मंगलवार, 10 जून 2025

“माँ " आस पास महसूस होती हो

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जाने क्यों आजकल अक्सर
माँ मुझमें चहल - कदमी सी करती 
महसूस होती हो

ख्वाबों में ही सही
मंद मंद मुस्काती तुम
उलझनों में फँसी मुझे
दिलासा देती हुई सी
परेशानियों की झाड़ियों से
हाथ पकड़ खींचती हुई सी
माँ आजकल अक्सर
मुझमें ही चहल कदमी करती सी
महसूस होती हो !!

रात के ख्वाबों में विचरती
गुमसुम बैठी माँ तुम्हें ही
बुन रही होती हूँ
और लगता है
कि पलभर को तुम्हारा साया
मेरे पास आया और निकल गया

जाने क्यों आजकल अक्सर
माँ मेरे आस पास चहल कदमी सी
करती महसूस होती हो !!

बच्चे भी ठिठोली कर कहते हैं
‘माँ ’ आजकल आप
अपनी माँ जैसी लगती हो
नानी जैसी बातें करती हो ,
नानी जैसी हँसती हो ,

और माँ मैं तब तुम्हारी
होठों के कोरों तक फैली
मुस्कान वाली तस्वीर देखती हूँ
और अपना ही अक्स पाती हूँ

“माँ " आजकल न जाने क्यूँ
अक्सर तुम
मुझमें ही चहल कदमी करती
महसूस होती हो !!

मंगलवार, 20 मई 2025

स्त्री और स्वाभिमान
















स्त्री अपना स्वाभिमान रौंद देती है
उस घर की ख़ातिर
जिसे मकान से घर बनाते हुए
उसने हज़ारों बार सुना ….
“निकल जाओ मेरे घर से “

अपने बच्चों के किए
घर में शांति बनाये रखने के लिए
गिर जाती है कितनी ही बार
अपनी ही नज़रों में,

हाँ …. उन्हीं बच्चों के लिए
जिन्हें अपना सर्वस्व देकर भी
माँ के नाम से नहीं
पिता के नाम से ही जाना जाता है !

सहती रहती है उस कामुक इंसान को
जिसने अपनी ज़िद्दी इच्छाओं की
कामुक भावनाओं के नाखूनों से
उसके लाल मिट्टी वाली
दिल की धरा को छीला है !

मूक आँखों में उन किरचनों का
दर्द समेटे,
झंझावातों से सुन्न हो चुकी
धमनियों से
थक जाती है सोचते सोचते …
कि कैसे भेड़िया बन जाता है पुरुष
अपने लिसलिसे, बुलबुलाते
कीड़ों को शांत करने के लिए …

कैसे स्वांग करता है, मनुहार करता है
मानो आसमान कदमों में रख देगा !

नहीं जानना चाहता जो
साथी की मर्जी
अपनी जिद्द की धुन में
मसल देता है रूह को भी !

आह ! कैसी विडंबना है …
बार बार
बालात्कार होता है
होती रहती है रूह लहूलुहान
अधेड़ उम्र के पड़ाव पर भी बार बार
फिर भी तमाम उम्र
उस रिश्ते को ढोती
इस रिसते मवाद का इलाज़ भी
नहीं कर सकती !

साथी….. साथी कहना तो मानो
साथी शब्द को ही गाली देना है
उसीके बदलाव की उम्मीद में
ख़ुद का अस्तित्व भी चीख चीख कर
बग़ावत कर रहा होता है
सारे बंधन तोड़ देने को
किंतु नहीं पकड़ पाती
अपनी अलग राह
कि….
जवान बच्चों का भविष्य है
नए रिश्तों के आगमन का बंधन है
समाज -परिवार की शरम, बंधन
बेड़ियां बन जाते हैं उसके
कठोर फैसलों में
और …… और वो
सहती रहती है …
सहती रहती है …
और बस सहती ही जाती है
अपने स्वाभिमान को रौंदना,
अपनी ही नज़रों में गिर जाना
बिछा ही देना स्वयं को
सुन्न धमनियों के साथ
मृत हो चुके शरीर के साथ
उस कामुक, अंध लोलुप
इंसान के सम्मुख
जिसे संसार उसका
जीवन साथी कहता है !


शनिवार, 30 नवंबर 2024

संतान

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चेहरे पर झुर्रियाँ

हिलते हुए दाँत 

आँखों पर चश्मा 

सर पर गिने-चुनें 

सफेद बाल ,

ख़ुद की पहचान खोकर 

जो तुम्हें पहचान दी है 

आज तुम्ही उन्ही माँ-बाप से 

उनकी पहचान पूछते हो। .

