Friday, 8 October 2010

अडिग खामोशियाँ















तुम्हारी खामोशियों के साथ 
मेरी कुछ चाहतें पड़ी हैं 
जो अपलक प्रतीक्षारत हैं 
खामोशियों की सरसराहट सुनने को .

आगोश में दृगांचल   के 
दो बूँदें भी छुपी हैं 
कि कब तुम खुद से बाहर आओ 
और ये आज़ाद हो 
तुम्हारे मन के पैरहन पर आ गिरें .

जब भी यादों के घने कोहरों 
से झाँक कर देखा है तुम्हें  
सदा प्रेम पुष्प बरसाते हुए 
आँखों में प्यार का 
सागर भरे पाया है.


किन्तु आज ...


आज तुम मौन,
विरक्ति भाव लिए हुए 
अनजान पथ के 
पथिक बन 
मेरी सदाओं से 
अनभिज्ञ ,
मेरी कोशिशों की 
समिधा को 
होम किये जा रहे हो 
आज तुमने अविश्वास के 
हवन में हमारे रिश्ते को 
जला दिया है .

कच्चे धागों में 
जो गहरी भावनाएँ 
बहुत कसावट से 
गूंथी थी ....
एक- एक बल को 
खोल डाला है तुमने 
विकारों की तपिश से.


आज ये खामोशियाँ 
इतनी अडिग  हो गयी हैं 
जो रिश्तों के हवन की 
प्रज्ज्वलित अग्नि 
में स्वाहा होते, 
ढहते अरमानों का 
हा-हा-कार सुन कर भी 
कोई प्रतिक्रिया नहीं करती.

आज भी चाहतें मेरी 
कराह रही हैं 
और 
प्रतीक्षारत हैं कि  
कब तुम्हारी खामोशियाँ 
टूट कर बिखरें 
और थाम लें हाथ 
इन सदाओं का.

46 comments:

Kailash Sharma said...

आज भी चाहतें मेरी
कराह रही हैं
और
प्रतीक्षारत हैं कि
कब तुम्हारी खामोशियाँ
टूट कर बिखरें
और थाम लें हाथ
इन सदाओं का.......

मन की कशिश और दर्द को बहुत ही मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति दी है...बहुत ही सुन्दर...आभार...

संजय भास्‍कर said...

आह बहुत खूबसूरत कविता लिखी मनो दिल निचोड़ कर रख दिया हो.

संजय भास्‍कर said...

कविता का अन्त लाजवाब् है और मन को मोह लेता है ।

महेन्‍द्र वर्मा said...

ओह,...कविता का दर्द या दर्द की कविता...शब्दों को चुन-चुन कर तराशा है आपने ...प्रशंसनीय रचना।

मनोज कुमार said...
This comment has been removed by the author.
सुज्ञ said...

हमेशा की तरह "ला-जवाब" जबर्दस्त!!
आज तुम मौन,
विरक्ति भाव लिए हुए
अनजान पथ के
पथिक बन
मेरी सदाओं से
अनभिज्ञ ,
मेरी कोशिशों की
समिधा को
होम किये जा रहे हो

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' said...

...खामोशियाँ...इतनी अडिग हो गयी हैं
जो रिश्तों के हवन की...प्रज्ज्वलित अग्नि
में स्वाहा होते...ढहते अरमानों का
हाहाकार सुन कर भी...कोई प्रतिक्रिया नहीं करती.

उम्दा रचना... बधाई.

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

नवरात्रि की आप को बहुत बहुत शुभकामनाएँ । जय माता दी ।

Sunil Kumar said...

आज भी चाहतें मेरी
कराह रही हैं
और
प्रतीक्षारत हैं कि
कब तुम्हारी खामोशियाँ
टूट कर बिखरें
और थाम लें हाथ
इन सदाओं का.
दिल को छू लेने वाली रचना, बधाई

मनोज भारती said...

जिसके लिए हमारी सदाएँ निकलती हैं ...उसकी खामोशी कुछ ऐसी ही पीड़ा देती है । सुंदर रचना !!!

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

अनमिका जी, उफ्फ्फ्फ!! आपने तो दर्द को एक नई परिभाषा दी है... इतने रूप दर्द के कभी देखे न थे जो आपने दिखाए हैं.. बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति!!

मनोज कुमार said...

एक स्‍त्री का अस्तित्‍व अपने अतीत, वर्तमान और भविष्‍य से जूझता हुआ खुद को ढूंढता रहता है। स्मृतियों और वर्तमान के अनुभव एक-दूसरे के सामने आ खड़े होते हैं। भावुक मन की उमंगे, संवेदनशीलता, को काव्य में अभिव्यक्ति दी गई है। उदासी और मौन के बीच मानवता की पैरवी करती स्‍त्री के आवेग की कहानी है यह। संवेदना के कई स्‍तरों का संस्‍पर्श करती यह कविता जीवन के साथ चलते चलते स्‍त्री मन की छटपटाहट को पूरे आवेश के साथ व्‍यक्त करती है।

Sadhana Vaid said...

