Friday, 30 December 2011

"यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते"




समझे   न   कोई  अपना,   सब   दीन   नज़र  से  देखें 
हों   क्षमताएं   असीम  चाहे   पर  दोष  अकूत  आरोपें.
शमित किया जिसने भी अपनाया ,कटु स्वरों से गोंदा
सर्वस्व   दिया   अपना ,   पर    अंत   एकाकी    पाया.

अभिमानी,  पौरुष  प्रखर  दिखाता,  सदा  रौंदता आया,
हतभागी  के  भाग्य  को  हाय  पौरुष  ही  डसता  आया.
टकरा  पाती काश !  क्रूर  काल  से   करती  अपनी हेठी,
अंतस की दहकी ज्वाला से इस पुरुष  को भी दहका पाती.

भिखरी   टूटी    हर   काल  में,   बटी   सदा   रिश्तों   में,
फिर  भी  सदा  रही  पराई,  चिर  व्याकुल  रही  सदा मैं,
क्षुब्ध  ह्रदय  पगलाया,  आज आवेशित  हो  गयी काया,
परिहास  करूँ या लूँ प्रतिशोध, बस  मन  यूँ ही भरमाया.

अपमानित  करते आये  क्रूर  ये  मनोरंजन  हमें  बनायें,
संवेदना  कहीं  बची  नहीं, ये  क्या  न्याय नीति अपनाएँ.
आदर्श   नहीं  हैं   इनकी  राहें,  सदा  अवसर  को  तकते,
क्षण  में  चटका   रीती-नीति  को,  कौमार्य  को  ये  हरते.

गुण-गरिमा,    मर्दन,    सब    इनके     लिए    आरक्षित
स्वाभिमान,   गौरव-गरिमा    से    हमें   रखें   ये  वंचित.
पग-पग     पर    घात    लगाये ,   शत्रु     बन    के    बैठे 
न कोई  'अरि' हो जिसका,  नारी को यूँ परिभाषित करते.

अब   प्रतिमान  बदलने  होंगे, दांव  हमें  भी  लड़ने  होंगे,
कुलीन  नपुसकों के  छल-बल अब निष्फल  करने  होंगे.
कुशल   नीति    के   बाण   भेद,  पर्याय    बदलने    होंगे,
शोभा,मान, सुयश पाने को, विषम प्रयास तो करने होंगे.




Wednesday, 21 December 2011

आह ! वो बचपन

















वो गालों पे 
उँगलियों के निशान..
वो मार खा कर
सूजे-सूजे होंठ,
कंप-कपाता मन,
डर के मारे...
अश्रुओं से 
भीगा वो चेहरा
मुझे भूलता ही नहीं है. 

रूह की अन्तः वेदना 
मन के आँगन तक  को
गीला कर जाती हैं .
असहाय दग्ध भाव
छटपटाहट की 
चरम सीमा तक 
पहुँच कर
अंतर्नाद करते हुए 
मुझे..
तार - तार कर जाते हैं.

आह ! माँ के प्यार की 
वो भूख..
जो मेरी जिंदगी की 
तृष्णा बन गयी है.

उम्र का वह पड़ाव,
जब प्यार का भरपूर पानी 
जड़ों को मजबूत बना देता है...
मगर वो बचपन का प्यार 
जिन्दगी पा न सकी....
और ...
न मिली खुराक
मेरी रूह को..
और खुश्क रह गयी..
ये जिन्दगी.

आह ! ये विडम्बना....!
आह ! वो दीन-हीन बचपन ...!
और ये अविकसित वजूद...!!

मन के आँगन को 
इस भूख की तृष्णा 
आज भी 
गीला किये जाती है. 


Friday, 9 December 2011

इंसान सौदे बाज़ी से बाज़ आता नहीं.




कितने    सौदेबाज़    हो   गए   हैं   हम 
भगवान  से भी सौदे बाज़ी करते हैं हम.
भगवन  ये  कर दो,  तो   मैं  ऐसा  करूँ..
वो  कर दो...तो  गरीबों  का  लंगर  करूँ.

