समझे न कोई अपना, सब दीन नज़र से देखें
हों क्षमताएं असीम चाहे पर दोष अकूत आरोपें.
शमित किया जिसने भी अपनाया ,कटु स्वरों से गोंदा
सर्वस्व दिया अपना , पर अंत एकाकी पाया.
अभिमानी, पौरुष प्रखर दिखाता, सदा रौंदता आया,
हतभागी के भाग्य को हाय पौरुष ही डसता आया.
टकरा पाती काश ! क्रूर काल से करती अपनी हेठी,
अंतस की दहकी ज्वाला से इस पुरुष को भी दहका पाती.
भिखरी टूटी हर काल में, बटी सदा रिश्तों में,
फिर भी सदा रही पराई, चिर व्याकुल रही सदा मैं,
क्षुब्ध ह्रदय पगलाया, आज आवेशित हो गयी काया,
परिहास करूँ या लूँ प्रतिशोध, बस मन यूँ ही भरमाया.
अपमानित करते आये क्रूर ये मनोरंजन हमें बनायें,
संवेदना कहीं बची नहीं, ये क्या न्याय नीति अपनाएँ.
आदर्श नहीं हैं इनकी राहें, सदा अवसर को तकते,
क्षण में चटका रीती-नीति को, कौमार्य को ये हरते.
गुण-गरिमा, मर्दन, सब इनके लिए आरक्षित
स्वाभिमान, गौरव-गरिमा से हमें रखें ये वंचित.
पग-पग पर घात लगाये , शत्रु बन के बैठे
न कोई 'अरि' हो जिसका, नारी को यूँ परिभाषित करते.
अब प्रतिमान बदलने होंगे, दांव हमें भी लड़ने होंगे,
कुलीन नपुसकों के छल-बल अब निष्फल करने होंगे.
कुशल नीति के बाण भेद, पर्याय बदलने होंगे,
शोभा,मान, सुयश पाने को, विषम प्रयास तो करने होंगे.