मैंने सुना था
कि प्रेम सबके
भीतर ही है
उसी, स्वयं के प्रेम को
पाने और तृप्त होने के लिए
एक मूर्ती का निर्माण किया था.
अपने असीम आनंद और
विश्वास के साथ
इस अराध्यदेव की
ह्रदय -वाटिका में
प्रतिष्ठा की थी.
प्रेमाश्रुओं के स्नान
और अनुराग की धूप से
उपासना की थी.
उपास्यदेव से
तादाम्य बनाए रखने के लिए
श्रद्धा फूलों की वर्षा भी
स्थिर मन से
करती रही.
लेकिन मेरा दुर्भाग्य से
निरंतर संघर्ष रहा
और तेरी उदासीनता व्
अकृपा दुराग्रह बन कर
मेरे प्रेममयी जीवन पर
काले मेघ सी मंडराने लगीं .
सुखद स्मृतियाँ जलने लगी हैं.
मेरा खोया हुआ प्रेम
अनंत विरह का
महासागर हो गया है.
मेरा मन मंदिर
सूना, प्राणहीन हो चला है .
मैं स्वयं भग्न-हृदया,
एक उजड़ा हुआ
भूतहा खंडर सी हो गयी हूँ.
मैं तुझ में समाना चाहती हूँ,
तेरी आसक्ति में घुलना चाहती हूँ,
मेरी साधना तेरे चरण-स्पर्श
की ओर खींचती है.
हे देव ! मेरे मन के
नयनों में आ जाओ.
मेरे ह्रदय में स्पंदित हो जाओ.
प्रेम और तृप्तता को
अभीष्ट कर,
मुझे प्रकाश दो
लौट आओ..
लौट आओ..
मेरे देवता !
4 टिप्पणियां:
सुखद स्मृतियाँ जलने लगी हैं.
मेरा खोया हुआ प्रेम
अनंत विरह का
महासागर हो गया है.
मेरा मन मंदिर
सूना, प्राणहीन हो चला है .
मैं स्वयं भग्न-हृदया,
एक उजड़ा हुआ
भूतहा खंडर सी हो गयी हूँ.
वाह...वाह...वाह...अद्भुत शब्द और मार्मिक भाव से भरपूर इस रचना के लिए बधाई स्वीकारें
नीरज
vaah adabhut
प्रेमाश्रुओं के स्नान और अनुराग की धूप से उपासना की एवं.उपास्यदेव से तादाम्य बनाए रखने के लिए फूलों की वर्षा भी स्थिर मन से करने बाद भी. दुर्भाग्य से निरंतर संघर्षरत और तेरी उदासीनता व् अकृपा दुराग्रह बन कर मेरे प्रेममयी जीवन पर काले मेघ सी मंडराने लगीं-जैसे सारगर्भित भाव के काऱम आपकी कविता मुखर हो उठी है । मेरे नए पोस्ट पर अपनी प्रतिक्रिया देकर मेरा भी मनोबल बढाएं । ।धन्यवाद । .
bahut sundar rachana hai...
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