Thursday, 22 September 2011

विश्वास........?



विश्वास ! विश्वास !  विश्वास ! 
किसे  कहूँ  विश्वास  ?

उसे कहूँ विश्वाश ...
जिसके मानक में  
मैंने 
हर छोटे से छोटे 
भाव को.....
विचार को, विकार को, 
मिलन को, प्यार को,
बेचैनी को, ख़ुशी को, 
खलिश को, तपिश को, 
रोमांच को, रोमांस को, 
शरारत को, मासूमियत को 
तुम्हारे पास ला कर 
सांझा  किया था  !

या उसे कहूँ .... 
तुम्हारे  मिथ्या वचनों 
को जानते हुए भी 
विभ्रमित किये रखा  
अपने मौन की परतों में जिसे  !

हाँ मानती हूँ 
कि अपने लंद-फंद
उपालंभों से 
क्षुब्ध किया मैंने ...
पर तुम नहीं  जानते 
कि तुम्हारी मिथ्या 
बातों पर 
मेरे ये मौन के  कांच 
कितने रक्त-रंजित 
करते रहे खुद मुझी को  !

तुम्हारे पूर्वाग्रह , 
तुम्हारी उहा-पोह,
तुम्हारी वर्चस्वता ने 
कैसे शमन किया 
मेरे वजूद का 
हर दम !

अब भी 
अनगिनत बाते हैं 
जो मैं जानती हूँ,
बतानी थी, पर  
नहीं बताई तुमने 
क्या विश्वास 
के यही  मानक  थे  ?

तिस पर  भी 
कहते हो ...
मैंने छुपाव किया ?
छल किया, 
विश्वासघात किया ?

मैं एकाकी रही 
और तुम महफ़िलों 
में गुनगुनाते रहे 
मैं विश्रांत रही 
अपलक तुम्हारे 
लौट आने की
उम्मीद लिए.
 
तुम  भूल गए 
तुमने खुद में 
कितने परिवर्तन किये
तुम भूल गए  
कितना विश्वास 
कायम किया तुमने ?
कभी अपने अन्दर 
झांक कर सच्चे 
दिल से कहो ...
विश्वासघात किसने किया ?

40 comments:

रश्मि प्रभा... said...

या उसे कहूँ ....
तुम्हारे मिथ्या वचनों
को जानते हुए भी
विभ्रमित किये रखा
अपने मौन की परतों में जिसे !
.... tabhi to sari samasyayen uthti hain

आपका अख्तर खान अकेला said...

विश्वास को जिस विशवास के साथ परिभाषित किया है उससे हमे अब तो यह विशवास है के हमारी बहन बहतरीन साहित्यकार हैं ....अख्तर खान अकेला कोटा राजस्थान

रचना दीक्षित said...

कभी अपने अन्दर झांक कर सच्चे दिल से कहो ...विश्वासघात किसने किया ? विश्वास, अविश्वास और विश्वासघात क्यों ऐसी परिस्थितियां उपस्थित होती है जीवन में कि विश्वास अविश्वास में बदल जाता है. बहुत गंभीर संवेदनाओं से परिपूर्ण रचना प्रस्तुत की है अनामिका जी. बहुत बधाई.

वृजेश सिंह said...

भरोसे की नाक में
उसकी इस कदर दखलंदाजी हुई
कि विचारे का दम ही निकल गया

कविता तो बहुत अच्छी है
मगर हम इतने भी बेफिक्र नहीं कि
उनके पैतरों को न समझ पायें.

प्रवीण पाण्डेय said...

विश्वास का सुखद आश्रय पर पहुँचने की कठिन राह।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

भावपूर्ण अच्छी प्रस्तुति ...

कभी लिखी थी ये रचना ...विश्वास

विश्वास ,
यह शब्द कह कर
इंसान यह बता देता है
कि कहीं न कहीं
उसके जेहन में
अविश्वास है।

इंसान
ख़ुद ही शक पैदा करता है
और अपनी इस कमजोरी को
दूसरों पर
आरोपित कर देता है
यह कह कर कि
तुमने -
मेरे विश्वास को तोडा है ।
ये विश्वास क्या है?
मेरी नज़र में
अपने विश्वास पर
अति विश्वास
अन्धविश्वास है
और ,
शक की ज़रा सी दरार
विश्वासघात है ।
फिर इन्सान
अपने से अधिक यकीं
दूसरों पर क्यों करता है ?

अपने यकीं पर यकीं रखोगे
तो
न अन्धविश्वास होगा
और न ही
विश्वासघात.

मनोज कुमार said...