किचन की गर्मी, पसीना 

हाथ पर गर्म तेल के 

छींटे, कटने के निशान,

माथे पे बाम लगाये,

पैरों में दर्द सहती 

हाथों में करछी, बेलन लिये 

आज भी वही कर रही है 

जो पिछले 25-30 सालों से 

करती आ रही है 

फिर भी पूछती है

बेटा कुछ चाहिये….  !!

तुम ही उसकी जमा पूंजी हो

और तुम उस से  

उसकी जमा पूंजी पूछते हो  !

ख़ुद को मिटा कर 

जिसने तुमे बनाया

तुम उन से उनकी 

औक़ात पूछते हो ???

दो पैसे कमा, 

अपने कर्तव्यों से विमुख 

माता पिता को उनके कर्तव्यों का 

ज्ञान देते हो …..

उनके सुख दुख से अनजान

जरूरतों को दरकिनार कर

घर के चौकीदार बना

स्वयं के आनंद में डूबे 

अपनी संगिनी की 

भावनाओं से आद्रित 

मान-मनुहार करते

अपने माता - पिता के मान को 

खंडित करते हो

कैसी संतान हो ???

शनिवार, 10 जून 2023

शब्दों का सफर

















मै नहीं लिखती अब 
क्यूंकि, लिखने के लिए 
शब्दों को जीना पड़ता ह है । 

शब्दों को जीने के लिए
मनोभावों में कहीं गहरे तक 
उतरना पड़ता है। 

गहरे उतरने की क्रिया में 
तन्हाई से अटूट बंधन बनाते हुए 
जख्मों को उघाड़ उघाड़ कर 
कुरेदना पड़ता है । 

चीत्कार करते हुए 
एहसासो की वेदनाओं को 
शब्दों के वस्त्रों से सजा 
दर्द के मंच पर 
उतारना पड़ता है ........
तब कहीं जाकर जज़्बात 
कविता का रूप लेते हैं 
और इन शब्दों से 
कविता बनने तक का सफर 
बहुत रुलाता है मुझे 
इसलिए मैं अब नहीं लिखती  । 

क्यूंकि नहीं है पसंद मुझे 
जिंदगी को रुदन की पहरन में देखना 

क्यूंकि चाहे झूठी हंसी हंस कर ही 
पा लेती हूँ मैं विजय 
कुछ हद तक 
अपने अंदर के फैले नैराश्य से ,

भटका लेती हूँ 
अपनी व्याकुलता को 
अपनी मस्त चाल से 

पी जाती हूँ कड़वाहट 
अपने भीतर की ..........
गीतों की गुनगुनाहट से । 

संवार लेती हूँ 
विषाद  में डूबे मन को 
औरों को गले लगा कर ,,,,,
मुस्कुरा लेती हूँ 
खुद भी 
दूसरों को हंसा कर । 

इसलिए नहीं लिखती अब
क्यूंकि लिखने के लिए 
शब्दों को जीना पड़ता है  ।। 


मंगलवार, 20 सितंबर 2016

ओ रे पाकिस्तान

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सोते शेरों को मारने वाले
पीठ में छुरा घोंपने वाले
अब तू भी चैन से न सो पायेगा
तेरे घर में ही घुस के तुझे मारा जायेगा !!

तेरे लिए तो हमारी सेना बहुत
तोपों की गर्जन तेरे बस की नहीं
कायरता तेरी  इसी में दिखे
कि शहीदों को अपनाने का
तुझमे दम  भी नहीं !!

सब्र दिखाया अब तक हमने बहुत

पडोसी धर्म अब तक निभाया बहुत
17 के बदले 70 न मारें तो देखना
तुझे घुटनों पे ना लाये तो देखना !!
तू  जिस जुबां में समझता है
उसी जुबां में अब बात होगी
ना दोस्ती ना कोई फ़रियाद होगी
नेस्तनाबूत  अब तेरा वज़ूद होगा
और तेरी रूह कब्र की मोहताज़ होगी.

एक चीनी के पीछे
जो दो-दो बेटे गँवाए
ऐसी दोस्ती का भिखारी है तू
आतंकी के  मदारी का खिलौना बना 
ऐसा गर्त में गिरता अनाड़ी  है तू  !!
मत भूल  रे ए बुड़बक वतन 
युद्ध हुआ तो पिछड़ेंगे दोनों वतन
तब बाकी दुनियां हमारी बाप होगी
यही सोच सदा सभ्य रहे हम
प्रगति पथ पर चले, शांत रहे हम
मगर ओ अक्ल के सौदागर
अब तेरी ना कोई चाल कामयाब होगी !!