अंतर्मन की व्यथा को हर पंक्ति में निचोड़ कर रख दिया है ! स्त्री के सम्पूर्ण समर्पण और पुरुष के द्वारा उस समग्र समर्पण की उपेक्षा और अवहेलना की भावदशा को प्रस्तुत करती बहुत ही खूबसूरत कविता है ! मेरी बधाई स्वीकार करें !

डॉ. मोनिका शर्मा said...

खामोशियों को बड़ी सुंदर अभिव्यक्ति दी आपने ..... बहुत अच्छी रचना

प्रवीण पाण्डेय said...

उफ, कितना कुछ कहती खामोशियाँ।

निर्मला कपिला said...

आज भी चाहतें मेरी
कराह रही हैं
और
प्रतीक्षारत हैं कि
कब तुम्हारी खामोशियाँ
टूट कर बिखरें
और थाम लें हाथ
इन सदाओं का.......
ये खामोशियाँ न जाने कितना दर्द दे जाती हैं। बहुत मार्मिक अभिव्यक्ति। शुभकामनायें

Aruna Kapoor said...

सुंदर काव्य रचना...सुंदर प्रस्तुति!

अनुपमा पाठक said...

prateeksha ki peeda ko jeeti hui sundar kavita!
regards,

कुमार राधारमण said...

अविश्वास विज्ञान के लिए ठीक है। मगर जीवन तो विश्वास की नींव पर ही टिक सकता है। मगर अविश्वासी पुरुष खामोश क्यों है? उसके भीतर और आग बची है या वह स्वयं को निरूत्तर पा रहा है? और अगर खामोश है,तो आपकी आवाज़ तो उस तक सरलता से पहुंचनी चाहिए। सुनने के लिए खामोशी से ज्यादा आदर्श स्थिति क्या हो सकती है? क्या शब्दों को विराम देकर स्पर्श का सहारा लिया जाए?

दिगम्बर नासवा said...

Jeevan ke dard ko marmsparshiy likha hai ... dard ki lakeer kheench di hai .... bahut lajawaab kavita hai ...

vandana gupta said...

खामोशियों की सदायें बेहद मार्मिक हैं जो दर्द के सागर मे डूब रही हैं मगर किनारा सामने होते हुये भी साहिल को तरस रही हैं……………स्त्री मन की बेहद भावुक अभिव्यक्ति।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

मन की अनुभूतियों की सुन्दर अभिव्यक्ति है ...

आज तुम मौन,
विरक्ति भाव लिए हुए
अनजान पथ के
पथिक बन
मेरी सदाओं से

यह पंक्तियाँ पढ़ीं तो न जाने क्यों मैथली शरण गुप्त की पंक्तियाँ याद आ गयीं ...
सखी वो मुझसे कह कर जाते

हर पंक्ति , हर शब्द बहुत मार्मिक चित्रण कर रहा है ...लेकिन जो खामोश है उसके अंदर का राज़ कैसे पता चले ...आखिर मर्मभेदी सदाएँ उसको सुनाई तो देती होंगी ...फिर भी चुप है ...उफ़ बहुत दर्द भरी रचना है ..

Udan Tashtari said...

आज भी चाहतें मेरी
कराह रही हैं
और
प्रतीक्षारत हैं कि
कब तुम्हारी खामोशियाँ
टूट कर बिखरें
और थाम लें हाथ
इन सदाओं का


--वाह! बहुत भावपूर्ण...

पूनम श्रीवास्तव said...

आज भी चाहतें मेरी
कराह रही हैं
और
प्रतीक्षारत हैं कि
कब तुम्हारी खामोशियाँ
टूट कर बिखरें
और थाम लें हाथ
इन सदाओं का.
अनामिका जी, बहुत सुन्दर और कोमल भावनाओं को बहुत ही खूबसूरत शब्दों में प्रस्तुत किया है आपने । बेहतरीन रचना। नवरात्रि की हार्दिक शुभकामनायें स्वीकारें।-----पूनम

शरद कोकास said...

अच्छे बिम्बों का इस्तेमाल है

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

कल बाहर था इसलिए इस पोस्ट को नही देख सका!
--
आपने बहुत ही उम्दा रचना लिखी है!
--

सूबेदार said...

बहुत सुन्दर रचना पढ़ते मन नहीं भरता ----आपने ब्लॉग को सुन्दर ढंग से बनाया है ब्लॉग बहुत अच्छा लगा वह भी कबिता जैसा ही है.
इतनी सुन्दर कबिता हेतु बहुत-बहुत बधाई.

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत सुन्दर भावपूर्ण रचना है।

कच्चे धागों में
जो गहरी भावनाएँ
बहुत कसावट से
गूंथी थी ....
एक- एक बल को
खोल डाला है तुमने
विकारों की तपिश से.

देवेन्द्र पाण्डेय said...

