Saturday 17 July 2010

ज़िन्दगी के भरम ..

















ज़ख्म-ए-ज़िन्दगी को भरम में बहला भी ना सके
हंसी से खुद के घाव सहला भी ना सके !

रातों की तन्हाइयाँ जिन्दगी को चाटती गयी,
खुद के शव पे आंसू बहा भी ना सके !

बिस्तर की चादर में लिपट खुद को कफ़न तो दे दिए
हिज्र की जलन से मगर इस शव को जला भी ना सके !

बदनसीबियों के रुख हमारी ओर बढ़ते चले गए
दुनियाँ के मकड़-जाल से खुद को बचा भी ना सके !

दुर्वा सी अपनी जिन्दगी ज्यूँ चौखट की पायदान हो
झाड़ा, पोंछा, सजा लिया, घर के भीतर आ भी ना सके !

रफ्ता - रफ्ता जिन्दगी की शाम ढल गयी
आज तक हम अपना घर बसा भी ना सके !

49 comments:

राज भाटिय़ा said...

रातों की तन्हाइयाँ जिन्दगी को चाटती गयी,
खुद के शव पे आंसू बहा भी ना सके !

बहुत खुब सुरत लगी आप की यह गजल. धन्यवाद

kshama said...

रातों की तन्हाइयाँ जिन्दगी को चाटती गयी,
खुद के शव पे आंसू बहा भी ना सके !
Behad tees bhari rachana hai!

मनोज कुमार said...

इस ग़ज़ल को पढकर एकबारगी ऐसा लगा कि एक कवयित्री के तौर पर कुछ बहुत ही व्यक्तिगत निजी अनुभव से प्रेरित रचना है यह। आपकी अन्य रचनाएं भी अत्माभिव्यक्ति, स्वानुभुति की तरफ़ ध्यान खींचती रही हैं। किन्तु आप की रचनाओं से यह पता चलता है कि आप अपने मन के भावों को लिखती रही हैं, किन्तु उनमें समकालीन भारतिय स्त्री के दुख-दर्द को केन्द्र में रख कर लिखती रहीं हैं।
बेशक उन्हें पढकर किसी आधुनिक पेशेवर या समय के कदम ताल करती स्त्री का चेहरा सामने नहीं आता लेकिन ये सवाल सामने ज़रूर आ जाता है कि आज के स्त्री विमर्श की केन्द्रीय चिंता क्या है?

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

दुर्वा सी अपनी जिन्दगी ज्यूँ चौखट की पायदान हो
झाड़ा, पोंछा, सजा लिया, घर के भीतर आ भी ना सके !
--
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति!

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

जख्म-ए-जिन्दगी को भरम में बहला भी ना सके
हंसी से खुद के घाव सहला भी ना सके !

भला ज़ख्मों पर भी भ्रम होता है...

रातों की तन्हाइयाँ जिन्दगी को चाटती गयी,
खुद के शव पे आंसू बहा भी ना सके !

खुद के शव पर भला कौन रोया है?

बिस्तर की चादर में लिपट खुद को कफ़न तो दे दिए
हिज्र की जलन से मगर इस शव को जला भी ना सके !

हिज्र की जलन से मन जलता है ...शव नहीं

बदनसीबियों के रुख हमारी ओर बढ़ते चले गए
दुनियाँ के मकड़-जाल से खुद को बचा भी ना सके !

दुर्वा सी अपनी जिन्दगी ज्यूँ चौखट की पायदान हो
झाड़ा, पोंछा, सजा लिया, घर के भीतर आ भी ना सके !

यह बिम्ब अच्छा लिया है..पायदान....अरे शुक्र मनाओ की झाड पोंछ कर सजा तो लिया ..

रफ्ता - रफ्ता जिन्दगी की शाम ढल गयी
आज तक हम अपना घर बसा भी ना सके !

अभी शाम ही हुई है? और वो शव? वहाँ तो ज़नाज़ा उठा दिया....

:):):)

मजाक एक तरफ....

बहुत दर्द भरी रचना....इतना दर्द आता कहाँ से है? काश मुझे भी होता तो मैं भी ऐसी रचनाएँ लिख पाती ...

उदासी भरी शाम में जब
दिल तन्हा- तन्हा रोता है
कोई आ कर चुपके से कहता है
कि देखिये आगे क्या - क्या होता है...हा हा हा ..

vandana gupta said...

दर्द की बरसात कर दी आज तो……………………बेहद मार्मिक चित्रण्।
हर शेर एक कहानी सी कह गया।

Jandunia said...

शानदार पोस्ट

राजेश उत्‍साही said...

दुर्वा सी अपनी जिन्दगी ज्यूँ चौखट की पायदान हो
झाड़ा, पोंछा, सजा लिया, घर के भीतर आ भी ना सके !

आपकी इस गज़ल में एक यही शेर है जो जान है। सारी स्थिति का बयान करता है। मैं शायद इसे इस तरह कहता-

दुर्वा सी अपनी जिन्दगी ज्यूँ चौखट की पायदान हो
झाड़ा, पोंछा, सजा लिया, घर के भीतर भी ला ना सके !