 

गुरुवार, 7 जनवरी 2016

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Sunita Khurana 
 
 

सोमवार, 29 जून 2015

माँ

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 छोटे थे तो
माँ के आँचल में
सिमटे रहते थे हम

ऑफिस जाती थी तो
पल पल घडी के कांटो को
निहारा करते थे हम
आके सीने से लगा लोगी माँ
उसी पल की चाहत में
उदास होते थे हम.

जवानी मस्तानी आई
हम मद मस्त होने लगे
आजादी की चाह लिए
दोस्तों में वक्त देने लगे.
हम बदल गए,
माँ बदली नहीं,
ऑफिस से लौट 
इंतज़ार करती रही 
पूछना, टोकना भी
कहाँ  भाता था माँ .
बेरुखी से कहना
क्यों बार बार पूछती हो माँ,
सोचते थे कि रात आये नहीं
दोस्तों से बिछड़ कर न जाएँ कहीं
ये आजादी यूँ ही चलती रहे
पापा घर बुलाने की जिद न करें।
आज माँ तुमसे दूर हूँ
नौकरशाही में माँ मजबूर हूँ ,
आज न तुम्हारी रोक टोक है
दिन रात दोस्त ही दोस्त हैं
आजादी भी माँ भरपूर है
घर भी है माँ
साजो-सामान भी है
पर माँ तू नहीं है
न तेरी आवाज़ है
इंतज़ार करती
वो तेरी न आँख है.

आज कोई कहने वाला नहीं
बेटा, तू कब आएगा,
कोई  पूछता नहीं  कि
बेटा, तू क्या खायेगा।
मैं भूखा रहूँ या
बीमार रहूँ
माथा चूम ले
गोद में भर के मुझे
मेरा दुख छीन ले
दूर तक भी कहीं
माँ वो तेरा साया नहीं .
आज तडफता हूँ
माँ तेरे साथ को
आज रोता हूँ
माँ मैं तेरे प्यार को
चंद पैसों की खातिर
माँ तुझसे दूर हूँ
आजादी है महंगी
माँ बहुत मजबूर हूँ !!
 

शनिवार, 14 मार्च 2015

आखिर तो इंसान हूँ ....

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दिल में चुभन हुई
तो मैं हंसने लगा
मानो  हंस के
चुभन को भुलाने चला ..

चुभन जख्म करने लगी
तो मैं खामोशी से
लब  सी गया
क्यूंकि आंसू दिखाने से
डरता रहा ..

रक्त रंजित किया ..
जख्मों ने छलनी किया
अश्क रुक न सके
आँख छलक ही गयी 

आखिर तो हाड-मांस का
पुतला हूँ मैं.
भावों के स्पंदन से
जलता बुझता हूँ मैं  !!

गुरुवार, 19 फ़रवरी 2015

एकाकीपन.......

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एकाकीपन के 
झंझावतों से 
स्वयं को मुक्त करने,
अंतस की खलिश 
को कम करने हेतु 
बड़ी बहिन समान
भाभी, माँ सी छाया
देने वाली सासु माँ
मन को अलोलित करने वाले
मासूम बच्चो से ,
और उन बाकी रिश्तों …
जो इस तिश्नगी पर
फोहे बनने को काफी थे ……
उस सब से मिल तो ली थी
मगर उफ्फ ये
दिल की आग से
तपा आँखों का पानी,
कुछ अनचाही तल्खियाँ,
और जिद्दी मनहूसियत
मेरे वजूद को काबिज किये रहे
और ये रूह जो
सिर्फ और सिर्फ
तेरे आगोश की, तेरे साथ की,
तेरे जज्बातों की, स्पर्श की
तपिश पाने के लिए
तड़फती ही  रही .....!!



शनिवार, 24 जनवरी 2015

ए दोस्त ........





मेरे वक्तव्य को 
अन्यथा न लेना दोस्त 
मेरी फितरत है 
जिसके लिए जैसा भाव है 
उसे उसका सौंप दूँ  
बिना लाग -लपेट के
कह देना मेरी आदत है। 


नहीं, दोषारोपित नहीं कर रही 
यह कह कर तुम्हे कि 
अधूरापन है दोस्त 
तुम्हारी मित्रता में।  

समय की, समाज की 
असह्य बेड़ियां हैं 
हमारे लिए दोस्त 
इसलिए विचलित मन 
बार बार तुमसे ही 
उलझ जाता है  !

बहुत कुछ बांटना चाहती हूँ 
तुम्हारे साथ ,
परन्तु हमारी  व्यस्तताये  
इस मैत्री को 
अल्पायु किये देने पर 
आमादा हैं !

अस्त -व्यस्त होते हुए 
मेरे यही मनोभाव 
व्याकुल किये रखते हैं मुझे  
और मैं स्वयं को 
हर संभव प्रयास करते हुए भी 
असमर्थ महसूस करती हूँ !!