आजकल आपकी रचनाओं में काफ़ी परिपक्वता आई है। मेरी तो यही राय है कि आप इसी फ़ॉरमेट में लिखें। शब्दों की अल्पव्ययिता से कविता काफ़ी प्रभावी बन पड़ी है। कविता में आत्माभिव्यक्ति, स्वानुभूति और विचारों के आवेग ने जान डाल दी है।
विश्वास भी बड़ा सापेक्ष हो गया है इन दिनों और हर कोई अपने अनुसार इसकी परिभाषा गढ़ लेता है। आपने अपने अनुभूति और अनुभव से इसे पारिभाषित किया है और वह बेहद कठोर सत्य को उजागर करता हुआ-सा प्रतीत हो रहा है।

Rajesh Kumari said...

kabhi kabhi vishvaas badhte badhte andh ki taraf chal deta hai us disha me jaane se khud ko bachana chahiye.bahut achcha likha hai aapne.

Satish Saxena said...

उफ़ .....

Anonymous said...

ज़बरदस्त भाव.......कई बार हालात भी ऐसे हो जाते हैं जब हमे सिर्फ महसूस होता है की हमे छला गया है पर हकीक़त कई बार और भी होती है..........सुन्दर पोस्ट |

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

आज 23- 09 - 2011 को आपकी पोस्ट की चर्चा यहाँ भी है .....


...आज के कुछ खास चिट्ठे ...आपकी नज़र .तेताला पर
____________________________________

सागर said...

तुम्हारे मिथ्या वचनों
को जानते हुए भी
विभ्रमित किये रखा
अपने मौन की परतों में जिसे... bhaavpurn...

vandana gupta said...

्विश्वास को परिभाषित कर दिया।

Anita said...

अगर हम जानते हुए भी अनजान बने रहने का भ्रम पाले रहेंगे तो सदा हमें ढगे जाने की कसक झेलनी होगी सत्य की राह पर चलना ही बेहतर है...चाहे कितनी कीमत चुकानी पड़े...

kshama said...

मैं एकाकी रही
और तुम महफ़िलों
में गुनगुनाते रहे
मैं विश्रांत रही
अपलक तुम्हारे
लौट आने की
उम्मीद लिए.
Wah! Kya likha hai! Khush hun ki, is baar ittela mil gayee!

Patali-The-Village said...

अच्छी भावपूर्ण प्रस्तुति|

Nirantar said...

vishwaas dhoondhtaa rahaa
nirantar vishvaashghaat
hotaa rahaa
main haaraa ,
nahee ghabraayaa nahee
phir bhee chaltaa raha


sundar kavitaa,badhaayee

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

अनामिका जी!
आपकी कविता के शब्द-शब्द इतने अभिव्यक्त हैं कि कविता का भाव-सम्प्रेषण द्विगुणित हो गया है... पिछली श्रृंखलाओं के उपरांत जो मध्य में अंतराल आया था लगता है उसने आपके चिंतन की मूल धारणा में परिवर्तन ला दिया है!!
अद्भुत है यह विन्यास!!

Anju (Anu) Chaudhary said...

tumhari kavita ke jawab mei bas itna hi kii

हर शै में अक्स उसका नज़र आता है क्यूँ मुझको
खुद से नज़र मिलने पर खुद का ही आईना झूठा नज़र आता है
--

anu

संजय भास्‍कर said...

अनामिका जी, आपकी कविता पढ़कर मन अभिभूत हो गया.......भावपूर्ण अच्छी प्रस्तुति

रजनीश तिवारी said...

सवेदनाओं से भरी मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति . विश्वास करना पड़ता है पर आत्मविश्वास से विश्वासघात के दर्द को हराया जा सकता है ...

mridula pradhan said...

har line sunder hai......

Kailash Sharma said...

अब भी
अनगिनत बाते हैं
जो मैं जानती हूँ,
बतानी थी, पर
नहीं बताई तुमने
क्या विश्वास
के यही मानक थे ?

...सच में जब विश्वास खंडित होता है तो बहुत दुःख होता है. मन की व्यथा की बहुत मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति...

Sadhana Vaid said...

विश्वास और अविश्वास, अभिव्यक्ति एवं अनभिव्यक्ति, मौन और मुखरत्व और सम्प्रेषण और स्वीकार के बीच में जो महीन सी कांच की पारदर्शी दीवार है जिस दिन वह टूट जायेगी विश्वास का अस्तित्व स्थापित हो जायेगा ! या तो वह टूट ही जाये या उसकी पारदर्शिता खत्म हो जाये ! बहुत गहन गंभीर एवं सशक्त रचना ! बधाई स्वीकार करें !

पूनम श्रीवास्तव said...

anamika ji
bahut hi sahjta ke saath aapne vishwas shabd ki vykhya ki hai .bilkul sateek chitran kiya hai aapne.sach!vishhwas bhi anek rango se bhara pada hai.
bahut hi behatreen -----
badhai
poonam

Prem Prakash said...

man ko chuna wali ABHIVYAKTI...! SUNDER KAVITA...BDHAI!

