मैंने न जाने कितने ही दांव खेले
अपनी चाहतों की अकुलाहट को
सहलाने के लिए कितनों को ही
अस्त-व्यस्त कर दिया....!
और निरंकुश मन की न होने पर ...
संघर्षों से घबराकर
मौत मैं तुझे मांगती रही ...!!
सोचती थी
दुखों से भागकर
तुमसे आलिंगन
कर लुंगी...
तुम तो तत्परता से
अपना ही लोगी मुझे !
मगर आज...
आज जब आँखों में
अन्धकार है
साँसों के उठाव में
विषमता है.
देह का ताप
शिथिल हो चला है ...
तो ....
मेरा घर !
मेरे बच्चे !
मेरे मित्र !
मेरे आभूषण !
मेरे कपड़े !
मेरी चाबियां !
मेरी एश-ओ-आराम की चीजें !
ये सारा सामान
शनैः शनैः
मुझे अपनी ओर
खींचते हैं.
चिर शान्ति के लिए
मन की यह अशांति भी
कितनी भयावह है !
चिर निद्रे !
तुम भी कितनी आलसी हो
कैसी विडम्बना है
स्वतः कामना करके भी
आज तुमसे भी
संघर्ष है !
34 टिप्पणियां:
चिर शान्ति के लिए मन की यह अशांति भी कितनी भयावह है !
चिर निद्रे ! तुम भी कितनी आलसी हो कैसी विडम्बना है स्वतः कामना करके भी आज तुमसे भी संघर्ष
सुंदर प्रस्तुति,..
my recent post....काव्यान्जलि ...: कभी कभी.....
चिर निद्रे !
तुम भी कितनी आलसी हो
कैसी विडम्बना है
स्वतः कामना करके भी
आज तुमसे भी
संघर्ष है !
बेहद गहन अभिव्यक्ति।
माया मोह आदमी को कभी नहीं छोड़ता, और जब इस बंधन से छुटकारा मिल जाता है फिर तो समझिए कि सीधे सत्य से ही साक्षत्कार हो गया।
कविता पठन में कुछ आध्यात्मिक अनुभूति हुई, पता नहीं आपने किस भावभूमि पर इसकी रचना की है, लेकिन शिल्प और भाव सौन्दर्य के आधार पर मैं इसे आपकी उत्कृष्ट रचनाओं में से एक मानता हूं।
स्वाभाविक द्वन्द और चाह की जीत
चिर शान्ति के लिए
मन की यह अशांति भी
कितनी भयावह है !
यह अशांति वास्तव में कितनी भयावह होती है इसका अनुभव भुक्तभोगी ही जानता है ! गहन गम्भीर भावभूमि पर एक बेहतरीन रचना का सृजन किया है आपने अनामिका जी ! बहुत सुन्दर !
बहुत अच्छी रचना है
नीरज
अनामिका बहन,
बहुत ही अच्छी कविता है.. बहुत ही गहरे हैं भाव.. दरसल मौत या ज़िंदगी हमारा चुनाव है ही नहीं.. ये विधाता का लिखा नाटक है जिसमें सारा नाटक लिखा हुआ है.. हमें अदाकारी करने का तो अधिकार है, कहानी में हेर-फेर का अधिकार नहीं..
हमारे ब्लॉग जगत के एक वरिष्ठ ब्लॉगर हैं, जिन्होंने बातचीत के दौरान मुझे बताया कि उन्होंने सात बार.. जी हाँ सात बार मौत को गले लगाने की कोशिश की, मगर हर बार विफल रहे.. परमात्मा उन्हें लंबी उम्र दे!!
इसलिए नियति के लेख को हम बदल नहीं सकते, सिर्फ एक्टिंग करना हमारी नियति है!!
स्वयं को खोज लेने को प्रेरित करती कविता की पंक्तियाँ।
संवेदनशील रचना अभिवयक्ति.....
सुन्दर पंक्तियाँ
चिर निद्रे !
तुम भी कितनी आलसी हो
कैसी विडम्बना है
स्वतः कामना करके भी
आज तुमसे भी
संघर्ष है !
Aah!
खुद का खुद से संघर्ष .....मन की पीढा को ओर बड़ा देता हैं ......
माया का बंधन इतना जकड लेता है कि उससे छुटकारा पाना आसान नहीं होता. फिर अंतस की आवाज सुनने का प्रयास तो करना ही चाहिये.
सुंदर भावपूर्ण प्रस्तुति. बधाई अनामिका जी.
कैसी विडम्बना है
स्वतः कामना करके भी
आज तुमसे भी
संघर्ष है !