मार्मिक अभिव्यक्ति।

Priyanka Soni said...

बहुत ही मोहक !

monali said...

Intzaar.. sukhad ho to saarthak bhi h... anyathaa... sab nirarthak....sundar kavita..

ज्योति सिंह said...

कच्चे धागों में
जो गहरी भावनाएँ
बहुत कसावट से
गूंथी थी ....
एक- एक बल को
खोल डाला है तुमने
विकारों की तपिश से.
yahi to taklifdeh hai jo umra bhar ki tapsaya bhang kar deti hai .bahut hi umda rachna ,sadhna ji ke vicharo se main bhi sahmat hoon .

रंजू भाटिया said...

बहुत सुन्दर लिखा है आपने

Umra Quaidi said...

सार्थक लेखन के लिये आभार एवं “उम्र कैदी” की ओर से शुभकामनाएँ।

जीवन तो इंसान ही नहीं, बल्कि सभी जीव भी जीते हैं, लेकिन इस मसाज में व्याप्त भ्रष्टाचार, मनमानी और भेदभावपूर्ण व्यवस्था के चलते कुछ लोगों के लिये यह मानव जीवन अभिशाप बन जाता है। आज मैं यह सब झेल रहा हूँ। जब तक मुझ जैसे समस्याग्रस्त लोगों को समाज के लोग अपने हाल पर छोडकर आगे बढते जायेंगे, हालात लगातार बिगडते ही जायेंगे। बल्कि हालात बिगडते जाने का यही बडा कारण है। भगवान ना करे, लेकिन कल को आप या आपका कोई भी इस षडयन्त्र का शिकार हो सकता है!

अत: यदि आपके पास केवल दो मिनट का समय हो तो कृपया मुझ उम्र-कैदी का निम्न ब्लॉग पढने का कष्ट करें हो सकता है कि आप के अनुभवों से मुझे कोई मार्ग या दिशा मिल जाये या मेरा जीवन संघर्ष आपके या अन्य किसी के काम आ जाये।
http://umraquaidi.blogspot.com/

आपका शुभचिन्तक
“उम्र कैदी”

Parul kanani said...

ye khamoshi nazm mein ab bhi khanak rahi hai...amazing!

रचना दीक्षित said...

उफ़ अब तो खामोशियाँ भी खामोश नहीं रह सकती. कितना कुछ कह जो दिया इनके नाम.मार्मिक....

अजित गुप्ता का कोना said...

बेह‍तर रचना। अच्‍छे शब्‍द संयोजन के साथ सशक्‍त अभिव्‍यक्ति।

राजभाषा हिंदी said...

बहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है!
या देवी सर्वभूतेषु बुद्धिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
नवरात्र के पावन अवसर पर आपको और आपके परिवार के सभी सदस्यों को हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई!

कुमार संतोष said...

तुम्हारी खामोशियों के साथ
मेरी कुछ चाहतें पड़ी हैं
जो अपलक प्रतीक्षारत हैं
खामोशियों की सरसराहट सुनने को


वाह वाह वाह !!
बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति ! आपकी इस कविता ने भी गजब का असर किया है मन पर !

बहुत सारी बधाई !

Akshitaa (Pakhi) said...

बहुत सुन्दर लगी यह कविता...आपको बधाइयाँ.
____________________
'पाखी की दुनिया' के 100 पोस्ट पूरे ..ये मारा शतक !!

http://anusamvedna.blogspot.com said...

आज भी चाहतें मेरी
कराह रही हैं
और
प्रतीक्षारत हैं कि
कब तुम्हारी खामोशियाँ
टूट कर बिखरें
और थाम लें हाथ
इन सदाओं का.


प्रतीक्षारत चाहते और बिखरे अरमान को आपने बहुत सुंदर शब्दों से पिरोया है

Dorothy said...

"आज भी चाहतें मेरी
कराह रही हैं
और
प्रतीक्षारत हैं कि
कब तुम्हारी खामोशियाँ
टूट कर बिखरें
और थाम लें हाथ
इन सदाओं का"

मन के खामोश पीड़ा जगत की बेहद मार्मिक अभिव्यक्ति जो अपनी खामोशियो मे भी अडिग रहकर भी.... प्रतीक्षारत है....
दिल को गहराई से छू लेने वाली रचना.
आभार.
सादर डोरोथी.

Anonymous said...

:)

bohot khoobsurat khayaal hai

mridula pradhan said...

bahut achcha likhtin hain aap.

गिरिजा कुलश्रेष्ठ said...

अनामिका जी अन्तर की तहों को खोल देने वाली रचना है । आपका मेरे ब्लाग पर आना यों सुखद रहा कि देर से ही सही अच्छी रचना पढने मिली । शुक्रिया ।

Satish Saxena said...

दर्द के कारण अंग को अलग नहीं किया जाता ...तकलीफ देह रचना !
"इक तवस्सुम हज़ार शिकवों का
कितना प्यारा जवाब होता है !"