Saturday, 10 June 2023

शब्दों का सफर

















मै नहीं लिखती अब 
क्यूंकि, लिखने के लिए 
शब्दों को जीना पड़ता ह है । 

शब्दों को जीने के लिए
मनोभावों में कहीं गहरे तक 
उतरना पड़ता है। 

गहरे उतरने की क्रिया में 
तन्हाई से अटूट बंधन बनाते हुए 
जख्मों को उघाड़ उघाड़ कर 
कुरेदना पड़ता है । 

चीत्कार करते हुए 
एहसासो की वेदनाओं को 
शब्दों के वस्त्रों से सजा 
दर्द के मंच पर 
उतारना पड़ता है ........
तब कहीं जाकर जज़्बात 
कविता का रूप लेते हैं 
और इन शब्दों से 
कविता बनने तक का सफर 
बहुत रुलाता है मुझे 
इसलिए मैं अब नहीं लिखती  । 

क्यूंकि नहीं है पसंद मुझे 
जिंदगी को रुदन की पहरन में देखना 

क्यूंकि चाहे झूठी हंसी हंस कर ही 
पा लेती हूँ मैं विजय 
कुछ हद तक 
अपने अंदर के फैले नैराश्य से ,

भटका लेती हूँ 
अपनी व्याकुलता को 
अपनी मस्त चाल से 

पी जाती हूँ कड़वाहट 
अपने भीतर की ..........
गीतों की गुनगुनाहट से । 

संवार लेती हूँ 
विषाद  में डूबे मन को 
औरों को गले लगा कर ,,,,,
मुस्कुरा लेती हूँ 
खुद भी 
दूसरों को हंसा कर । 

इसलिए नहीं लिखती अब
क्यूंकि लिखने के लिए 
शब्दों को जीना पड़ता है  ।। 


Tuesday, 20 September 2016

ओ रे पाकिस्तान

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सोते शेरों को मारने वाले
पीठ में छुरा घोंपने वाले
अब तू भी चैन से न सो पायेगा
तेरे घर में ही घुस के तुझे मारा जायेगा !!

तेरे लिए तो हमारी सेना बहुत
तोपों की गर्जन तेरे बस की नहीं
कायरता तेरी  इसी में दिखे
कि शहीदों को अपनाने का
तुझमे दम  भी नहीं !!

सब्र दिखाया अब तक हमने बहुत

पडोसी धर्म अब तक निभाया बहुत
17 के बदले 70 न मारें तो देखना
तुझे घुटनों पे ना लाये तो देखना !!
तू  जिस जुबां में समझता है
उसी जुबां में अब बात होगी
ना दोस्ती ना कोई फ़रियाद होगी
नेस्तनाबूत  अब तेरा वज़ूद होगा
और तेरी रूह कब्र की मोहताज़ होगी.

एक चीनी के पीछे
जो दो-दो बेटे गँवाए
ऐसी दोस्ती का भिखारी है तू
आतंकी के  मदारी का खिलौना बना 
ऐसा गर्त में गिरता अनाड़ी  है तू  !!
मत भूल  रे ए बुड़बक वतन 
युद्ध हुआ तो पिछड़ेंगे दोनों वतन
तब बाकी दुनियां हमारी बाप होगी
यही सोच सदा सभ्य रहे हम
प्रगति पथ पर चले, शांत रहे हम
मगर ओ अक्ल के सौदागर
अब तेरी ना कोई चाल कामयाब होगी !!

 

Thursday, 7 January 2016

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Sunita Khurana 
 
 

Monday, 29 June 2015

माँ

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 छोटे थे तो
माँ के आँचल में
सिमटे रहते थे हम

ऑफिस जाती थी तो
पल पल घडी के कांटो को
निहारा करते थे हम
आके सीने से लगा लोगी माँ
उसी पल की चाहत में
उदास होते थे हम.