एडवांस  में   कभी   चढ़ावा  चढाते  नहीं
कभी अग्रिम भोज भी उसको कराते नहीं.
सदा मांगते  हैं,पर धन्यवाद भी देते नहीं. 
बिलबिलाते  हैं  तो कोसने से छोड़ते नहीं.

देखो तो ईश से बड़ा आज इंसान  हो गया 
अग्रिम  रिश्वत  बिना  जो सुनता ही  नहीं 
दाम  लेकर  भी  भयादोहन  करता  है ये.  
बिन नाक रगड़े मदद किसीकी करता नहीं.

भगवान्  को एडवांस कभी हम भरते नहीं
उसके  कोप  से भी  मगर हम  डरते  नहीं.
कोसते हैं, तिस पर सौदे बाजी करते हैं हम
आडम्बर    के    घंटे     बजाते    हैं   हम.

कभी   विचारते  नहीं  कि  अकेला  है  वो ...
फिरभी अरबों-खरबों की झोली भरता है वो 
भूखे   जन्मे    को     भूखा   सुलाता   नहीं..
मगर इंसान सौदे बाज़ी से बाज़ आता नहीं.


Friday, 2 December 2011

कुलबुलाहट...



कुंठाओं से लिजलिजाती सोचें 
नाज़ुक मन पर 
तुषारापात करती हैं,
व्याकुल ह्रदय 
अपनी ही भटकन में खोया  
सहारा ढूँढने की 
कोशिश करता है...
वहीँ...
हाँ वहीं .... मेरे हर सुख-दुख को 
संबल देते 
बस तुम ही तुम 
नज़र आते हो.


मगर तुम्हारा 
मगरूर, पुरुशोच्चित स्वभाव
तुम्हारे  करीब आने की
मेरी इच्छा को 
कुचल देता है !


मौन व्यथा से 
अकुलाता, 
एकाकीपन में घुटता,
स्वयं को 
हीनता के आवरण में 
लिपटाता...
मेरा मन  
एक अनजाने,
असीम
अन्धकार में 
खुद को डुबो देता है.


और तब ....


तब शुरू होता है 
जिन्दगी से वैराग्य,
सब संबंधों को 
तोड़ फेकने की 
कुलबुलाहट !


मानो....
जिन्दगी के 
रेगिस्तान के थपेड़ों से 
हारा बटोही 
जीवन की 
नश्वरता को 
अपनाता हुआ 
अब बस 
विलीन हुआ चाहता हो !





Wednesday, 23 November 2011

अलग दुनियां




रहमत करने वाला
थोड़ा रुसवा क्या हुआ 
इंसा भी अपना 
धर्म भूल गया 
इसमें जन्म लेने 
वाले का क्या दोष 
फिर भी उसने ना 
अपनों को 
शर्मिंदा किया.
रहा वो सदा 
मस्त 
अपनी अलग 
दुनियां में 
हमसे  तो कोई 
गिला न किया. 

कहते हैं  
ख़ुशी बांटने से 
बढती है...
बस इसी 
लीग पर वो 
चलता रहा. 
हमारी हर 
ख़ुशी हम से 
सांझा करता चला 
गली, मुहोल्ले में 
ढोलक की थाप पर 
नाचता औ नचाता गया .

क्या ले जाते हैं 
हमारा तुम्हारा
ये लोग ..
होठों पे हंसी दे 
दुआएं ढेरो 
दे जाया करते हैं
ये लोग .
आज इन्हें  भी 
बस कुछ दुआ चाहिए  
मौत के चुंगल  में 
आ चुके  हैं जो 
उन बन्दों को बन्दों की 
बस थोड़ी सी 
रहमत चाहिए.



Monday, 14 November 2011

लौट आओ.. मेरे देवता !