शुभकामनाएं।

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

अनामिका जी, आपका कबिता हमको सुरू से उद्वेलित करता रहा है... हमको लगता है कि अईसा ओही लिख सकता है जो दर्द के समंदर का खारा पानी पूरा पी गया हो… तबे तो सब खारा पानी आँख से अऊर कलम से बहता है... आज आपके कबिता के बारे में कुछ नहीं बोलेंगे... ई भाव आपका पर्याय बन गया है... एगो फरमाइस, गुजारिस, सुझाव… कभी कोई खुसी का नग्मा लिखकर देखिए, सचमुच बहुत मज़ा आएगा...

सम्वेदना के स्वर said...

सारे जहाँ का दर्द हमारे जिगर में है – आज आपकी कविता पढकर बस यही कहने को जी चाहता है!!

Deepak Shukla said...

Man main koi dard agar ho..
To wo sabko dikhta hai..
Har ek shayar gazalen aisi,
dard main jab ho likhta hai..

Dard koi bhi use paalen nahi.. Varan uski dawa karen.. Varna jakhm nasur ban jate hain..

Deepak.

प्रवीण पाण्डेय said...

दर्द की छुअन लिये हुये पंक्तियाँ।

Ravi Kant Sharma said...

जीवन की सच्चाई के मोतीयों को बहुत सुन्दर तरीके से सहजता के धागे में पिरो दिया है।

Sadhana Vaid said...

आज तो आपने दर्द की इतनी बारिश कर दी कि मन भीग कर तर ब तर हो गया ! सुन्दर रचना और सशक्त अभिव्यक्ति ! बधाई एवं शुभकामनायें !

अमिताभ मीत said...

बढ़िया है !..

राजभाषा हिंदी said...

बहुत अच्छी प्रस्तुति।
राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।

रंजू भाटिया said...

bahut badhiya lagi aapki yah rachna bahut pasand aayi shukriya

हास्यफुहार said...

बहुत अच्छी प्रस्तुति।

Asha Lata Saxena said...

सुन्दर अभिब्यक्ति |
आशा

Akshitaa (Pakhi) said...

बहुत सुन्दर लिखा आपने...
___________________
'पाखी की दुनिया' में समीर अंकल के 'प्यारे-प्यारे पंछी' चूं-चूं कर रहे हैं...

Science Bloggers Association said...

जिंदगी के भरम को आपने बखूबी बयां किया है।
................
नाग बाबा का कारनामा।
महिला खिलाड़ियों का ही क्यों होता है लिंग परीक्षण?

कडुवासच said...

...लाजवाब ... बहुत बहुत बधाई !!!

शरद कोकास said...

अभी गुलाम अली की गाई गज़ल .. हम तेरे शहर मे आये हैं मुसाफिर की तरह ... " सुनते हुए इस गज़ल को पढ़ रहा हूँ .. यह भी अजीब है ...

कुमार राधारमण said...

यही जीवन की त्रासदी है। जहां मनुष्य सुख ढूंढता है,दरअसल वह वहां होता ही नहीं है और जब तक यह सत्य समझ में आता है,समय काफी कुछ हाथ से निकल चुका होता है।

संजय भास्‍कर said...

वाह !! एक अलग अंदाज़ कि रचना ......बहुत खूब

honesty project democracy said...

आपकी इंसानी सम्बेदनाये काबिले तारीफ है ,हमने आपको हर इन्सान के दुखों में साथ देते हुए महसूस किया है | ऐसी ही सम्बेदना जिस दिन हर किसी के अन्दर जाग उठेगा उस दिन कोई भी इस देश और समाज में दुखी नहीं रहेगा | सारे दुखों का मूल ही है इंसानी सम्बेदनाओं का मर जाना |

रचना दीक्षित said...

अरे अनामिका, इतना दर्द !!!!!!सेहत के लिए अच्छा नहीं है. पर ग़ज़ल तो लाज़वाब, दर्द भरपूर, अकेलापन आज भी उतना ही अकेला, मकान को घर बनाने कि ख्वाहिश अब भी बरक़रार.सुन्दर अभिब्यक्ति

Udan Tashtari said...

बिस्तर की चादर में लिपट खुद को कफ़न तो दे दिए
हिज्र की जलन से मगर इस शव को जला भी ना सके !


-एक दर्द भरी अभिव्यक्ति...दिल की गहराई से उठती.

M VERMA said...

बिस्तर की चादर में लिपट खुद को कफ़न तो दे दिए
हिज्र की जलन से मगर इस शव को जला भी ना सके !
दर्द की जुबान है यह रचना .. उफ ! इतना दर्द

सूर्यकान्त गुप्ता said...

रातों की तन्हाइयाँ जिन्दगी को चाटती गयी,
खुद के शव पे आंसू बहा भी ना सके !
बहुत सुन्दर रचना।

हिंदी साहित्य संसार : Hindi Literature World said...

बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति!