जवानी मस्तानी आई
हम मद मस्त होने लगे
आजादी की चाह लिए
दोस्तों में वक्त देने लगे.
हम बदल गए,
माँ बदली नहीं,
ऑफिस से लौट 
इंतज़ार करती रही 
पूछना, टोकना भी
कहाँ  भाता था माँ .
बेरुखी से कहना
क्यों बार बार पूछती हो माँ,
सोचते थे कि रात आये नहीं
दोस्तों से बिछड़ कर न जाएँ कहीं
ये आजादी यूँ ही चलती रहे
पापा घर बुलाने की जिद न करें।
आज माँ तुमसे दूर हूँ
नौकरशाही में माँ मजबूर हूँ ,
आज न तुम्हारी रोक टोक है
दिन रात दोस्त ही दोस्त हैं
आजादी भी माँ भरपूर है
घर भी है माँ
साजो-सामान भी है
पर माँ तू नहीं है
न तेरी आवाज़ है
इंतज़ार करती
वो तेरी न आँख है.

आज कोई कहने वाला नहीं
बेटा, तू कब आएगा,
कोई  पूछता नहीं  कि
बेटा, तू क्या खायेगा।
मैं भूखा रहूँ या
बीमार रहूँ
माथा चूम ले
गोद में भर के मुझे
मेरा दुख छीन ले
दूर तक भी कहीं
माँ वो तेरा साया नहीं .
आज तडफता हूँ
माँ तेरे साथ को
आज रोता हूँ
माँ मैं तेरे प्यार को
चंद पैसों की खातिर
माँ तुझसे दूर हूँ
आजादी है महंगी
माँ बहुत मजबूर हूँ !!
 

Saturday, 14 March 2015

आखिर तो इंसान हूँ ....

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दिल में चुभन हुई
तो मैं हंसने लगा
मानो  हंस के
चुभन को भुलाने चला ..

चुभन जख्म करने लगी
तो मैं खामोशी से
लब  सी गया
क्यूंकि आंसू दिखाने से
डरता रहा ..

रक्त रंजित किया ..
जख्मों ने छलनी किया
अश्क रुक न सके
आँख छलक ही गयी 

आखिर तो हाड-मांस का
पुतला हूँ मैं.
भावों के स्पंदन से
जलता बुझता हूँ मैं  !!

Thursday, 19 February 2015

एकाकीपन.......

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एकाकीपन के 
झंझावतों से 
स्वयं को मुक्त करने,
अंतस की खलिश 
को कम करने हेतु 
बड़ी बहिन समान
भाभी, माँ सी छाया
देने वाली सासु माँ
मन को अलोलित करने वाले
मासूम बच्चो से ,
और उन बाकी रिश्तों …
जो इस तिश्नगी पर
फोहे बनने को काफी थे ……
उस सब से मिल तो ली थी
मगर उफ्फ ये
दिल की आग से
तपा आँखों का पानी,
कुछ अनचाही तल्खियाँ,
और जिद्दी मनहूसियत
मेरे वजूद को काबिज किये रहे
और ये रूह जो
सिर्फ और सिर्फ
तेरे आगोश की, तेरे साथ की,
तेरे जज्बातों की, स्पर्श की
तपिश पाने के लिए
तड़फती ही  रही .....!!



Saturday, 24 January 2015

ए दोस्त ........





मेरे वक्तव्य को 
अन्यथा न लेना दोस्त 
मेरी फितरत है 
जिसके लिए जैसा भाव है 
उसे उसका सौंप दूँ  
बिना लाग -लपेट के
कह देना मेरी आदत है। 


नहीं, दोषारोपित नहीं कर रही 
यह कह कर तुम्हे कि 
अधूरापन है दोस्त 
तुम्हारी मित्रता में।  

समय की, समाज की 
असह्य बेड़ियां हैं 
हमारे लिए दोस्त 
इसलिए विचलित मन 
बार बार तुमसे ही 
उलझ जाता है  !

बहुत कुछ बांटना चाहती हूँ 
तुम्हारे साथ ,
परन्तु हमारी  व्यस्तताये  
इस मैत्री को 
अल्पायु किये देने पर 
आमादा हैं !

अस्त -व्यस्त होते हुए 
मेरे यही मनोभाव 
व्याकुल किये रखते हैं मुझे  
और मैं स्वयं को 
हर संभव प्रयास करते हुए भी 
असमर्थ महसूस करती हूँ !!




Saturday, 13 September 2014

ये कैसी परिणति




नाज़ों से पाला 
दर्दों को झेला
देह को कटते
खुली आँखों से देखा
तब तुझे पाया था !