मैंने सुना था 
कि प्रेम सबके 
भीतर ही है
उसी, स्वयं के प्रेम  को 
पाने और तृप्त होने के लिए 
एक मूर्ती का निर्माण किया था.

अपने असीम आनंद और 
विश्वास के साथ 
इस अराध्यदेव की 
ह्रदय -वाटिका में 
प्रतिष्ठा की थी.

प्रेमाश्रुओं के स्नान 
और अनुराग की धूप से 
उपासना की थी.
उपास्यदेव से  
तादाम्य बनाए रखने  के लिए 
श्रद्धा फूलों की वर्षा भी 
स्थिर मन से 
करती रही.

लेकिन मेरा दुर्भाग्य से 
निरंतर संघर्ष रहा 
और तेरी उदासीनता व् 
अकृपा दुराग्रह बन कर 
मेरे प्रेममयी जीवन पर 
काले मेघ सी  मंडराने लगीं . 

सुखद स्मृतियाँ जलने लगी हैं.
मेरा खोया हुआ प्रेम 
अनंत विरह का 
महासागर हो गया है.
मेरा मन मंदिर 
सूना, प्राणहीन हो चला है .
मैं स्वयं  भग्न-हृदया,
एक उजड़ा हुआ 
भूतहा खंडर सी हो गयी  हूँ.

मैं तुझ में समाना चाहती हूँ,
तेरी आसक्ति  में घुलना चाहती  हूँ,
मेरी साधना तेरे चरण-स्पर्श 
की ओर खींचती है.

हे देव ! मेरे मन के 
नयनों में आ जाओ.
मेरे ह्रदय में स्पंदित हो जाओ.
प्रेम और तृप्तता को
अभीष्ट कर,
मुझे प्रकाश दो 
लौट आओ..
लौट आओ..
मेरे देवता !

लौट आओ.. मेरे देवता !








मैंने सुना था 
कि प्रेम सबके 
भीतर ही है
उसी, स्वयं के प्रेम  को 
पाने और तृप्त होने के लिए 
एक मूर्ती का निर्माण किया था.

अपने असीम आनंद और 
विश्वास के साथ 
इस अराध्यदेव की 
ह्रदय -वाटिका में 
प्रतिष्ठा की थी.

प्रेमाश्रुओं के स्नान 
और अनुराग की धूप से 
उपासना की थी.
उपास्यदेव से  
तादाम्य बनाए रखने  के लिए 
श्रद्धा फूलों की वर्षा भी 
स्थिर मन से 
करती रही.

लेकिन मेरा दुर्भाग्य से 
निरंतर संघर्ष रहा 
और तेरी उदासीनता व् 
अकृपा दुराग्रह बन कर 
मेरे प्रेममयी जीवन पर 
काले मेघ सी  मंडराने लगीं . 

सुखद स्मृतियाँ जलने लगी हैं.
मेरा खोया हुआ प्रेम 
अनंत विरह का 
महासागर हो गया है.
मेरा मन मंदिर 
सूना, प्राणहीन हो चला है .
मैं स्वयं  भग्न-हृदया,
एक उजड़ा हुआ 
भूतहा खंडर सी हो गयी  हूँ.

मैं तुझ में समाना चाहती हूँ,
तेरी आसक्ति  में घुलना चाहती  हूँ,
मेरी साधना तेरे चरण-स्पर्श 
की ओर खींचती है.

हे देव ! मेरे मन के 
नयनों में आ जाओ.
मेरे ह्रदय में स्पंदित हो जाओ.
प्रेम और तृप्तता को
अभीष्ट कर,
मुझे प्रकाश दो 
लौट आओ..
लौट आओ..
मेरे देवता !

Wednesday, 2 November 2011

क्या मैं गलत हूँ ?