अजय कुमार said...

कभी अपने अन्दर
झांक कर सच्चे
दिल से कहो ...

सुंदर और गहरे भाव , अच्छी रचना ,बधाई

Prem Chand Sahajwala said...

अनामिका जी, यह सच है कि विश्वासघात उसी ने किया जिस से आप यह सब कह रही हैं. पर क्या उस पर असर पड़ेगा? मुझे संदेह है, और यह संदेह व इस संदेह का दुःख ही आप की कविता है. सैल्यूट !

Sunil Kumar said...

विश्वास की परिभाषा , बहुत अच्छी लगी ....

देवेन्द्र पाण्डेय said...

दिल से निकली मार्मिक अभिव्यक्ति।

महेन्‍द्र वर्मा said...

तुम्हारे पूर्वाग्रह ,
तुम्हारी उहा-पोह,
तुम्हारी वर्चस्वता ने
कैसे शमन किया
मेरे वजूद का
हर दम !

पूर्वाग्रह जिंदगी की राह के रोड़े हैं।
nice poetry.

***Punam*** said...

न जाने कितनों को इसी तरह का विश्वास या कहें अविश्वास झेलना पड़ता है....कोई कह पाता है शब्दों के माध्यम से और हल्का हो जाता है,कोई जान कर भी परिस्थितियां देख कर मौन रह जाता है,किसी के पास कोई जरिया नहीं होता अपनी बात को दूसरों तक पहुंचाने का और वो अन्दर ही अंदर घुटता है.....कई बार इंसान हालत के हाथों इसी तरह मजबूर हो जाता है....और सामने वाला उसकी इसी मजबूरी का फायदा उठता रहता है..... !
hats of to you...की आपने इतने खुले शब्दों में इतनी बातें कह दीं.... नहीं तो सामजिक परम्पराओं और संस्कारों में दबी कितनी पत्नियाँ/स्त्रियाँ ये बात कह नहीं पातीं.....अपनी-अपनी मजबूरियां होतीं....किसी को किसी से compare नहीं किया जा सकता है.... आज अपनी किसी बात को रखने का इतना खुला मंच मिला है..यह भी बड़ी बात है.... फिर भी अगर प्रतिशत देखा जाए तो उन्हीं स्त्रियों का ज्यादा है... जिनकी बातें यहाँ पर अक्सर होती रहती हैं...जिनके पास अभी भी साधनों की कमी है......जो आपने मन की बातें नहीं कह पातीं...कारन कुछ भी हो सकता है..सामाजिक प्रतिष्ठा,पारिवारिक संरचना,जिम्मेदारियां,किसी का उचित सहयोग न मिल पाना या और भी कुछ.....कुछ कहा नहीं जा सकता....!!

Amrita Tanmay said...

क्या खूब अन्दाज़ है

Udan Tashtari said...

तुम्हारे पूर्वाग्रह ,
तुम्हारी उहा-पोह,
तुम्हारी वर्चस्वता ने
कैसे शमन किया
मेरे वजूद का
हर दम !


एक अलग अंदाज!! बहुत खूब!

Nirantar said...

vishwaas mein hee vishvaas ghaat chhupaa hai

विश्वास ,
एक ऐसा शब्द जो हम निरंतर सुनते हैं ,जिस के बिना मनुष्य का जीवन नहीं चलता,विश्वास दो व्यक्तियों या व्यक्तियों के बीच संबंधों की धुरी के सामान होता है.
संबंधों का बनना,बिगड़ना परस्पर विश्वास पर ही निर्भर करता है.
विश्वास नहीं होता तो विश्वासघात भी नहीं होता .
ध्यान रखने योग्य प्रमुख बात है,विश्वास कभी एक पक्षीय नहीं हो सकता.
सदा द्वीपक्षीय होता है.
विश्वास पाने के लिए विश्वास करना भी उतना ही आवश्यक है,साथ ही मर्यादाहीन,अवांछनीय कार्यों और व्यवहार के लिए किसी से विश्वास की अपेक्षा करना, निरर्थक होता है.

Yashwant R. B. Mathur said...

कल 21/11/2011को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!

सदा said...

वाह ...बहुत ही सार्थक व सटीक अभिव्‍यक्ति ।

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') said...

कभी अपने अन्दर
झांक कर सच्चे
दिल से कहो ...

सार्थक चिंतन/रचना...
सादर...

मेरा मन पंछी सा said...

bahut hi acchi prastuti hai...

Asha Lata Saxena said...

अब भी अगणित बातें हैं जो मैं जानती हं अ---
विशवासघात किया
अच्छी पंक्तियाँ
भावपूर्ण रचना |
आशा