खून से लथपथ
अचेत, अधमरी सी
निर्बल सी काया को
अपने आगोश में
समेटा था
तब तेरी साँसों को
सम्बल मिल पाया था !

अपने पयोधरों से
तेरा रोम रोम सींचते
रातें आखों में काटते
तेरे लिए दुआएं मांगते
तेरे काँटों को चुनते 
तेरी इस माँ ने
तेरी ही खुशियों के लिए
रब की हर चौखट को
टेरा था !

लेकिन तूने
नव-यौवना बनते ही
घात-प्रतिघात कर
विश्वास की ड्योढ़ी को
तिरस्कृत कर
ममत्व का
निर्ममता से
प्रतिदान करते हुए
तनिक भी विचारा नहीं 

और 

अनजान युवान की मलिन,
लिस-लिसी, अशुचि पूर्ण
मिथ्या बातों में आ
देह की श्वेत चुनर को 
तार तार कर,जश्न मना
स्वयं तो उच्छिष्ट (अपवित्र) कर
अपनी ही धरती को
बंजर बना डाला !

आह ! ममता को सुवासित करने
की ये कैसी परिणति
कि  तेरी जननी
अपने ही अनुताप में
सुलगती, आज स्वयं के
अग्निस्नान को बाध्य है !!



Friday, 1 August 2014

चाँद पिघल रहा है

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चाँद की तासीर 
ठंडक लिए होती है 
तो क्यों आज 
पिघल रहे हो 
चाँद तुम … ?

जानती हूँ 
इस पिघलन में 
कितनी व्याकुलता है 
कितनी अपने ही टुकड़ो में 
टूटने की विवशता है     

कितनी वेदना को 
आत्मसात किया  होगा 
चाँद तुमने 
तब कहीं जा कर 
पिघलने पर 
मजबूर हुए होंगे. 

देखती हूँ 
तुमसे ही अवभासित  
तुम्हारी आँखों के तारे 
तुम्हारे ये तारे 
इतरा रहे हैं  
अपने रूप पर 

तुमसे अस्तित्व पाकर 
तुम में ही दाग दिखाते हैं  
तुम पर प्रहार कर  
तुमसे अपृक्त (विलग ) हो 
तुम्हे ही नगन्य बताते हैं  !!

आज के युग के ये तारे 
पूर्वाग्रहों में डूबे 
छद्य समाज से परिष्कृत 
कठुराघात करते 
टमकाते, मटकाते  
ओ चाँद, 
तुझे ही 
खंड खंड करते 
तेरी शीतलता को 
उच्छिन्न कर तुझे 

गर्माते ही जाते हैं !!



Saturday, 12 July 2014

वक्ते - नाजुक के दौर में है चमन ....














गिले -शिकवे करने आते बहुत 
कर्मठ बनना किसी को गवारा नहीं 
सुधार हो देश का, सबकी मंशा यही 
व्यवस्था सुधारें किसी में ये दम तो नहीं 

स्वार्थ सिद्दी को जेबें गरम करते बहुत 
बाबू बन जेब से हाथ बाहर आते नहीं 
पंच दिवसीय दफ्तर जाना भला सा लगे 
हाय ! ओफ़िस कार्यकाल बढे न कहीं !!

दूसरों  पर  ऊँगली उठाना आसान 
अपना गिरेबान तो कोई झांके सही 
रोना भ्रष्टाचार का दिन रात रोते रहें 
नैतिकता पे चल कोई उद्योग करते नही  !!

ललचौहो की सत्ता के  गुण है बड़े 
दादागिरी से श्वेत सब काला करें 
नंग नेता, अधिकारी से कोई लड़ता नहीं  
असहाय जनता नारे बाजी करती नहीं !!

हाय हाय का रुदन मत करो  
धीर धर, इस घडी को संयम रखो  
बेसब्री की सुरा में न मतवाले बनो 
नयी नीतियां गतिशील होने तो दो !!

वक्ते - नाजुक के दौर में है चमन 
साथी मुल्कों से उठती हैं लपटें बड़ी 
खरे,श्रमि  नेता भी कम है बहुत 
इनको भी आजमाइश करने तो दो !!