मतभेदों से उठती 

वेदनाओं से 
मैं अस्त-व्यस्त सी हूँ.
मेरे  उपालंभों को 
गलत आकार दे 
तुम सदा भटके राही की तरह 
कर्कशता और कुप्ता के 
भाव लिए 
विकारों को जन्म देते गए 
और फासले बढाते गए .
कभी इन उलाहनों  में 
छिपी आत्मीयता  की 
गमक को जानने की 
कोशिश नहीं की .
जब तक ये निजता की 
सुवास है, 
प्यार की प्यास है ....
ये शिकायतों का 
व्यापार  चलता रहेगा. 

क्या कभी गैरों से 
कोई शिकायत करता है ?
क्या ऐसा नहीं लगता कि 
मन  की उलझनों को,
गांठों को , 
खुशियों को ,
अवसाद को 
गर सांझा ना करुँगी तो 
कुछ परायापन आ जायेगा,
रिश्तों में कुछ बनावट,
कुछ ठहराव सा 
आ जायेगा .

 मैं सदा इस अलीक 
दीवार को  डहाने के  लिए , 
इस परायेपन की  
बांस को बुहारने के लिए,
प्रयासरत...
आज  तुमसे 
विद्रोह  करने का 
साहस कर , 
तुम्हारी  दिशा विहीन सी 
भटकन को रोकना 
चाहती हूँ...!

इसी अश्रांत चेष्टा में 
हर बार
मेरी भावनाओं  
के मेघ तुम्हारे  
कठोराघातों से 
छुई-मुई हो 
फूटते रहे हैं ....
और पलकों का 
अविरल प्रवाह 
बेबसी के अंगारों  सी 
जलन लिए सोचता है 
कि  क्या मैं गलत हूँ ?

Thursday, 20 October 2011

अमरप्रेम का दीपक

साथियो आज बहुत दिनों बाद अपनी तबीयत के कोप से बच कर आप की दुनियां में लौटना हो पाया और कैसे ना लौटती आखिर आप सब की टिप्पणियां प्यार स्वरुप ही तो हैं  जो मुझे यहाँ खींच लाती हैं, तो बताइए फिर  भला मैं  आप सब से कैसे दूर रह  सकती हूँ ..

तो चलिए आज फिर से अंतरजाल की दौड़ में शामिल हो जाती हूँ ....और अपना काम  आरम्भ करते हुए, आप सब के ब्लोग्स तक पहुँचते हुए,   राजभाषा हिंदी  पर भी अपने लेख को क्रमबद्ध करते हुए महादेवी जी के जीवन रुपी आभामंडल को विस्तार देते हुए  आपके साथ अपनी  यह नयी रचना साँझा करती हूँ ...
 
अमरप्रेम का दीपक




तू भावों की थाली सजा
आस दीप में 
कम्पायमान अरमानों की 
लौ को प्रखर कर 
जिन्दगी को उजास देती है.

तेरी  आशाओं के रेशे 
तमन्नाओं   को दुलराते हुए 
तेरे मुख-मंडल पर 
जीने की ममता को 
जीवित रखते हैं.

किन्तु मैं अपने जीवन की
चिलचिलाती धूप से क्लांत 
तेरे सामीप्य की 
कल्पना में लिपटा
अपने ही अश्रु कणों को 
तेरी उँगलियों के 
स्पर्शमात्र से 
हिमकण बना
थोड़ी सी ठंडक 
पा लेने की 
चाह लिए 
चुपचाप तुझ में लीन
तेरी सोचें बुनता हूँ.

मैं अपने व्यथित 
आलोल मन को 
उग्रता से दौड़ाता  हुआ 
एकाकीपन की 
कोठरी में पड़ा,
अरमानों की अस्थिरता 
में डूबा 
तेरे आस दीप की 
प्रखर लौ संग 
इस प्यार की 
अमरता को आँका करता हूँ.




देख इन अंधेरों को,
एकाकीपन को ,
क्षीण होती इस वय को,
मेरी सांसों के 
वेग में छुपे 
जीवन-मरण के 
चिन्हों को... 
कि कैसे 
यह अमरप्रेम का दीपक 
नश्वरता को 
पाथेय बना
समाधिस्थ  होने को है.



