधाई

Girish Kumar Billore said...

अनामिका जी
आध्यात्मिक भाव-भूमि पर लिखना कठिन है फ़िर सबको पसन्द आना और भी कठिन है.वाह क्या अन्दाज़ है

देवेन्द्र पाण्डेय said...

ईश्वर से मुस्कुराने की प्रार्थना यानी पिंजड़े से मुक्ति की प्रार्थना...!
बहुत सुंदर भाव हैं इस कविता के ....बहुत-बहुत बधाई.

प्रज्ञा पांडेय said...

anamika aapki kavitayen dekhin .. itani sunder aur bhawon wali hain .. bahut taazagi liye hue hain .. ek ek kavita par samy dekar padhane layak ahi .. bahut badhayi .. kabhi hamare yahan bhi tashreef laayen .. saarthak milega

डॉ टी एस दराल said...

बहुत सुन्दर प्रार्थना । आज के परिवेश में एक अलग पहचान बनाती रचना । बधाई।

Akshitaa (Pakhi) said...

बेहतरीन रचना .खूबसूरत भाव !!


***************************
'पाखी की दुनिया' में इस बार 'कीचड़ फेंकने वाले ज्वालामुखी' !

कुमार राधारमण said...

स्त्री जीवन की जद्दोजहद और संघर्ष को स्वर देती रचना.

शरद कोकास said...

चलिये प्रभु आपकी यह इच्छा पूरी करे

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

मंगलवार 29 06- 2010 को आपकी रचना ... चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर ली गयी है आभार


http://charchamanch.blogspot.com/

शारदा अरोरा said...

Thankyou , Anamika ji
kal thoda udas si hi thi ki aapki tippni ne khush kar diya .
Jahan tak jindadili ki baat hai , insan usi cheej ko jyada pakdne ki koshish karta hai jo uske pas nahi hotee ....ab iske bina jiya bhi to nahi jata .aapko reply blog par hi dena pad raha hai kyonki aapka comment noreplycomment@blogger.com se aaya tha ...aur aapka lekhan darshnikta ka andaaz liye hue hai ...pasand aaya .shubhkamnon ke sath _Sharda Arora

राजेश उत्‍साही said...

अनामिका जी देखिए न प्रभु ने भी आजकल मुस्‍कराना छोड़ दिया है। अब आपको भी प्रार्थना करनी पड़ रही है। सुंदर रचना के लिए बधाई।

राजेश उत्‍साही said...

अनामिका जी हो सकता है किसी और ने भी इस बात की तरफ ध्‍यान दिलाया हो। सदाये में एक अनुस्‍वार की कमी है। मेरे हिसाब से सदायें होना चाहिए। संभव हो तो सुधार लें। आपके आत्‍मकथ्‍य में भी ऐसी ही कुछ गलतियां हैं। उन्‍हें भी ठीक कर लें।

Aruna Kapoor said...

अनामिका की सदाएं...मानों दिल की गहन गहराई से निकली हुई आवाज!... अति सुंदर रचना!

Satish Saxena said...

बहुत कुछ कह रही है यह रचना ! शुभकामनायें !

kshama said...

Phir gayab ,phir gayab...ham intezaar kar rahe hain!

Avinash Chandra said...

are...itna lamba pause hota hai kahin?
wapas aaiye...

सु-मन (Suman Kapoor) said...

अंतस में उतर कर जीवन की परिभाषा ही बदल जाती है ।बहुत गहरी रचना..... मेरे ब्लॉग का अनुसरण करने के लिये धन्यवाद

स्वाति said...

बहुत अच्छी प्रस्तुति ..

abhinav pandey said...

मेरे द्वारा एक नया लेख लिखा गया है .... मैं यहाँ नया हूँ ... चिटठा जगत में.... तो एक और बार मेरी कृति को पढ़ाने के लिए दुसरो के ब्लॉग का सहारा ले रहा हूँ ...हो सके तो माफ़ कीजियेगा .... एवं आपकी आलोचनात्मक टिप्पणियों से मेरे लेखन में सुधार अवश्य आयेगा इस आशा से ....
सुनहरी यादें

विनोद कुमार पांडेय said...

बहुत बढ़िया ..एक भावपूर्ण रचना..धन्यवाद अनामिका जी

राजेश उत्‍साही said...

शुक्रिया अनामिका जी, आपने अपने ब्‍लाग के नाम में सुधार कर लिया। अब अगर अपनी ब्‍लागर प्रोफाइल में जाकर वहां भी सदाये में अनुस्‍वार लगा लें तो बेहतर होगा। क्‍योंकिं आपकी पोस्‍ट के नीचे,आपके परिचय और किसी अन्‍य ब्‍लाग पर आपकी टिप्‍पणी के साथ प्रदर्शित होने वाले नाम में अभी भी सदायें नहीं सदाये ही आ रहा है। शुभकामनाएं।

राजेश उत्‍साही said...

क्‍योंकिं नहीं क्‍योंकि पढ़ें ।

hem pandey said...

'आज अंतस के भीतर
कहीं गहरे में
झाँक कर देखती हूँ
और फिर
उस लौ तक पहुँचती हूँ
जो निरंतर जल रही है,
मुस्करा रही है,
अठखेलियाँ कर रही है ...
जीवन-पर्यंत मिलने वाले
क्षोभ में भी .'

- यही जिजीविषा सार्थक जीवन का संबल है.

सहज साहित्य said...

अनामिका जी ,आपकी -आज अंतस के भीतर-कविता ने अन्त्र्मन छू लिया ।

Parul kanani said...

just awesome!

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

अद्भुत भाव, शानदार अभिव्यक्ति, और मैं क्या कहूँ, शब्‍द ही नहीं साथ दे रहे।
................
अपने ब्लॉग पर 8-10 विजि़टर्स हमेशा ऑनलाइन पाएँ।

अरुणेश मिश्र said...

अनामिका जी !
उत्कृष्ट रचना । वेदान्त का दर्शन अभिव्यक्त है ।
सहेजने योग्य रचना ।