********************
'बाल-दुनिया' हेतु बच्चों से जुडी रचनाएँ, चित्र और बच्चों के बारे में जानकारियां आमंत्रित हैं. आप इसे hindi.literature@yahoo.com पर भेज सकते हैं.

मिताली said...

anamika ji... Shabd nahi mil rahe aapki gazal ki shaan me... Aapki sab rachnayein ek se badhkar ek hai, kya likhti hain aap... Is gazal ne bahut kuch yad dila diya... Dard aur shabdon ne milkar aankho me aansu la diye... Par aapki lekhni ke liye aapko shubhkamnayein...

वाणी गीत said...

कितना दर्द समेट लिया है दोनों हाथों से ...!

girish pankaj said...

apni kavitaa ke bahane aapne bahut se logon ke daard ka bayaan kar diyaa hai. sarthak kavita, sochane par vivash bhi karti hai yah.

नीरज गोस्वामी said...

दुर्वा सी अपनी जिन्दगी ज्यूँ चौखट की पायदान हो
झाड़ा, पोंछा, सजा लिया, घर के भीतर आ भी ना सके

वाह...क्या बात कही है...लाजवाब...
नीरज

वीना श्रीवास्तव said...

रफ्ता-रफ्ता जिंदगी की शाम ढल गई
आज तक हम अपना घर बसा भी न सके
बहुत अच्छा शेर

ज्योति सिंह said...

दुर्वा सी अपनी जिन्दगी ज्यूँ चौखट की पायदान हो
झाड़ा, पोंछा, सजा लिया, घर के भीतर आ भी ना सके !

रफ्ता - रफ्ता जिन्दगी की शाम ढल गयी
आज तक हम अपना घर बसा भी ना सके !
gahri tees liye hai magar likha bahut khoobsurat hai ,man ko chhooo gayi

Anonymous said...

बहुत खूबसूरत रचना

एक विचार said...

बहुत खुब सुरत...

Akanksha Yadav said...

बिस्तर की चादर में लिपट खुद को कफ़न तो दे दिए
हिज्र की जलन से मगर इस शव को जला भी ना सके !

....बड़ी अजीब दास्ताँ है....बेहतरीन पोस्ट. कभी हमारे 'शब्द-शिखर' पर भी पधारें.

दीपक 'मशाल' said...

परवीन शाकिर का अक्स नज़र आया इस पोस्ट में...

daanish said...

मन की भावनाओं को
शब्दों में ढालने की संवेदनात्मक प्रक्रिया
बहुत अच्छी मार्मिक रचना ....
अभिवादन .

निर्मला कपिला said...

बिस्तर की चादर में लिपट खुद को कफ़न तो दे दिए
हिज्र की जलन से मगर इस शव को जला भी ना सके !

दुर्वा सी अपनी जिन्दगी ज्यूँ चौखट की पायदान हो
झाड़ा, पोंछा, सजा लिया, घर के भीतर आ भी ना सके

रफ्ता-रफ्ता जिंदगी की शाम ढल गई
आज तक हम अपना घर बसा भी न सके
वाह क्या शेर घडे हैं। बधाई

पूनम श्रीवास्तव said...

dil ki gahraai se likhi aapki gazal dil ko andar tak ek ajeeb si tees se bhar gai.bahut hi lazwaab.
poonam

Avinash Chandra said...

areeeeee

mujhe itni der hui..

kitna achchha likha hai aapne...dard bhara hua hai mano yahin

डॉ. जेन्नी शबनम said...

bahut dard bhari jazbaati rachna, sundar shabd-sanyojan, badhai anamika ji.

CS Devendra K Sharma "Man without Brain" said...

ज़ख्म-ए-ज़िन्दगी को भरम में बहला भी ना सके
हंसी से खुद के घाव सहला भी ना सके !


रातों की तन्हाइयाँ जिन्दगी को चाटती गयी,
खुद के शव पे आंसू बहा भी ना सके !


बिस्तर की चादर में लिपट खुद को कफ़न तो दे दिए
हिज्र की जलन से मगर इस शव को जला भी ना सके !


बदनसीबियों के रुख हमारी ओर बढ़ते चले गए
दुनियाँ के मकड़-जाल से खुद को बचा भी ना सके !


दुर्वा सी अपनी जिन्दगी ज्यूँ चौखट की पायदान हो
झाड़ा, पोंछा, सजा लिया, घर के भीतर आ भी ना सके !


रफ्ता - रफ्ता जिन्दगी की शाम ढल गयी
आज तक हम अपना घर बसा भी ना सके !


puri rachna me kuch bhi esa nahi lag raha jiska sandarbh chhoda ja sake.........ek ek shabd jeevan ka pratibimb darshaata hua.........waakai dard me bhi khubsurti nazar aa rahi hai!!!!!!!

मनोज भारती said...

दर्द की इन्किशाफ़ ...बेहद दर्दभरी रचना ।

Kunwar Kusumesh said...

खूब लिखा है लिखती रहना.
उदगारों को कहती रहना.