"आप सब को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं" 

Tuesday, 11 October 2011

कमल के फूल




क्यों इक हूक सी 
दिल में उठती है,
क्यों इक आस, सदा 
ताना-बाना बुनती है 
जितना भी निचोड़ दूँ 
दिल को 
हर सोच तुझ पर ही 
आकर क्यों रूकती है ?

क्या मैंने कभी 
जफा की थी ?
क्या मैंने कभी
बेरुखी दी थी ?
क्या मैंने चुभाये थे 
कभी नश्तर ?
क्या मैंने हिज्र की 
सर्द कोई शब् दी थी ?

missing-you-wallpaper.jpg image by foxterier

फिर क्यों मेरे 
नसीब के कागज़ पर 
तूने तमाम दर्द 
लिख डाले ?
क्यों मेरी पेशानी पर ही 
बदकिस्मती  के 
नक़्शे गढ़ डाले ?

मैं हर लम्हा 
क्यों इंतजार में जलती हूँ ?
तुझे मुझसे प्यार नहीं, तो 
मैं क्यों इस प्यार में 
सिसकती हूँ ?




क्यों फूट आते है 
वेदना के ये बूटे 
बार - बार 
मेरे मन की ओढनी पर 
देख जिन्हें मैं दिन रात 
आराम अपना  
खो देती हूँ 
और फिर  से  
समझाती हूँ दिल को 
हर - बार 
कि क्यों कमल के 
फूलों से 
प्यार की खुशबू 
की आशा रखती हूँ.


Tuesday, 4 October 2011

अश्रु आहड़





मैं ही शायद 
तुम्हें नहीं समझ पायी.
तुमने तो पहले ही दिन 
मुझे अश्रु  आहड़ भेंट किया था,
प्रणय निवेदन से अब तक  सतत  
भरती आई हूँ उसे 
तुम्हारी ही कृपा से .




लेकिन बहुत बार ऐसा भी हुआ 
कि तुमने उसमें  
अनुराग की सुगंध इतनी भरी   
कि मैं पागल हिरणी सी 
मृगतृष्णा लिए 
तुम्हारे पीछे 
आकुल, व्याकुल सी 
मंजिल से भटके 
पथिक की भाँती 
दौड़ती चली गयी.

लेकिन क्या मिला मुझे
इस मरुस्थल में ?
उस सुवास  को  
पा लेने की जिद्द 
और इस इन्तजार के 
घने जंगलों में 
छटपटाते हुए 
बेबस हो, मैं .....
अनवरत 
सूखती चली गयी .

आज भी मैं  
अपने सूख चुके 
जर्द अरमानों 
की तडतड़ाहट का 
शोर सुन - सुन कर 
तड़प उठती  हूँ.

आज तुम्हारे 
भेंट किये गए  
अश्रु आहड़ से 
अविरल प्रवाह को 
रोकने का 
ना कोई 
ओर मिलता है 
ना कोई छोर 
क्यूंकि ...
मुझमे इतना 
भी  साहस  
नहीं  कि
इस भेंट को 
अपने सूने पन
की समाधि पर 
होम कर दूँ.


Tuesday, 27 September 2011

चूड़ियाँ पहन लो बाबू....



चूड़ियाँ पहन लो बाबू
तुम सबको चूड़ियाँ पहनाउंगी  ...

इटली की मैं 
कंगाल  सी वेटर 
बिलेनियर बन 
बहनों को अपनी 
माला-माल कर जाउंगी  
घांदी से गांधी बन
अंग्रेजों से रंग दिखाउंगी
नादिर और राबर्ट क्लाइव हैं क्या 
इस दौड़ में सबको पीछे छोडती जाउंगी 

चूड़ियाँ पहन लो बाबू
तुम सबको चूड़ियाँ पहनाउंगी  ...



