मन अक्सर यूँ सोचा करता है
पिछले जन्मों का कोई रिश्ता है
तुम संग जो गहरी प्रीत बढ़ी
रूह से रूह का कोई नाता है
बिन कहे ही दिल को आभास हुआ
जब रूह को कोई भी टीस हुई
फिर ना जाने क्यों मन टूटा
क्यों प्रीत में गहरी सेंध लगी.
पहले पहरों - पहरों की बातें
घंटों में सिमटनी शुरू हुई
आड़े आ गयी मजबूरियाँ सारी
दीवारें खिंच खिंच बढती गयी .
धीरे से समझाया मन को मैंने
कि ऐसा भी कभी होता है
साथी हो मजबूर बहुत तो
अरमानों को रोना होता है .
दबे पाँव फांसले आये
कई रूपों में दमन किया
अश्क प्रवाह बढते गए
कड़वाहटों ने फिर जन्म लिया.
विचारों के नश्तर यूं टकराए
जुबा के उच्चारण बदलने लगे
मन ने मन की नहीं सुनी
सुख - दुख भी अनजाने हुए .
इक दूजे को आंसू दे
दिल के जख्म सुखाने चले
मरहम जो देने थे आपस में
मवादों के ढेर जमाने लगे .
विकारों की ऐसी आंधी आई
भाव शून्य दिल होने लगा
आह ! कितने हम बदल गए
अश्कों से भी ना मैल धुला .
हर गम को नौटंकी समझे
रूह की बातें कहाँ रही
इतना प्यार गहराया देखो
रूह के रिश्ते चटक गए .
बस एक आखरी अरज है मेरी
एक करम और कर डालो
अंतिम बंधन जो शब्दों का है
विवशता की उस पर भी शिला धरो .
चाहत अपनी कर दो ज़ाहिर
अब कोई रिश्ता न शेष रहे
यादों की गंगा -यमुना में
ना इस रिश्ते का कोई अवशेष रहे