गिले -शिकवे करने आते बहुत
कर्मठ बनना किसी को गवारा नहीं
सुधार हो देश का, सबकी मंशा यही
व्यवस्था सुधारें किसी में ये दम तो नहीं
स्वार्थ सिद्दी को जेबें गरम करते बहुत
बाबू बन जेब से हाथ बाहर आते नहीं
पंच दिवसीय दफ्तर जाना भला सा लगे
हाय ! ओफ़िस कार्यकाल बढे न कहीं !!
दूसरों पर ऊँगली उठाना आसान
अपना गिरेबान तो कोई झांके सही
रोना भ्रष्टाचार का दिन रात रोते रहें
नैतिकता पे चल कोई उद्योग करते नही !!
ललचौहो की सत्ता के गुण है बड़े
दादागिरी से श्वेत सब काला करें
नंग नेता, अधिकारी से कोई लड़ता नहीं
असहाय जनता नारे बाजी करती नहीं !!
हाय हाय का रुदन मत करो
धीर धर, इस घडी को संयम रखो
बेसब्री की सुरा में न मतवाले बनो
नयी नीतियां गतिशील होने तो दो !!
वक्ते - नाजुक के दौर में है चमन
साथी मुल्कों से उठती हैं लपटें बड़ी
खरे,श्रमि नेता भी कम है बहुत
इनको भी आजमाइश करने तो दो !!
9 comments:
सामयिक और बेहतरीन रचना
मन की भावनाओं का दरिया बह चला इस कविता के माध्यम से. सुंदर प्रस्तुति. बधाई.
सुन्दर समसामयिक पंक्तियाँ
बहुत बढ़िया
बहुत बढ़िया
सही कहा है..
मौजूदा समय में धैर्य रख कर कार्य का आकलन करने की आवश्यकता है , हाय हाय की नहीं !
समयानुकूल कविता और सन्देश !
आपकी क़लम ने सचमुच समय को लिखा है - बहुत अच्छा, अनामिका !
समय के साथ भावनाओं का सुन्दर प्रवाह
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