कलमाड़ी ने पहनी 
राजा ने पहनी  
करूणानिधि को तो 
अँधा कर के जाउंगी ,
चिदम्बरम फिर चीज़ है क्या  

मनमोहन को भी 
जेल की हवा खिलाऊँगी 
चूड़ियाँ पहन लो बाबू
तुम सबको चूड़ियाँ पहनाउंगी  ...

पैसों के ये सब हैं पुजारी 
देश की  किसी को फिकर नहीं  
जनता गूंगी बहरी जिसकी 
बस अपनी अपनी सब को पड़ी 
पैसे के लिए देश चाट रहे
धरती माँ के कपूत बने 
चूड़ियाँ पहन लो बाबू
तुम सबको चूड़ियाँ पहनाउंगी  ...

सी. बी.आई. की 
औकात ही  क्या 
सारी जनता
आँखे मूंदे बैठी है ,
कहीं कोई एकता नहीं 
कुर्सी के डर से 
मिश्री वाणी में 
घोली है 
खेलों का चूना 
दिख रहा सबको 
फिर भी गाँधी की 
बन्दर बन के बैठी है 
चूड़ियाँ पहन लो बाबू
तुम सबको चूड़ियाँ पहनाउंगी  ...

हा.हा. कार  
मच गया गर जो 
सन '77   का 
इतिहास दोहराउंगी
पेरू की तरह 
मैं  भी इटली की 
नागरिकता दिखाउंगी 
लूट का सारा माल उड़ा कर 
मैं इटली उड़ जाउंगी 
चूड़ियाँ पहन लो बाबू
तुम सबको चूड़ियाँ पहनाउंगी  ...







Thursday, 22 September 2011

विश्वास........?



विश्वास ! विश्वास !  विश्वास ! 
किसे  कहूँ  विश्वास  ?

उसे कहूँ विश्वाश ...
जिसके मानक में  
मैंने 
हर छोटे से छोटे 
भाव को.....
विचार को, विकार को, 
मिलन को, प्यार को,
बेचैनी को, ख़ुशी को, 
खलिश को, तपिश को, 
रोमांच को, रोमांस को, 
शरारत को, मासूमियत को 
तुम्हारे पास ला कर 
सांझा  किया था  !

या उसे कहूँ .... 
तुम्हारे  मिथ्या वचनों 
को जानते हुए भी 
विभ्रमित किये रखा  
अपने मौन की परतों में जिसे  !

हाँ मानती हूँ 
कि अपने लंद-फंद
उपालंभों से 
क्षुब्ध किया मैंने ...
पर तुम नहीं  जानते 
कि तुम्हारी मिथ्या 
बातों पर 
मेरे ये मौन के  कांच 
कितने रक्त-रंजित 
करते रहे खुद मुझी को  !

तुम्हारे पूर्वाग्रह , 
तुम्हारी उहा-पोह,
तुम्हारी वर्चस्वता ने 
कैसे शमन किया 
मेरे वजूद का 
हर दम !

अब भी 
अनगिनत बाते हैं 
जो मैं जानती हूँ,
बतानी थी, पर  
नहीं बताई तुमने 
क्या विश्वास 
के यही  मानक  थे  ?

तिस पर  भी 
कहते हो ...
मैंने छुपाव किया ?
छल किया, 
विश्वासघात किया ?

मैं एकाकी रही 
और तुम महफ़िलों 
में गुनगुनाते रहे 
मैं विश्रांत रही 
अपलक तुम्हारे 
लौट आने की
उम्मीद लिए.
 
तुम  भूल गए 
तुमने खुद में 
कितने परिवर्तन किये
तुम भूल गए  
कितना विश्वास 
कायम किया तुमने ?
कभी अपने अन्दर 
झांक कर सच्चे 
दिल से कहो ...
विश्वासघात किसने किया ?

Thursday, 15 September 2011

बन्धनों से मुक्ति






तेरा विश्वास सदा 
आगे बढ़ने का रहा...
तूने बन्धनों से मुक्त हो 
अपने मन की सीमाओं के 
उस पर जाने का प्रयत्न किया
लेकिन बंधनों से मुक्त होना ही तो 
सफलता  नहीं है.