Vicharniy Panktiyan
अंतर्द्वंद्व को अच्छी अभिव्यक्ति दी है आपने - मोह से मुक्त होना बहुत कठिन है-किसीन किसी रूप में घेरे ही रहता है !
मन के द्वंद्व को अभिव्यक्त करती अच्छी रचना
चिर निद्रे !
तुम भी कितनी आलसी हो
कैसी विडम्बना है
स्वतः कामना करके भी
आज तुमसे भी
संघर्ष है !
आखिरी समय तक यह मोह कहाँ छूटता है !
भावपूर्ण !
चिर निंद्रा किसी की गुलाम नहीं होती ...
दरअसल अवायाम कों बचा के रखना होता है .. किसी के लिए भी दाव पे खेलना ठीक नहीं ...
गहन और गहन इस पोस्ट के लिए क्या कहूँ......निशब्द हूँ.....हैट्स ऑफ ।
मन में उठ रहे द्वन्द को भलीभांति कविता में उकेरा है आपने जीवन मोह माया से कभी मुक्त नहीं होता खुद से भाग कर कहाँ जाना और चिर निद्रा ही परेशानियों का समाधान नहीं
चिर शान्ति के लिए
मन की यह अशांति भी
कितनी भयावह है !
द्वन्द की सुन्दर प्रस्तुति ...
मृत्यु को सामने देखकर संसार याद आता है और संसार के दुखों से घबराकर मृत्यु याद आती है...तो क्यों न जीते जी मरा जाये...सुंदर कविता!
चिर निद्रे !
तुम भी कितनी आलसी हो
कैसी विडम्बना है
स्वतः कामना करके भी
आज तुमसे भी
संघर्ष है !
MY RECENT POST ,...काव्यान्जलि ...: आज मुझे गाने दो,...
bahut hi sundar prastuti lagi abhar anmika ji ....sath hi Anita ji ki bebak tippani to bikul asar kr gyee ...ap dono ko badhai .
बहुत ही अच्छी अभिव्यक्ति.
माँ है मंदिर मां तीर्थयात्रा है,
माँ प्रार्थना है, माँ भगवान है,
उसके बिना हम बिना माली के बगीचा हैं!
संतप्रवर श्री चन्द्रप्रभ जी
→ आपको मातृदिवस की हार्दिक शुभकामनाएं..
आपका
सवाई सिंह{आगरा }
दिल भारी हो गया पढ़ कर.....................
:-(
मगर कभी कभी जब नकारात्मक परिस्थितियाँ घेर लेतीं हैं तो ऐसे ही ख़याल आते हैं.......
मगर जीवन तो जीने का नाम है............क्यूँ ना हम बदल डालें हालातों को.........
:-)
सस्नेह.
मगर आज...
आज जब आँखों में
अन्धकार है
साँसों के उठाव में
विषमता है.
देह का ताप
शिथिल हो चला है ...
तो ....
आज जब संसार विश्व परिवार दिवस मना रहा है, ऐसे अवसर पर इस कविता को जब पढता हूं, तो इसका अर्थ खुल कर सामने आता है।
yahi to prakriti ka bidhan hai..ladte rahiye ebhidte rahto e pattharon ko cheerkar dariya se niklte rahiye..jindagi to bebafa hai ek din thukrayegee maut mahbooba hai apne sath lekar jaayegi..lekin samay se pahle nahi,,,,mahbooba bhee kayron se prem nahi karti hai...acchi rachna ke liye sadar badhayee aaur sadar amantran ke sath
मन में रचे बसे भावों का गहन वर्णन बहुत ही अच्छा लगा । मेरे नए पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।
anamika ji..... hmesha ki tarah ek aur prabhavshali rachna....
aap likhte rahen hum padhte rahenge....
http://bhukjonhi.blogspot.in/
चिर निद्रे !
तुम भी कितनी आलसी हो
कैसी विडम्बना है
स्वतः कामना करके भी
आज तुमसे भी
संघर्ष है !
ye paDH kar bahut kuch man me umaDane lagaa hai shaayad pichhale dino isee sthiti se gujaree hoon.
चिर शान्ति के लिए
मन की यह अशांति भी
कितनी भयावह है !
..अशांत मन को कहाँ कुछ भी भाता है ...
... अशांति की पीड़ा सच बड़ी भयावह है ...
..संघर्ष से भरे जीवन की यथार्थपरक प्रस्तुति
कल 19/05/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी http://nayi-purani-halchal.blogspot.in (यशोदा अग्रवाल जी की प्रस्तुति में) पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
bahut sundar
एक टिप्पणी भेजें