न ही आसक्ति के पहियों को कुचल,
इस प्रणय से विमुख 
हो जाने  मात्र से 
तेरी उस निराकार 
सफलता का मार्ग 
प्रशस्त होना है .

विरक्ति का मार्ग
अपना लेने भर से ही
सिसकियाँ और आहें
पीछा नहीं छोड़ेंगी.

तूने रहस्यों की गूढता को 
जानने का प्रयास ही 
नहीं किया.

अपनी साँसों को सुन
उनके संकेतो को सुन
इस से प्रेरणा ले
इसी में उल्लास भी है
और विश्वास भी.

इसे खुद में आत्मसात कर
इस सत्य का अनुभव कर 
जिसमे संतोष का योग है, 
तू बन्धनों से मुक्ति
के लिए अनेक कुंठाओं और 
विरोधों को जन्म दे कर 
नए राग को 
आरम्भ मत कर.



Wednesday, 7 September 2011

कैसी कैसी भेंटें



अंग्रेज़ चले गए 
लेकिन देखो 
कैसी कैसी भेंटें
हमको दे गए .

हम भी देखो
दिल से लगाए 
उन भेंटों  को 
कब से 
वफ़ा निभाते आये .



गद्दारी, लालचीपन,
बुजदिली, भेदभाव 
और  फूट डालना 
कितनी मुस्तैदी से 
हम करते आये .

घर के भेदी बैठे 
हर नुक्कड़ पर 
जो अपनी 
अंतरात्मा तक
बेच कर आये .

चंद पैसो में 
जमीर बेचते 
राजा भी तो 
राज-पाट  में 
देश के सौदे करते  आये .

कैसे ना पनपे कोई 
आतंकवादी 
कैसे ना कोई 
बम्ब विस्फोट हो जाये .
 

नज़र उठा के 
जहाँ तक देखो 
पार्लियामेंट क्या 
प्रधान-मंत्री तक 
गोलियों से भुनवाये.

नकली पासपोर्ट 
बनवा  के पहले ये 
खुद को  महमान बनवाएं 
गद्दारी के पाठ पढा कर  
भीतरी सुरक्षा को भी 
सेंध लगाएं .



विस्फोटक लगा लगा के
देखो 
सपूत हमारे 
भीड़ में ढेर करायें.

शिक्षा प्रणाली 
ऐसी बना गये 
कि देश अब तक 
उसे बदल ना पाए .

आज अपने ही   
भेस बदल कर 
देखो अपनो को  
लूट के खाएं .

कैसी देखो भेंटें 
दे गये 
हम दिल से 
 बैठे हैं 
उन्हे लगाये 
हम तो उनसे 
वफ़ा निभाते आये .

Tuesday, 23 August 2011

इन उदास चिलमनों में..





इन उदास चिलमनों में

तूफ़ान गुजरने के बाद के
उजड़े शहर की बर्बाद इमारतें हैं.


इन उदास चिलमनों में 
बाढ़ के बाद बचे चिथड़ों के नज़ारों से 
उठती दर्दनाक  सीलन है.




  वो नज़ारे जो कभी हीर- रांझा के                
                                                                वो किस्से जो शीरी-फ़रहाद के थे,
                                                                वो सब दफ़न हैं इन उदास आँखों में.




कभी चमक उठती हैं ये आँखे 
 उन खाबों की दुनियां में डूबकर 
  तो कभी बरसता है सावन भादो
इन गहरी पलकों की कुंजों से.

गुमां होता है  कभी  यूँ  कि 
देता है सदायें वो फ़कीर कहीं दूर से  
कभी सहमीं सी देखती हैं ये पनीली आँखे
डोली में सिमटी दुल्हन के घूंघट से.



रफ्ता रफ्ता फांसले बढ़ते हैं 
ज्यों रेगिस्तान के वीराने की तरह 
और भर जाता है मन
इस चिलमन की उदास नमीं से .